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मंगलवार, 12 नवंबर 2019
गुरुवार, 22 अगस्त 2019
पुस्तक चर्चा:
भारतीय सौन्दर्य दर्शन की चर्चा हमारे विद्वत समाज में बहुत समय से की जा रही है| भरत मुनि का ग्रन्थ ‘नाट्यशास्त्र’ भारतीय सौन्दर्य चेतना का आकर ग्रन्थ है| इस दिशा में संस्कृत नाट्य के अतिरिक्त भरतकालीन कलाओं की चर्चा भी अक्सर की जाती है|आदरणीय कमलेश दत्त त्रिपाठी और राधावल्लभ त्रिपाठी जैसे नाट्यशास्त्र के बड़े विद्वानों ने भरत मुनि के अवदान को बहुविध परिभाषित और व्याख्यायित भी किया है| लेखक को इन विद्वानों का स्नेह भी मिला| इसी भारतीय सौन्दर्य चेतना को आगे बढाते हुए गत दिनों भारतेंदु मिश्र की पुस्तक ‘भरतकालीन कलाएं ’ का प्रकाशन संगीत नाटक अकादमी ,नई दिल्ली से हुआ है| हालांकि भारतेंदु जी की साहित्य की अनेक विधाओं में दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, परन्तु इस पुस्तक की बात और है| इस पुस्तक की रचना के समय लेखक को प्रख्यात रंग निदेशक-स्व.हबीब तनवीर और पणिक्कर साहब जैसे विद्वानों का भी आशीर्वाद मिला|इस पुस्तक में भरत मुनि की रचना ‘नाट्यशास्त्र’ को लेखक ने समस्त भारतीय कलाओं का उद्गम माना है| प्रस्तुत है इसी पुस्तक पर केन्द्रित भारतेंदु मिश्र जी से बातचीत-
रश्मिशील- अर्थात हमारी समकालीन लोककलाओं में जो सौन्दर्य चेतना है वह प्राचीन भारतीय परंपरा से जुडी है?
भरतकालीन कलाएं : भारतेंदु मिश्र
रश्मिशील- भारतीय सौन्दर्य दर्शन को आप किस रूप में चिन्हित करते हैं?
भारतेंदु मिश्र- रश्मिशील जी, ये बहुत व्यापक प्रश्न है और इसकी अवधारणा हमें वैदिक वांग्मय से नैसर्गिक रूप में मिलती है जहां ऋग्वेद में संवाद हैं और सामवेद में संगीत है | हालांकि भारतीय सौन्दर्य चेतना ईसा पूर्व चौथी सदी के लगभग से हमारे समाज में व्याप्त रही है,इसके प्रमाण मिलते हैं| इसी समय में नाट्यशास्त्र जैसे आकर ग्रन्थ की रचना हुई होगी| भरत की दृष्टि मूलत: लोकवादी है,उसमें स्त्री सहित दलित आदि सभी प्रकार के आम जन का सामान रूप से स्वागत है| वह आदिदेव शिव और पार्वती के नृत्य से उत्पन्न हुआ है| शिव आदि देव हैं और उनके दरबार में सुर असुर सभी का सामान रूप से स्थान है| वहां ब्राह्मणवाद या मनुवाद की धर्मशास्त्रीय अवधारणाओं का वैसा अनुप्रयोग नहीं किया गया है| रस की अवधारणा मानवीय मनोविज्ञान से जुडी है न कि धार्मिक और नैतिक आचरण आदि से| इस लिए भारतीय सौन्दर्य की अवधारणा रस मूला है| आनंद ही उसका अंतिम प्रयोजन है| नाट्यशास्त्र में आनंद की जो लोकवादी सौन्दर्य चेतना दिखाई देती है वह कदाचित विश्व साहित्य में अन्यत्र नहीं है| यूनानी सभ्यता में भी भारतीय रस की अवधारणा जैसा उपादान नहीं है| इसलिए भारतीय सौन्दर्य दर्शन सदियों से लेकर आज तक नैसर्गिक लोकरंजन से जुडी हमारी कलाओं में व्याप्त है|

भारतेंदु मिश्र- जी यही तो मैं कह रहा हूँ| समय के प्रवाह में उनके रूपाकारों में परिवर्तन आये हैं| तकनीकि में ,माध्यम में ,स्थान आदि में परिवर्तन आया है लेकिन आधार तो बहरहाल वही है|
रश्मिशील- अभिनय,नृत्य,संगीत आदि में तो बहुत परिवर्तन हो गया है?
भारतेंदु मिश्र- जी, एक दृष्टि से आप कह सकती हैं कि बहुत परिवर्तन हुआ है किन्तु आज भी रंगमंच के आधार भूत सिद्धांत तो वही हैं| नृत्य के शास्त्रीय और उपशास्त्रीय तरीके भरतमुनि के अनुसार ही चलते हैं| ध्रुवागान आदि में तो कोई परिवर्तन नहीं हुआ| रंगमंड़प का विधान सूत्रधार आदि का प्रयोग तो वैसा ही होता है| प्रेक्षागारों का रूप भी बहुत हद तक वैसा ही है जैसा भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में समझाया है| उस समय भी ‘तौरिप’ होता था जिसे संगीत निर्देशक के रूप में समझा जा सकता है| अभिनेताओं के अलावा आभरणकार ,मुकुटकार,वेषकार,मालाकार,रंगरे ज,कारूक (काष्ठ्शिल्पी) आदि होते थे आज भी ये सब प्रकार के कलाकार नाटक खेलने के समय जुटते हैं| न वीणा में परिवर्तन हुआ न वंशी में बदलाव हुआ, न सात स्वरों में बदलाव हुआ,न मृदंगम में परिवर्तन हुआ,न पखावज में | अब टीवी देखने वाले लोगों को नहीं समझ में आयेगा किन्तु कलाओं की साधना करने वाले आपके देश में आज भी भरतमुनि के द्वारा सुझाए गए सिद्धांतों और कला व्यापारों का उपयोग जाने अनजाने करते हैं|
रश्मिशील- क्या प्राचीन नाटकों में स्त्रियों का अभिनय स्त्रियाँ ही करती थीं?
भारतेंदु मिश्र- जी बिलकुल स्त्रियाँ ही नाटकों में अपना पात्र निभाती थीं| बल्कि कुछ नाटक के रूप तो केवल स्त्रियों के द्वारा ही अभिनीत किये जाते थे| लगभग १२०० वर्ष पहले हमारे समाज में मंदिर नहीं थे ,केवल शिवालय थे जिनमें आज जैसे देवी देवताओं की मूर्तियाँ नहीं थीं| किन्तु अधिकाँश राज्यों नगरों में रंगशालाएं होने के प्रमाण मिलते हैं| स्थानीय समाजों में रंगमंडली होती थी|केरल में कोडियाट्टम ,दक्षिण में भरतनाट्यम,कथकली आदि की जीवंत परंपरा में आप आज भी देख सकती हैं| भरतमुनि के रंगमंच पर स्त्रियों के लिए कोई स्थान वर्जित क्षेत्र नहीं है| ये मध्यकाल में आक्रान्ताओं के आक्रमण के बाद विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के टकराव में स्त्री अस्मिता को और निम्न जातियों को मनुवाद की मार झेलनी पड़ी|
रश्मिशील- आप मानते हैं कि ‘नाट्यशास्त्र’ पर मनुवाद का प्रभाव नहीं है?
भारतेंदु मिश्र- जी बिलकुल नहीं है , भरतमुनि के बहुत बाद मध्यकाल में मनुस्मृति की रचना हुई,और धर्मशास्त्र के जातीय व्यवस्था वाले अधिकतर नियम भी दसवीं सदी के आसपास लागू हुए| भरतमुनि का समय उनसे बहुत पहले का है| इसी मध्यकाल में हमारी कलाओंपर धार्मिकता का आवरण चढ़ा |धर्म के नाम पर देवदासी जैसी प्रथा को कुप्रथा के रूप में विक्सित किया गया स्त्रियों और दलित जनों पर धर्म-पाखण्ड और पुरोहितवाद के चलते राजाओं ने अत्याचार किये जाने लगे|इसी एक हजार वर्ष के समय में हमारी लोकवादी संस्कृति छिन्न हुई| कालान्तर में हमारी कलाओं पर भी कहीं न कहीं पुरोहितवाद का प्रभाव पड़ा| कलाओं को धार्मिक-नैतिक मूल्यों का संवाहक समझा जाने लगा| निर्गुनिया,सूफी,संतों आदि ने काव्य और संगीत जैसी कलाओं के माध्यम से समाज को मानवीय प्रगति के मार्ग पर आगे बढाया|
रश्मिशील- भरतमुनि ने किन कलाओं को अपने ग्रन्थ में विवेचित किया है?
भारतेंदु मिश्र- भरतमुनि नाट्यशास्त्र के पहले ही अध्याय में स्पष्ट कर देते हैं कि इस नाटक में समस्त कलाएं समाविष्ट हो जाती हैं|इसीलिए हजारों वर्षों के अंतराल के बावजूद आम जन के मन में नाटक के प्रति आकर्षण समाप्त नहीं हुआ-
न तज्ज्ञानं न तत्छिल्पं न सा विद्या न सा कला|नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येSस्मिन यन्न दृश्यते ||(ना.शा.1/116) अर्थात संसार में ऐसा कोई- ज्ञान,शिल्प,विद्या ,कला, योग ,कर्म आदि नहीं है जिसका समावेश नाटक में न हो| मैंने इस तथ्य को तर्कों के आधार पर भी देखा परखा है| ‘भरतकालीन कलाएं ’में शोध और विश्लेषण करते समय मैंने – अभिनय,काव्य,संगीत,नृत्य,वास्तु ,चित्र,मूर्तिकला जैसी ललित कलाओं का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है| भरतमुनि ने इन कलाओं के अतिरिक्त तौरिप,मुकुटकार,वेषकार, रजक, काष्ठशिल्पी,आभरण बनाने वाले सहित अन्य शिल्प कलाओं का भी यथा अवसर उल्लेख किया है|
रश्मिशील –भरतमुनि के समय में वास्तुकला का क्या रूप रहा होगा?
भारतेंदु मिश्र- रश्मिशील जी, भरतमुनि के समय में वास्तुकला बहुत प्रगति पर थी| उन्होंने वर्गाकार,आयताकार,त्रिभुजाकार और वृत्ताकार भवनों के निर्माण का उल्लेख किया है| भरतमुनि ने रंगमंडप के लिए विविध आकार के भवन बनाए जाने की आवश्यकता पर बल दिया है| मंच कितना हो प्रेक्षकों के लिए बैठने के लिए कितना स्थान हो यह भी समझाया है| ये भवन जिन चार स्तंभों पर खडा किया जाए उन्हें ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र सभी के द्वारा स्थापित किया जाए| भित्तियों पर प्लास्टर आदि करने तथा उनकी सजावट आदि किये जाने का भी व्यापक उल्लेख भरतमुनि ने किया है|
रश्मिशील- जी यह सब तो ठीक है किन्तु अब मार्क्सवादी वैचारिकता वाली इक्कीसवीं सदी में हजारों वर्षो बाद क्या कोई भरतमुनि की सौन्दर्य दृष्टि आप देख पाते हैं,अथवा उसकी प्रासंगिकता अनुभव करते हैं?
भारतेंदु मिश्र- जी आपकी चिंता सही है कि हजारों वर्षों के अंतराल में प्राचीन साहित्य दर्शन कलाओं आदि का रूप नष्ट हो चुका है या परिवर्तित हो चुका है तो अब उसे क्यों पढ़ा जाए? देखिए हम अपना इतिहास पढ़ते हैं,और अपनी शाश्वत परंपराओं पर गर्व करते हैं| दुनिया के किसी भी देश या समाज ने अपने अतीत के गौरव को नष्ट नहीं किया| कुछ उत्तर आधुनिकतावादी नए मार्क्सवादी विचारक इतिहास को शवसाधना से जोड़कर देखते हैं ,इतिहास और संस्कृति में सबकुछ वैसा त्याज्य नहीं है| यह उनका अज्ञान है|हमारा समाज केवल यथार्थ जीवी कभी नहीं रहा,परपराएं बनती बिगड़ती हैं बदलाव से हमेशा प्रगति नहीं होती है –विनाश भी होता है | सार्थक बदलाव हमारे समाज को प्रगतिशील बनाते हैं| जबतक ध्रुवा रहेगा,कथक रहेगा ,भरत नाट्यम है,रंगमंच और नाटक रहेगा,नृत्य रहेगा,संगीत रहेगा,रस सिद्धांत रहेगा–लोककलाएँ-नाचा,विदेसिया, गरबा,बिहू,नौटंकी, के अतिरिक्त मधुबनी पेंटिंग्स,फुलकारी,काष्ठशिल्प, मंदिरों की मूर्तियाँ,वास्तु आदि जीवंत हैं-भरतमुनि प्रासंगिक रहेंगे| मुझे लगता है कि आज इक्कीसवीं सदी में भी भरतमुनि की स्वतन्त्र कला चेतना का अपना महत्त्व है वे प्रस्थान बिंदु हैं ,उनका स्थान कोई और नहीं ले सकता|
रविवार, 20 जनवरी 2019

वैदिक और भरतकालीन स्त्रियाँ : कलाओं में भागीदारी
# भारतेंदु
मिश्र
भरत मुनि के समय में
और उसके बहुत समय बाद तक अभिनय आदि ललित कलाओं और प्रदर्शनकारी कलाओं में समाज की
सभी स्त्रियों की भागीदारी पुरुषों के ही सामान थी| साहचर्य की अविरल व्यवस्था में
वहां कोई अंतर नहीं था,महाभारत और रामायण काल तक स्त्री पुरुष दोनों को साथ साथ
काम करते हुए हम देख सकते हैं| कैकेयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध पर जाती हैं और
युद्ध में उनकी सहयोगी बनकर उनकी सहायता करती हैं|सीता राम के साथ वनगमन करती
हैं|इसीप्रकार संगीत समारोहों में, शरादोत्सवों,वसंतोत्सवों और स्वयंवरों में भी
उनकी सामान भागीदारी होती थी| उस समय भी सौन्दर्य,वैभव और शक्ति का प्रदर्शन राजा
किया करते थे| ऋग्वेद में अनेक
मंत्रदृष्टा महिला ऋषियों का उल्लेख मिलता है|
प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी के अनुसार - ‘ऋग्वेद तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में कतिपय स्त्रियों का ऋषि के रूप में उल्लेख
है। स्त्री के ऋषि होने का अर्थ है कि वह मंत्रों का साक्षात्कार कर लेती है।
हरिपद चक्रवर्ती(1981: 54) ने लोपामुद्रा, अपाला तथा घोषा को महिला ऋषि माना है। मांधात्री, अगस्त्य की अज्ञातनाम बहिन, वसुक्र की पत्नी, शाश्वती, गोधा विश्ववारा भी ऐसी ही महिला ऋषि हैं। मंत्रों की
रचनाकार कवि के रूप में घोषा का उल्लेख ऋग्वेद (1.117.7,
10.40.5, 10.39.3.6) में आता है। ‘(संस्कृत साहित्य में स्वाधीन स्त्रियाँ)
हमारी परंपरा में
वैदिक साहित्य से ही स्त्री पुरुष के संवाद यज्ञ आदि कर्मकांडों के अवसर पर नाटक
के रूप में प्रयुक्त किए जाते रहे हैं| स्त्रियाँ पुरुषों के सामान और समकक्ष
हैं,वहां कोई भेद या असामनता नहीं है|ऋग्वेद के दशम मंडल में संवाद सूक्तों की
प्रमुखता इस बात का प्रतीक है| पुरुरवा -उर्वशी संवाद,यम -यमी संवाद,अगस्त्य
-लोपामुद्रा संवाद,सरमा- पणि संवाद आदि को पढ़ने से यह सहज रूप में ज्ञात होता है
कि ये संवाद ही बाद में नाट्य के रूप में प्रकट हुए| इन संवादों में उत्तर
प्रत्युत्तर की शैली है और इनमें संवेगात्मक नाटकीयता भी विद्यमान है| सरमा -पणि
सूक्त में तो सरमा अपनी पैने संवादों से पणियों को हतप्रभ और निरुत्तर कर देती है|
यम -यमी संवाद में यमी के प्रत्येक आरोप का यम त्वरित उत्तर देते हैं| --विवस्वान
के पुत्र यम की बहिन यमी अपने ही जुडुआ भाई से प्रेम एवं संतति की याचना करती हैं|
परन्तु यम यह कहते हुए उसके प्रस्ताव को अस्वीकृत कर देता हैं कि हम दोनों एक ही
एक ही साथ एक ही माता के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं,इसलिए यह उचित नहीं है-यमी कहती
है-जब हम दोनों एक साथ माता के गर्भ रूपी महासागर में एक दूसरे की नौका बन चुके
हैं तो अब क्या अनुचित है? यम कहता है-देवताओं के श्रेष्ठ पहरेदार वरुण देख लेंगे
एवं क्रुद्ध हो जायेंगे तुम किसी अन्य को अपना पति बनाओ| इसके विपरीत यमी कहती हैं
- वे इसके लिए अपना आशीर्वाद देंगे| इस संवाद का आगे अंत कैसे हुआ, यह प्रसंग तो ऋग्वेद में नहीं हैं|इसी प्रकार सरमा
-पणि संवाद है- जब देवराज इन्द्र के बार
बार कहने के बाद भी पणियों ने उनकी गायों को नहीं छोड़ा और जिससे प्रजा व्याकुल होने लगी,
तब इन्द्र ने देवाशुनी सरमा को (कुतिया) दूती के रूप में भेजा । सरमा अर्थात ‘सरति गच्छति सर्वत्र इति
सरमा, देवानां सुनी सूचिका दूती वा देवशुनी सरमा’- कही
गई है। इस प्रकार देवशुनी बादल की गड़गड़ाहट रूपी ध्वनि के साथ पणियों से संवाद
करती है और कहती है कि हमारे राजा की गौओं को छोड़ दो, नहीं तो हमारा बलवान राजा दण्ड देगा। पणियों ने देवशुनी की बात नहीं मानी,
तब इन्द्र ने वज्र प्रहार कर अर्थात् वायु के प्रहार के
माध्यम से पणियों को मारकर धरती पर सुला दिया और अपनी गायों को मुक्त करा लिया।
सारा संसार वृष्टि से सुखी हुआ और सूर्य की किरणें चारों ओर फैल गईं।
इसी प्रकार शापित उर्वशी स्वर्ग से धरती पर आकर
पुरुरवा से प्रेम करती है पुत्र का जन्म भी होता है और फिर वह पुरुरवा की प्रत्येक
अनुनय भरी उक्ति को नकारती हुई इन्द्रलोक चली जाती है| कालिदास ने बाद में इसी
संवाद को लेकर संभवत: ‘विक्रमोर्वशीयम’ नाटक की रचना की थी| तात्पर्य यह कि वैदिक
काल से ही स्त्री अकुंठ भाव से जीवन में सहचरी है और रंगमंच पर भी विद्यमान है| इस
प्रकार के उदाहरणों से यह तो साफ़ होता है कि वैदिक काल की स्त्रियाँ अकुंठ और
वर्जनाओं से मुक्त थीं| उन्हें जो अपने लिए उचित लगता है वह स्पष्ट कह लेती हैं| अपनी स्वेच्छा ही उनके लिए
महत्वपूर्ण होती थी,वे पराधीन तो बिलकुल ही नहीं थीं| प्राचीन काल के यज्ञों के
आयोजनों में अनुष्ठान के अंश के रूप में पुंश्चली अर्थात अनेक पुरुषों के संपर्क
में रहने वाली स्त्री का ब्रम्हाचारियों से संवाद होता था | आज के समाज में हम इसे
अश्लील कह सकते हैं| इसका उद्देश्य संभवत: ब्रम्हचारी के ब्रम्हचर्य की दृढ़ता से
परीक्षा करना होता था| इसके मूल में ये संवाद धर्मिता ही कालान्तर में नाटक के रूप
में विक्सित होती गयी| ये वैदिक कर्मकांड मनुष्य जीवन की गहरी संलिप्तता के प्रतीक
होते थे| हमारे षोडस संस्कारों में विवाह,यज्ञोपवीत संस्कार आदि के अवसर पर भी
भाभियों,पत्नी की सहेलियों,बहनों आदि के
द्वारा वर से और ब्रम्हचारी से हंसी मजाक आदि को उत्सव के रूप में शामिल कर
लिया गया|ये सब स्त्रियाँ स्वतन्त्र भाव से किसी न किसी रूप में अपनी वाचिक चतुराई
और कौशल का ही प्रदर्शन करती हैं|
माना जाता है कि
भारत में रंगमंच की परंपरा बहुत पुरानी है|
भरत मुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में ही यह माना है कि वो जो नाट्यशास्त्र की चर्चा
करने जा रहे हैं वह पहले से ही लोक में व्याप्त है|भरतमुनि का समय ईसा से लगभग 400 वर्ष पूर्व माना जाता
है| पाणिनि ने भी भरत से पूर्व नट सूत्रों की चर्चा की है| भरतमुनि नाटक में स्त्री पात्रों की विस्तार से
अभिनय,नृत्य ,संगीत आदि के क्षेत्र में चर्चा करते हैं| पूर्वरंग की परंपरा नट और नटी के द्वारा ही संपन्न की जाती थी|
अर्थात नट और नटी दोनों मिलकर ही नाटक का शुभारंभ करते थे|
महाभारत कालमें
रंगमंच का और अधिक विस्तार हुआ|
धृतराष्ट्र ने भी प्रेक्षागृहों का निर्माण करवाया| स्वयंबर आदि जैसे आयोजन भी
विशाल रंगशालाओं में ही संपन्न होते थे| हमारी परंपरा में प्राचीन काल में स्त्री
को अपना वर चुनने का अधिकार था| संस्कृत नाटकों में अंत:पुर का उल्लेख अवश्य मिलता
है किन्तु स्त्रियों के लिए कहीं किसी प्रकार का पर्दा या घूघट आदि का प्राविधान
नहीं किया गया था|
उर्वशी अप्सरा इंद्र के दरबार में नृत्यांगना है|एक बार गंगा
यमुना संगम स्थल प्रयाग के निकट प्रतिष्ठानपुर के राजा पुरुरवा को आकाशमार्ग से
स्त्रियों के रोने चीखने का स्वर सुनाई देता है तो वो उस स्त्री के निकट जाकर कारण
का पता करते हैं तो मालूम होता है कि केशी नामक राक्षस ने उसकी प्रिय सखी उर्वशी
का अपहरण कर लिया है | केशी का वध कर सम्राट उर्वशी की रक्षा करते हैं लेकिन पहली
बार में ही उर्वशी को देखते ही वे उससे
अपना हृदय हार जाते हैं| उर्वशी भी इस अप्रतिम शक्तिशाली तेजस्वी राजा को देखर उस
पर मुग्ध हो जाती है परन्तु उस समय उर्वशी अपने परिजनों अर्थात मेनका,रम्भा और सखी चित्रलेखा के साथ देवलोक वापस चली जाती है|दोनों एक दूसरे
से प्रेम में करने लगते हैं|पुरुरवा की पत्नी औशीनरी जो महारानी है उसको भी अपने
पति का यह प्रेम प्रसंग ज्ञात हो जाता है लेकिन वह प्रकट रूप से उसका विरोध नहीं
करती|उर्वशी की विह्वलता बढ़ती जाती है एक दिन इन्द्रसभा में नृत्य करते समय गायन
के अवसर पर वह देवराज इंद्र के बजाय पुरु का नाम ले लेती है तो यह सुनकर रंग
निर्देशक मुनि क्रोधित होकर उसे श्राप देते हैं| फिर देवसभा में श्राप पर
पुनर्विचार किया जाता है और तय होता है कि ये धरती पर जाकर पुरुरवा के साथ रहे और
पुत्र जन्म के पश्चात इसका शापमोचन संभव है|राजा बार बार अनेक तरह से उर्वशी से उसे
अपनालेने के लिए आग्रह करता है किन्तु उर्वशी अपने निर्णय पर अटल रहती है और पुत्र
जन्म के बाद इंद्र की सेवा में पुन: चली जाती है | ऐसे ही शची,गार्गी,मैत्रेयी आदि
नारी पात्र वैदिक और पौराणिक काल में देवियों के अनेकानेक रूप स्त्री के
स्वातंत्र्य और उनके विवेकवती होने के उदाहरण हैं|
वाल्मीकि रामायण में
चित्रित पात्र यथार्थवादी सामाजिक जीवन के बहुत अधिक निकट हैं| रामायण में कैकेयी
जैसी पात्र है जो दशरथ को अपने सौन्दर्य ,युद्ध कौशल और प्रतिभा से इतना प्रभावित
करती है कि वे उसे कभी भी दो वरदान माँगने के लिए वचन देते हैं| और उन्ही दो वचनों
पर रामायण की कथा आगे चलती है| तारा अपने महाबली पति बालि का विरोध करती है|
मंदोदरी रावण से सीताहरण को लेकर असहमति ही नहीं व्यक्त करती बल्कि रावण का स्पष्ट
विरोध भी करती है| रावण से सीता कहती हैं- ‘तू गीदड़ है और मुझ सिंहिनी की कामना
करता है|’ सीता से रावण भयभीत ही प्रतीत होता है| महाभारत काल में तो कुंती
गांधारी,दौपदी जैसे और ऐसे पात्र हैं जो अपनी स्वतंत्रता और अपने निर्णयों के लिए
जाने जाते हैं| सूर्य से कुंती के प्रेम की कथा,शांतनु और मत्स्यगंधा की प्रेम
कथा,स्वयंबर की अनेक शर्तों के बीच
स्त्री की अस्मिता और उसकी तेजस्विता को महत्त्व भी मिला| महाभारत के पुरुष पात्र
स्त्रियों की अपेक्षा कम तेजस्वी लगते हैं| शांतनु की पहली पत्नी गंगा अपना वचन
निभाकर चली जाती है,गंगापुत्र भीष्म कभी विवाह न करने की प्रतीज्ञा लेकर पिता के
राज्य की सेवा में अपने को खपा देता है| इस अतुलित बलशाली का अंत भी एक किन्नर
शिखंडी के तीर से होता है|दौपदी के चीरहरण की रोमहर्षक कथा दरबार के सभी दरबारियों
के सामने हुए अत्याचार की घ्रणित कहानी अभी तक हमें स्त्री विमर्श के बारे में गंभीर
होने के लिए प्रेरित करती है|उसके पांच पतियों के साथ रहने और द्रोपदी से पांचाली
बनाये जाने अथवा स्वयं बन जाने की लोक परंपरा को भी संवेदना के गहरे आलोक में
समझने की आवश्यकता है| सहस्राब्दियों बाद भी कुंती और दौपदी का नाम बहुत आदर से
लिया जाता है ,जबकि आज के युग में किसी स्त्री का विवाहेतर संबंध कोई पुरुष
स्वीकार नहीं करता| ये जो पुरुष सतात्म्क सामाजिक अनुशासन है इसने सदैव ऐसी
स्त्रियों को न केवल प्रताड़ित किया बल्कि अधिकतर उन्हें मृत्युदंड ही दिया है|
प्राचीन काल की
स्त्रियाँ स्वाधीन हैं| विभिन्न सांस्कृतिक समाजों में वे देवी रूप में मातृसत्ता
का प्रतीक भी हैं|नयी अभिनेत्री आज भी जब
हमारे प्राचीन भारतीय रंगमंच की स्थापित नायिकाओं को नए समय के नए सन्दर्भ में
प्रस्तुत करती है और जब कैकेयी,राधा,सीता,अहिल्या,सावित्री,मत्स्यगंधा,गांधारी,कुंती
दौपदी,सुभद्रा,वसंतसेना,यशोधरा,आम्रपाली
जैसे पात्र के रूप को सही ढंग से प्रकट कर पाती है तो
उसकी सभी ओर प्रशंसा
होती है| संस्कृत नाटकों में भी अनेक सीता,देवकी,यशोदा,शकुन्तला,दमयंती,
यशोधरा,कुंती,द्रोपदी,गांधारी
आदि पौराणिक स्त्री पात्रों के अलावा वसंतसेना,मालविका,वासवदत्ता रत्नावली शारदा
आदि ऐसी स्त्री पात्र उपस्थित हुई हैं जो हमारी संस्कृति को गहरे तक प्रभावित करती
हैं| ये स्त्री पात्र अपने रूढ़ हो चुके चरित्र के कारण सदा के लिए विख्यात हो चुकी
हैं|विश्वविख्यात आचार्य मंडन मिश्र और शंकराचार्य के शास्त्रार्थ का निर्णय करने के
लिए विद्वत मंडली मंडन मिश्र की पत्नी शारदा को नियुक्त करती है और उसी के निर्णय
से मंडन मिश्र शास्त्रार्थ में पराजित हो जाते हैं|शारदा के निर्णय की बहुत सराहना
की जाती है| इसी प्रकार नगर सुन्दरी चुने जाने के बाद वसंतसेना को आदरपूर्वक चार
मल्लों की डोली पर बैठा कर पूरी उज्जयिनी में घुमाया जाता है|किसी दशा में ये सब
प्राचीन स्त्रियाँ पराधीन नहीं है|
अभिनय के क्षेत्र
में नायिका भेद करते समय भरत ने नाट्यशास्त्र के बाइसवें अध्याय में श्लोक-213 से
220 तक नायिकाओं के आठ प्रकार बताएं हैं| जो क्रमश: 1. वासकसज्जा(अपने घर को सजा
कर अपने पति की प्रणय कामना
से प्रतीक्षा करती है|)2.विराहोत्कंठिता (जो अपने प्रिय के विरह में उत्कंठित या
व्याकुल है|)3.स्वाधीनभतृका (जो सौभाग्य स्वाभिमान से परिपूर्ण अपने पति अथवा
प्रेमी को अपने आधीन रखती है|)4.कलहान्तरिता(जो ईर्ष्यावश हुए कलह के कारण छोड़ करे
चले गए प्रिय के प्रति क्रोध से भरी है|)5.खंडिता (जिसका प्रिय किसी अन्य के साथ
आसक्त होकर चला गया है उसके दुख से जो दुखी है|)6.विप्रलब्धा (जिसका प्रिय केवल
सन्देश भेजता है और मिलने नहीं आता )7.प्रोषितपतिका (जिसका पति किसी कार्य से बाहर
चला गया है|)8.अभिसारिका (जो लोकलाज छोड़कर प्रिय से मिलन हेतु अभिसार करती है |)
इसके अलावा सामाजिक
स्थिति के अनुरूप चौबीसवें अध्याय में भरत मुनि नायिकाओं के चार रूपों की चर्चा
करते हैं,जो इस प्रकार है-1.दिव्या, अर्थात दिव्य स्त्री,योगिनी अथवा सिद्ध स्त्री
| 2.नृपपत्नी ,अर्थात –महारानी आदि|3.कुलस्त्री अर्थात अभिजन सामाजिक परिवार की
कुलीन स्त्री|4.गणिका,अर्थात नर्तकी पुरुषो के आमोद प्रमोद का उपादान बनने वाली|
साथ ही स्त्रियों के स्वभाव आदि के अनुसार
भरत कहते है कि ये उत्तमा,मध्यमा,अधमा तीन कोटियों में विभाजित की जा सकती हैं|
‘उत्तमा’ अर्थात जो –मृदु ,चंचलतारहित,
स्मितभाषिणी,अनिष्ठुर ,गुरुजनों की सेवा करने वाली,सलज्जा ,विनम्र,संस्कारी कुल की
हो , तथा जो माधुर्य,गाम्भीर्य और धैर्य आदि गुणों से युक्त हो| जिसमें उक्त गुणों
में से कुछ कम गुण हो वह ‘मध्यमा’ और जिसमें ये सब गुणा न हों वह ‘अधमा’ नायिका
समझी जाती है| इन्हें ही नायकों की भाँति - धीरा,ललिता,उदात्ता,और शांता आदि कर्म
से भी अभिनय हेतु चुना जा सकता है| इस प्रकार नायिकाओं के भेदोपभेद करते हुए अनंत
भेद किये जा सकते हैं| हम देखते है कि स्त्रियाँ पुरुषों के सामान ही आदिकाल से
सामाजिक जीवन में सहभागी रही हैं|
प्रदर्शनकारी कलाओं
और ललित कलाओं के क्षेत्र में भी स्त्रियों की लगातार सामान भागीदारी रही
है|यद्यपि ललित कलाओं और प्रदर्शनकारी कलाओं
में अंतर होता है| जिन्हें हम ललित
कलाएं कहते हैं उन सभी कला क्षेत्रों में भी स्त्रियों के सहभाग की सदैव आवश्यकता
रही है| हमारी सभ्यता में अभिनय,नृत्य और संगीत आदि की उत्पत्ति तो शिव और पार्वती
से ही हुई है| महागौरी को लास्य और स्त्रियों के सभी नृत्य रूप की अधिष्ठात्री के
रूप में स्वीकार किया जाता है| भरत मुनि का ‘नाट्यशास्त्र ’ तो समस्त
कलाओं,विद्याओं,शिल्पों,कौशलों,योग आदि का कोश है|प्राचीन भारत में जो सांस्कृतिक
परंपराएं हमें देखने को मिलाती हैं उन पर भरतमुनि
के नाट्यशास्त्र की अमिट छाप है-
न तज्ज्ञानं न
तत्छिल्पं न सा विद्या न सा कला|
नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येSस्मिन यन्न दृश्यते ||(ना.शा.1/116) भरतमुनि के और उनके टीकाकारों के अनुसार
यह ग्रन्थ पंचम वेद के रूप में विख्यात है और इसकी रचना स्त्री और दलित समाज
सहित सभी वर्णों के लिए की गयी है| इसे पढ़ने जानने और कलाओं को सीखने के लिए किसी व्यक्ति को वर्जित नहीं किया
गया है| भरतमुनि जिन ललित कलाओं का उल्लेख करते हैं वे –वास्तु,चित्र,स्थापत्य,संगीत,काव्य,नृत्य
और अभिनय हैं| तात्पर्य यह कि नाट्यशास्त्र हमारी संस्कृति का ऐसा महाकोश है
जिसमें स्त्रियों के कौशल आदि पर भी सर्वप्रथम गंभीरता से विचार किया गया है|कलाओं
के क्षेत्र में न कोई शुद्धतावादी दृष्टिकोण है न कोई वर्जना ही है,ये कलाएं और
कलाकार स्वभावत: स्वतन्त्र हैं| इससे ही आगे चलकर अभिनवगुप्त ने –स्वतन्त्रकालाशास्त्र
की विवेचना की है| स्त्रियों के अभिनय के
क्षेत्र में उनका वेश कैसा हो उनका केश विन्यास कैसा हो,उनका
अंग-हस्त,पाद,कटि,अक्षि आदि का संचालन कैसा हो इन सब विषयों पर विस्तार से
नाट्यशास्त्र में विचार किया गया है|तात्पर्य यह कि स्त्रियाँ स्वेच्छा से प्राचीन
काल से प्रदर्शनकारी कलाओं के क्षेत्र में भागीदार होती रही हैं|
बाइसवें अध्याय में
भरत कहते हैं –‘संसार में सभी लोग सुख चाहते हैं|सुख का मूल स्त्री है|स्त्रियाँ
विभिन्न शीलों वाली होती हैं| ’ (नाशा.22/90) इसी अवसर पर भरतमुनि
‘स्त्रीजनकृतप्रयोग’ अर्थात स्त्रीप्रेक्षा- की चर्चा करते हैं जिसमें स्त्रियाँ
ही पुरुषों का भी अभिनय करती हैं| आदि कवि वाल्मीकि के अनुसार महाराज दशरथ के समय
अयोध्या में स्त्रियों के अनेक नाटक दल थे-
‘वधूनाटकसंघैश्च
संयुक्तां सर्वत:पुरीम ’ (वा.रा.5/12-बालकाण्ड) अर्थात रामायण काल में स्त्रियाँ
अपने नाट्यसंघों की मालकिन होती थीं| तात्पर्य यह कि दशरथ के समय में अयोध्या में
उनके लिए कहीं कोई वर्जना नहीं रही होगी| स्त्रियों को लेकर किसी प्रकार की वर्जना
या कुंठा आदि का भाव हमारे प्राचीन समाज में नहीं दिखाई देता| भरतमुनि
अभिनय,नृत्य,संगीत,आदि ललित कलाओं के अलावा उपयोगी कलाओं पर भी विचार करते हैं
जैसे-तौरिप का उल्लेख भरतमुनि करते हैं
,तौरिप नाट्यमंडली के संगीत का मुखिया
होता था जिसे आज संगीत निदेशक कहा जाता है| सभी प्रकार के वादक,गायक और नर्तक उसके
आधीन होते थे|इसके अलावा मुकुटकार,रंगरेज,वेषकार,आभरणकार,माली
,कारूक(काष्ठ्शिल्पी) आदि का भी उपयोग इन प्रदर्शनकारी कलाओं में किया जाता था| इन
सभी कलाओं में स्त्रियों की भी सामान भागीदारी होती थी|
नाटक के अनेक भेदोपभेद
के साथ ही कथक,भरतनाट्यम,रामलीला,रासलीला ,डांडिया,
विदेसिया,गरबा,नाचा,कथकली,कठपुतली- जैसी
अनेक लोक काव्य नाट्य की परंपराओं में भी स्त्रियों की भागीदारी सदैव बनी
रही|
स्त्रियों के सहयोग और उनके नृत्य,गायन और सक्रिय
भागीदारी के बिना ये परंपराएं और उत्सव संभव ही न थे| आज जो प्रदर्शनकारी कलाओं का
रूप है वह अधिकाँश तकनीकि और विज्ञान के
आधीन है| आज कला साधना के क्षेत्र में वैसी साधना नहीं दिखाई देती जितनी प्राचीन
काल में थी| तकनीकि की सहायता से स्वर को
कटु से मधुर बनाया जा सकता है| नौसिखिया गायक भी नए वाद्यों की सहायता से कुशल
प्रस्तुति देने लगे हैं| तकनीकि के प्रभाव से ही फिल्मों में नृत्य न कर सकने वाले
कलाकार भी नाचते हुए दिखाई देने लगते हैं|लेकिन संगीत की साधना करने वाले ध्रुवपद
गायकी वाले,कथक और कथकली नृत्य वाले, रंगमंच वाले कलाकार आज भी अपनी साधना में
तल्लीन हैं| जहां एक ओर शास्त्रीय कलाओं और रंगमंच का पराभव हुआ है वहीं दूसरी ओर
नुक्कड़ नाटक करना या फिल्म बनाना आसान हो गया है|
संपर्क: सी-45/वाई-4
,दिलशाद गार्डन,दिल्ली-110095
b.mishra59@gmail.com
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मंगलवार, 6 मार्च 2018
सहभागिता ही दाम्पत्य का मूल सिद्धांत है
# डॉ.भारतेंदु मिश्र
चर्चित कथाकार अशोक गुजराती का नाम हिन्दी कहानियों के लिए जाना जाता है |अभी हाल में ही ‘बीर-बहूटी’ शीर्षक उनका नाटक बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है|यह नाटक समकालीन स्त्री पुरुष के मनोवैज्ञानिक द्वंद्व को लेकर लिखा गया है|दाम्पत्य जीवन के द्रश्य बहुत मार्मिक ढंग से लेखक ने प्रस्तुत किये हैं|प्रमुख पात्र चंद्रहास और उसकी पत्नी अरुन्धती है,जबकि सहायक पात्र अक्षत और वसुंधरा के अलावा किशन -रूपा ,रोचक- रिदम और डाक्टर हैं|
पूरा नाटक तीन अंकों में विभक्त है|कथाकार लेखक शहरी मध्यमवर्गीय पात्रों को लेकर अपने कहन और परिस्थितियों के सृजन को लेकर आगे बढ़ता है|जीवन की मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को जिस तरह से शराब पीकर पात्रों द्वारा हल करने की कोशिश की जाती है वह शहरी मध्यवर्ग के परिवारों में आम बात है|लेकिन नाटक की स्त्रियाँ इसे बुरा नहीं मानतीं बल्कि पुरुष पात्रों का सहयोग करती हैं|अरुंधती का किरदार एक प्रगतिशील महिला के प्रतीक के रूप में लेखक ने अच्छे ढंग से उपस्थित किया है|वह स्वयं भी नौकरी करती है और वसुंधरा को भी नौकरी करने की प्रेरणा देती है|अक्षत और वसुंधरा के दाम्पत्य को सुव्यवस्थित करने की सलाह भी वही देती है| नाटकीयता चंद्रहास के और अरुंधती के दाम्पत्य संबंधों से आगे बढ़कर नर नारी संबंधों की पड़ताल करते हुए कथानक को आगे ले चलती है|चंद्रहास पुरुष स्वाभिमान या अहंकार का प्रतीक है|नाटक में जीवन की परिस्थितियाँ उसे नौकरी चली जाने से उत्पन्न खंडित अहं वाले, अवसाद ग्रस्त बेरोजगार व्यक्ति के रूप उपस्थित करती हैं| ऐसा करके अरुंधती के पात्र को लेखक ने स्पेस दिया है ताकि स्त्री के कामकाजी पक्ष को विधिवत सामने लाया जा सके|
नाटक जिस समस्या को लेकर आगे बढ़ता है वह स्त्री पुरुष संबंधों की आपसी समझदारी और विश्वास में इजाफा करना है| अरुंधती का कथन है-‘नहीं,तुम स्त्री को अभी तक समझा नहीं पाए|अपवाद हो सकते हैं परन्तु कोइ समझदार औरत बिना किसी विशेष परिस्थिति के कभी भी अपने चरित्र से समझौता नहीं करेगी|और यदि आदमी जैसी वह किसी कारण ऐसा दुस्साहस कर जाती है तो तुम्हारे पुरुष प्रधान समाज को ऐतराज क्यों है?’(पृ-13,बीर-बहूटी )
असल में लेखक का मानना है कि पुरुष को पराई स्त्री से संबंध बनाने पर मर्दवादियों पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता लेकिन जब कोई स्त्री पराये पुरुष से ऐसा करने की बात सोचती है या करती है तो वह वेश्या के समकक्ष धिक्कारी जाने लगती है|लेकिन अब समाज बदल चुका है हमारे घर परिवार की शक्ल भी बदल गयी है|पुरुष को नौकरी करनी चाहिए और बाहर के काम जबकि स्त्री को घर में रहकर बच्चों को संभालना चाहिए यह मर्दवादी सामाजिक शहरों से ख़त्म हो रही है लेकिन इस सोच को पूरी तरह से नष्ट होने में समय लगेगा|अभी तक वह सहिष्णुता का वातावरण बन नहीं पाया है|नाटक में ‘बीर-बहूटी’ का सार्थक नैसर्गिक जीवन दर्शन लेखक देने का प्रयत्न करता है|असल में स्त्री और पुरुष प्रकृति के दो खिलौने हैं,जिनमें कोई बड़ा या छोटा नहीं होता|परन्तु अभी बहुत कुछ हमारे जीवन में जस का तस है| खासकर मध्यवर्ग के दाम्पत्य जीवन में वैसी सहभागिता और सदाशयता नहीं आ पायी जैसी प्राकृतिक स्वाभाविक स्वतंत्रता की कल्पना की जाती है|वास्ताव में समानता पर आधारित सहभागिता ही दाम्पत्य जीवन का मूल है| टूटे हुए अंहकार को मिली संजीवनी की तरह चंदर को नाटक के अंत में जब दूसरी नौकरी मिल जाती है तब वह उस सुख को समझने के लायक नहीं रहता|यह भी पता नहीं चल पाता कि नायक चंदर के चहरे पर आयी प्रसन्नता अक्षत द्वारा अरुंधती को दीदी कहने से उत्पन्न हुई है या कि बहुत दिनों बाद फिर से अच्छी नौकरी मिल जाने से| पात्र चयन कथावस्तु के अनुरूप ही है|संवाद कहीं कहीं यदि और मांज दिए जाते तो नाटकीयता का प्रभाव और बढ़ जाता,तथापि मंचन करने वाले अभिनेता अपने हिसाब से संवादों को छोटा या बड़ा कर लेते हैं|अच्छे मुद्दे को लेकर समसामयिक सामाजिक विषय के नाटक हेतु लेखक अशोक गुजराती को बधाई |
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बीर-बहूटी-(नाटक)/लेखक-अशोक गुजराती/प्रकाशक-बोधि प्रकाशन/वर्ष-2018/मूल्य-60/रु.
बुधवार, 8 नवंबर 2017
लेखक-भारतेंदु मिश्र
(परवेज उर्फ़ पोनू एक
नेत्रहीन बालक है| उसकी विधवा मा उस बच्चे के स्कूल में दाखिले के लिए बहुत परेशान
है,स्थान दिल्ली
की एक सामान्य किन्तु मलिन बस्ती –शास्त्री पार्क| घर का सीन )
जरीन: क्या बताऊ
?...सब तरफ से हार गयी हूँ ..कोई मेरे बेटे
का दाखिला नहीं करता|(घर में बर्तन साफ़ करते हुए बार बार आंसू
निकल आते हैं |)
नजमा: (अखबार का
पन्ना लेकर )..अम्मी...ओ अम्मी!...अखबार देखा
आपने..?
जरीन: अरे
..रहने दे ,कंही भूकंप आया होगा,कोई हादसा होगा... किसी की मौत की खबर होगी ?..अच्छी
खबर तो कुछ होती
नहीं ..
नजमा: नहीं..अम्मी
!सरकार ने विज्ञापन निकाला है |अब ब्लाइंड
बच्चे भी अपने घर के करीब के स्कूल में पढ़ाई कर सकेंगे..
जरीन: (झाडू फेक कर
नजमा को गले लगाते हुए )..हाय...नजमा ! तू सच कह रही है ?...हाय ,अल्ला!..
नजमा: हाँ !..अम्मी
मैं सच कह रही हूँ |ये अखबार में लिखा है..
जरीन: काश!...मेरे
परवेज का दाखिला हो जाए..
नजमा: चलिए
..अमजद के स्कूल चलते हैं |दोनों भाई एक
साथ जाया करेंगे...
जरीन: चल
बेटा!..पोनू ! स्कूल चलते हैं|
(स्कूल पहुंचकर
,दाखिला इंचार्ज के पास..)
जरीन: नमस्ते ,साहब!
इंचार्ज: जी नमस्ते,
जरीन: साब,मेरे
लडके का दाखिला करना है| रजिस्ट्रेशन कर
लीजिए..
(बिना सर
उठाये..लिखते हुए )
इंचार्ज:
जी,बच्चे का नाम ?
जरीन: जी परवेज,..
इंचार्ज: उम्र ?
जरीन: 12 साल|
इंचार्ज:(सर
उठाकर..) कहाँ है बच्चा ?
जरीन: जी! साब,ये
रहा ...
इंचार्ज: बहन जी ये
तो ब्लाइंड हैं ?
नजमा: तो क्या
हुआ?..अखबार में आया है सभी तरह के बच्चे घर के पास के स्कूल में पढ़ सकते हैं |
इंचार्ज: ठीक है ,मै ..तो कह नहीं सकता, आइए ..आप हमारे
प्रिसिपल साहब से मिल लीजिए..
नजमा : जी ठीक है..
(दाखिला इंचार्ज के
साथ तीनो प्रिंसिपल के कमरे की ओर जाते हैं|)
इंचार्ज:
(चपरासी से ) रामलाल!..साहब हैं?
रामलाल : बैठे हैं
,जाइए..
इंचार्ज: (भीतर जा
कर ) सर! ये बहन जी इस ब्लाइंड बच्चे के दाखिले के लिए आयी हैं ...
प्रिंसिपल: जी बताए
...
जरीन: साहब ! हमारा
एक बच्चा यही पढ़ता है..मेरे इस बच्चे का भी दाखिला कर लीजिए..दोनों भाई साथ आ जाया
करेंगे ..
नजमा: सर! ..ये
देखिए ..आज के अखबार में भी विज्ञापन निकला है..
प्रिसिपल: देखिए ये नामुमकिन
है..आपका वो बच्चा नार्मल है| ये ब्लाइंड है|..इसे ब्लाइंड स्कूल में ले जाइए..
नजमा: लेकिन सर! ये
अखबार..
प्रिंसिपल:
जाइए..हमारा समय बर्बाद मत कीजिए..
नजमा: लेकिन सर! ये
विज्ञापन ...
प्रिंसिपल: तो जाइए
...अखबार वालो के पास जाइए ..हमारा समय बर्बाद मत कीजिए..रामलाल!..इन्हें बाहर
करो..
जरीन: साहबा मेहेरबानी कीजिए..
रामलाल: आपको समझ
नहीं आता...साहब बहुत बिजी हैं
..चलिए बाहर चलिए..|
(घर वापस आकर,दूसरे दिन )
नजमा; अम्मी!..आपने
हमारे कपडे प्रेस नहीं किए..आप हमारा कोई काम नहीं करती हैं ...
जरीन: हाँ नहीं
किए..तू अपना काम खुद कर लिया कर..अब बड़ी हो गयी है...आज छुट्टी के दिन तुझे कहा
जाना है ?
नजमा: मुझे मूवी
देखने जाना है...
जरीन: अभी पिछले
महीने तो गयी थी..
नजमा: तो क्या हुआ
अब बजरंगी भाईजान नई मूवी देखने जा रही हूँ |
अजहर : मै भी चलूँगा,आपा!..
नजमा: मै अपनी सहेली
के साथ जा रही हूँ ..तू कहाँ कबाब में हड्डी बनेगा ?
पोनू : आपा! आपा!
..मुझे भी ले चलो..
नजमा : लो कर लो
बात..हाय,अल्ला, आँखों से दिखाई नहीं देता ...मूवी देखेंगा..
जरीन: जाना है तो
तीनो साथ जायेंगे..
नजमा: पोनू को तो
नहीं ले जाऊगी ..मै इसको पकड़ के घूमूंगी कि मूवी देखूंगी..न..अम्मी ... इसे नहीं ले जाऊंगी|
अजहर: ले चलते हैं ..हम दोनों मिलके संभाल लेंगे..
नजमा: तू अकेले
संभाल सके तो ले चल, मै तो नहीं ले जाऊंगी..
(जरीन के बार बार
कहने पर भी नजमा और अजहर पोनू को रोता हुआ छोड़कर चले जाते हैं |)
पोनू : मेरे
साथ ऐसा ..हर दफा होता है..अम्मी!..(.रोते
हुए जमीन पर लोट जाता है..जरीन उसे संभालती है |)
जरीन: मै तुझे लेकर
चलूंगी..चल, तेरा मन पसंद हलवा खिलाती हूँ |
पोनू : कुछ नहीं
खाना..मुझसे बात मत करो| (फिर रोने लगता है|)
जरीन: (प्लेट में
हलवा देती है )..ले हलवा खा ले..
(पोनू उसे फेक देता
है|जरीन किसी तरह उसे बहलाने की कोशिश करती है| कपडे सिलने के लिए सिलाई की मशीन
चलाने लगती है| इसीबीच मोहल्ला सुधार समिति वाले शुक्ला जी आते हैं | )
शुक्ला: जरीन आपा!
..ओ जरीन आपा!
जरीन: जी ,शुक्ला जी
आइए..बैठिए |
शुक्ला : जी ठीक है
,बैठने का वख्त नहीं है ..आप अपने लडके का नाम और उम्र लिखवा दीजिए..मै
एम्.एल.ए.साहब की मीटिंग में जा रहा हूँ |वहाँ उसके दाखिले की बात करूंगा..
जरीन: जी शुक्ला जी!
अगर ऐसा हो जाए तो बड़ी मेहेरबानी होगी |..लिख लीजिए-नाम है - परवेज,उम्र 12 साल|
शुक्ला: कोई
विकलांगता का प्रमाणपत्र है ?
जरीन: और तो कुछ भी
नहीं है मेरे पास..
शुक्ला: उसको और
क्या परेशानी है ?
जरीन: परेशानी तो
कुछ भी नहीं है शुक्ला साहब!..अब क्या बताऊ, एक देखने के अलावा मेरा परवेज हर काम
में मेरे तीनो बच्चो में सबसे ज्यादा हुशियार है|
शुक्ला: आप
चिंता न
करे..इसका दाखिला कराऊंगा..
जरीन: जी शुक्रिया
शुक्ला जी |
(नजमा और अजहर फिल्म
देखकर आते हैं )
नजमा: यार,क्या मस्त
मूवी बनाई है..गूंगी बच्ची का रोल कितना बढ़िया है..
अजहर: हां,और वो
गाना भी बेहतरीन है..सेल्फी..वाला|
(परवेज गाना गाता
हुआ आता है|)
परवेज: चल बेटा
सेल्फी ले ले रे..
नजमा: तुझे कैसे
मालूम?
परवेज: मुझे सल्लू
भाई की सारी फिल्मो के गाने और स्टोरी याद
हैं |
नजमा: एक बात तो है
अम्मी! हमारा पोनू है बहुत इंटेलीजेंट |
जरीन: बात तो तू ठीक
कह रही है|..बस इसका स्कूल में दाखिला हो जाए..|अभी शुक्ला जी आये थे,इसका दाखिला
कराने की बात कह रहे थे|
नजमा: हो जाएगा
अम्मी! ..अब तो सरकार ने विज्ञापन भी
निकाल दिया है..
जरीन: अरे, तुझे क्या मालूम, लाचार बेवा की कौन सुनता
है..देखा था..प्रिंसिपल ने कैसे बात की थी|
(शुक्ला जी का
प्रवेश..)
शुक्ला जी: जरीन
आपा,..क्या कर रही हैं...
जरीन: ..करना
क्या..बस घर के काम कर रही हूँ ..
शुक्लाजी:- छोडिये
ये सब चलिए परवेज का दाखिला कराने चलते हैं..
जरीन:- जी चलिए
शुक्ला जी मैं तो आपका इंतज़ार कर रही थी|
(जरीन,परवेज के साथ
शुक्लाजी स्थानीय स्कूल पहुंचते है| एडमीशन इंचार्ज से मिलते है| )
शुक्लाजी:- मास्टर
साहब ,ज़रा इस बच्चे का दाखिला कराना है ..
एडमीशन इंचार्ज: -
(सर झुकाए हुए कुछ काम करते हुए )जरूर कराइए ,हम इसी के लिए बैठे हैं जनाब|(सर
उठाकर देखते हुए)...लेकिन भाई साहब ,ये तो ब्लाइंड बच्चा है...
शुक्ला जी :- फिर क्या
हुआ..?
एडमीशन इंचार्ज:-
इसका तो दाखिला नहीं हो सकता...
शुक्ला जी;-- क्या
बात करते हो..कौन है तुम्हारा प्रिंसिपल ज़रा उससे मिलवाओ..एम्.एल.ए. से लिखवाके
लाया हूँ|
एडमीशन इंचार्ज:- जी
जनाब ,प्रिंसिपल साहब उधर सामने वाले कमरे में बैठे हैं..
शुक्ला जी:- चलो जरीन
आपा..(तीनो प्रिंसिपल के आफिस की और जाते हैं | साहब का दरबान बताता है| )
रामलाल:- साहब अभी
बिजी है|
शुक्ला जी;- उनको
बता दो नेता जी आये है ,ये मेरा कार्ड है..
रामलाल :- रुकिए
,देखता हूँ ..
(नेता का कार्ड
देखकर प्रिंसिपल बुला लेता है|)
शुक्ला जी:- साहब,मैं
इस परवेज के दाखिले के लिए आया हूँ |
प्रिंसिपल :- शुक्ला
जी,ये बहन जी पहले भी आ चुकी है |इन्हें समझा चुका हूँ |अब ये आपको ले आयीं|..ये
बच्चा पढेगा कैसे? लिखेगा कैसे?...इसे ब्लाइंड स्कूल में दाखिल कराओ|
शुक्लाजी;- ब्लाइंड
स्कूल तो यहाँ कही है नहीं...ये तो इसी स्कूल में पढेगा..फिलहाल मैं विधायक जी से
लिखवा के आया हूँ..जरूरत पडी तो ऊपर भी जाऊंगा|
प्रिंसिपल:- आप तो
नाराज होने लगे..बैठिये..आप भी बैठिये बहन
जी| रामलाल!..ज़रा एडमीशन इंचार्ज को बुलाओ..
रामलाल :- जी साब!
एडमीशन इंचार्ज:-
सर,ये बहन जी दो बार पहले भी आ चुकी है |इन्हें समझा चुके हैं|
प्रिसिपल:- कोई बात नहीं समावेशी शिक्षा के
अंतर्गत अभी इनका दाखिला कर लेते हैं| फिर देखते हैं |
एडमीशन इंचार्ज:-
ठीक है सर|..किसकी क्लास में भेजूं ..
प्रिंसिपल:- शर्मा
जी की क्लास में भेजो|..जाइए आप भी शर्मा जी से मिल लीजिए|..रामलाल,जाओ इन्हें 6
बी के क्लास टीचर पी.के.शर्मा जी से
मिलवाओ|
रामलाल:-
आइये..(कमरे से बाहर निकल कर ) क्या नेता जी ..हमारे स्कूल में इस अंधे बच्चे का
दाखिला करा रहे हो?...
शुक्लाजी:- (रामलाल
का कंधा पकड़कर हिलाते हुए)..तू कौन है ?तुझे क्या तकलीफ है?..दुबारा इस बच्चे को
अंधा कहा तो …नौकरी साफ़ हो जायेगी|
रामलाल:- (हाथ जोड़कर
)गलती हो गयी साहब!... लीजिए ये शर्मा जी बैठे हैं ..आप बात कर लीजिए|
शुक्ला जी:- शर्मा
जी! इस बच्चे का दाखिला आपकी क्लास में हुआ है|
शर्मा जी:- ज़रा
पेपर्स दिखाइए..ओ ..नो..आप ज़रा बैठिये ,मैं प्रिंसिपल से मिलकर आता हूँ|
(प्रिसिपल के कमरे
में )
शर्माजी:- ये क्या
किया सर?..मैं ही मिला था दुश्मनी निभाने को..मेरी क्लास में ...ब्लाइंड बच्चा
कैसे पढेगा..कैसे लिखेगा..मेरे बस का नहीं है सर!...कोई स्पेशल टीचर भी नहीं है
स्कूल में ..
प्रिंसिपल:- शर्मा
जी! आप तो घबरा गए..इसके लिए ब्रेल बुक्स आयेंगी|इसे राइटर देना होगा|स्पेशल
एजूकेशन टीचर भी चाहिए| सब फ़ाइल बनाकर ऊपर भेजते है|..आप तो जानते है..सरकार
इन्क्लूसिव एजूकेशन पर कितना जोरे दे रही है|..हम दाखिले को मना नहीं कर
सकते..नौकरी खतरे में पड़ जाएगी..|
शर्मा जी;- मुझसे
क्या दुश्मनी है सर ? आपने ..तो कह दिया..
मेरा तो सिर भन्ना
रहा है|
प्रिंसिपल:- परेशान
ना हो ..इसका भाई अजहर भी 8वीं पढ़ता है| उसके साथ और बच्चो को लेकर इसका एक पीयर
ग्रुप बन जाएगा|
(स्टाफ रूम का
सीन,अध्यापक बात कर रहे है -)
एक- सुना है इस
स्कूल में अब ब्लाइंड बच्चे भी पढेंगे..
दो- अरे पी.के.शर्मा
जी की क्लास में दाखिला भी हो गया..
तीन- अब स्कूल का
सत्यानाश हो गया|
चार;- सही बात
है..वो बच्चा कही गिर गिरा पडा तो मुसीबत हो जायेगी|
शर्माजी;-मेरी जान
संकट में है, मैं तो ट्रांसफर की सोच रहा हूँ..
एक:- ये कोई समाधान
थोड़ी हुआ ..आप जाओगे तो दूसरे टीचर के गले में हड्डी लटक जायेगी..|आप चिंता मत
कीजिए ..हम सब साथ है|..प्रिंसिपल से बात करेंगे|
(छ महीने बाद,अचानक
स्कूल के प्रिसिपल के पास फोन आता है )
प्रिंसिपल- हेलो ..
जी परवेज हमारे स्कूल में ही पढ़ता है..क्या हुआ ?....जी ..अरे वाह!..ये तो बहुत
खुशी की बात है|..जी धन्यवाद|
(घंटी बजाकर ..)
प्रिंसिपल:
रामलाल,ज़रा परवेज के क्लासटीचर शर्मा जी को बुलाओ...
रामलाल: क्या हुआ
साब!...
प्रिंसिपल:परवेज ने
कमाल कर दिया|....बुलाओ शर्मा जी को ..
रामलाल:-साब! बुलाये
हैं
शर्मा जी: अब ..क्या
है ?
रामलाल: परवेज के
चक्कर में ..कोई फोन आया है ..
(प्रिंसिपल के कमरे
में )
प्रिंसिपल: अरे
शर्मा जी! कमाल हो गया...भई ,आपका परवेज स्टेट का बेस्ट टैलेंटेड स्टूडेंट चुना
गया है ...मुबारक हो आपको ,उसने तो स्कूल का भी नाम रोशन कर दिया|3 दिसम्बर को
शिक्षा सचिव के हांथो उसको पुरस्कार दिया जाएगा|
शर्मा जी: कमाल है
साब! ..वो है तो बहुत टेलेंटेड ..बस देखने की समस्या है वरना..
प्रिंसिपल: बुलाओ
ज़रा उसकी अम्मी को बुलाओ..फोन कीजिए|
शर्माजी: जी सर!(फोन
लगा कर)..हेलो बहन जी ! आप परवेज की अम्मी बोल रही हैं...अगर आप स्कूल आ सकती है
तो..परवेज के बारे में बात करनी है|
शर्मा जी:
(प्रिंसिपल से ) सर वो आ रही है...
(जरीन प्रिंसिपल के
कमरे में प्रवेश करती है|सभी उसका स्वागत करते हैं|)
जरीन:- साहब!
नमस्ते|
प्रिंसिपल- नमस्ते
बहन जी!..आपका परवेज तो बहुत होशियार है..उसने तो हमारे स्कूल का नाम रोशन कर
दिया|उसे गायन में में स्टेट में बेहतरीन
स्टूडेंट का अवार्ड मिल रहा है|
जरीन:- जी जनाब!
..ये तो बहुत खुशी की बात है| साहब! मैं तो पहले भी आपसे कहती थी कि..बस इसे एक
मौक़ा दीजिए..
प्रिंसिपल: जी आप
सही कह रही थीं |..अब हमने उसके लिए पढाई का सब इन्तिजाम भी कर लिया है| ब्रेलबुक
सरकार से मिल रही है |एक स्पेशल टीचर भी स्कूल में आ गया है|इसे अलग से स्कालरशिप
तो मिल ही रही है|आप भी समारोह में चलिए..
जरीन: बड़ी मेहेरबानी
है आपकी |
प्रिसिपल: बहन जी ! इसमें
मेहरबानी कैसी?..ये तो हमारा काम है|
############################################################प्रस्तुति: भारतेंदु मिश्र
रविवार, 13 अगस्त 2017
पुस्तक समीक्षा
नाटकों से पाठ्यचर्या को बेहतर बनाया जा सकता है
डॉ॰ भारतेंदु मिश्र
बच्चों को सिखाने के लिए नाटक एक सशक्त माध्यम है। आधुनिक
समय में अधिकांश विद्यालयों में रचनात्मक शिक्षक इस विधा को अपनी पाठ्यचर्या का
हिस्सा बनाने लगे हैं। प्रसंगवश अभी कथाकार बलराम अग्रवाल के 15 ऐसे ही
छात्रोपयोगी नाटकों की पुस्तक ‘आधुनिक बाल नाटक’ शीर्षक से प्रकाश में आई है। लघुकथा
के क्षेत्र में बलराम अग्रवाल एक बड़ा नाम है। इसके साथ ही बाल साहित्य के क्षेत्र
में उनका काम लगातार पढ़ा सराहा जाता रहा है। इस संग्रह में संकलित कई नाटक अनेक
प्रदेशों की पाठशालाओं के पाठ्यक्रमों में भी शामिल किये जा चुके हैं। जैसाकि ‘अपनी
बात’ में लेखक ने स्पष्ट किया है—इस पुस्तक में संकलित नाटक ‘जरूरी खुराक’ को केरल
शिक्षा विभाग द्वारा कक्षा 7 में, ‘पेड़ बोलता है’ को हिमाचल शिक्षा विभाग द्वारा कक्षा 4
में और ‘सूरज का इंतज़ार’ मुम्बई की शिक्षण संस्थाओं द्वारा कक्षा 6 में पढ़ाया जा
रहा है। पढ़ाया जा रहा है।
बलराम अग्रवाल अनेक वर्ष रंगमंच पर सक्रिय रहे हैं।
अत; माना जा सकता है कि उन्हें नाटक की मूलभूत आवश्यकताओं की समझ है। उन्होंने इन
नाटकों को बालमनोविज्ञान की अपनी समझ के आधार पर रचा है। इनमें वर्णित प्रसंगों और
दृश्यबंधों को लेखक ने जीवन के दैनन्दिन आयामों से चुना है। ये नाटक यथार्थ जीवन
की महत्वपूर्ण जानकारी देने वाले भी हैं और खेल-खेल में बच्चों को जीवन की सीख भी
दे जाते हैं। बच्चों के लिए इन नाटकों का बड़ा महत्व है। इस पुस्तक में कुल 15 बाल नाटक
संग्रहीत हैं जिन्हें एकांकी और नुक्कड़ के शिल्प में लिखा गया है। इसके साथ ही
इन्हें तीन खंडों में विभाजित भी किया गया है। पहले खंड में जीवन के प्रेरक
प्रसंगों पर आधारित पाँच नाटक हैं जिनमे क्रमश: ‘अपना सुल्लू’, ‘जरूरी खुराक’, ‘चमत्कारी छडी’, ‘होई हो हे हे’, ‘लुटेरे राम नाम के’ शामिल हैं। दूसरे
खंड में चार नाटक महात्मा गांधी जी के जीवन के प्रसंगों पर आधारित हैं, जिनके
शीर्षक हैं—‘मोहनदास का साहस’, ‘पश्चात्ताप के आँसू’, ‘सूरज का इंतजार’ और ‘मालिक मजदूर
और नेता’। इसी खंड में एक नाटक नेताजी सुभाषचंद्र बोस के जीवन की घटना पर भी
केन्द्रित है जिसका शीर्षक है—‘आजादी के दीवाने’। तीसरे खंड में पर्यावरण संरक्षण तथा
वृक्षों की उपयोगिता पर केन्द्रित पाँच नाटक हैं, जिनका शीर्षक है—‘पेड़ बोलता है’, ‘पीपल बोलता है’, ‘नीम बोलता है’, ‘बेल बोलता है’ तथा ‘पेड़ बचेगा
तभी बचेंगे’।
इन नाटकों की विशेषता यह है कि ये सहजता से बच्चों को
उनकी अपनी सरल भाषा में समझ में आने वाले हैं। अध्यापकों द्वारा बिना किसी बड़े
इंतजाम के इन्हें विद्यालय स्तर पर खेलाया जा सकता है। जीवन और शिक्षा को जोड़ने के
लिए नाटक बेहतरीन प्रयोग तो होता ही है। आधुनिक शिक्षा मनोवैज्ञानिकों का मानना है
कि नाटकों के माध्यम से पाठ्यचर्या को बेहतर बनाया जा सकता है। आशा है पुस्तक में
संग्रहीत इन नाटकों से भाई बलराम अग्रवाल को यश मिलेगा और शिक्षा जगत में इस पुस्तक
समुचित आदर होगा। लेखक को बधाई।
पुस्तक : आधुनिक बाल नाटक लेखक : बलराम अग्रवाल प्रकाशक
: राही प्रकाशन, ए-45, गली नं 5, करतार नगर, दिल्ली-110053 प्रथम संस्करण :
2017 मूल्य : 200 रुपये
समीक्षक संपर्क : डॉ॰ भारतेंदु मिश्र, सी-45/वाई-4 ,दिलशाद गार्डन,दिल्ली-110095
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