मंगलवार, 8 दिसंबर 2009



राष्ट्रीय संगोष्ठी:
नाट्यशास्त्रीय मौलिक तत्वो की विकास परम्परा (संगोष्ठी-रपट)

डाँ.हरि सिंह गौर वि.वि.सागर के संस्कृत विभाग द्वारा उक्त विषय पर दि.3-12-09से दि.5-12-09 तक एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया।
(दि.3-12-09)
उद्घाटन सत्र:
दीप प्रज्वलन के बाद भाई संजय द्विवेदी(शोध छात्र) द्वारा प्रस्तुत सुमधुर सरस्वती वन्दना से संगोष्ठी का शुभारम्भ हुआ। सागर वि.वि. संस्कृत विभाग की अध्यक्षा प्रो.कुसुम भूरिया ने विषय की सूक्ष्म प्रस्तावना रखते हुए अभ्यागतो का स्वागत किया। प्रो.के.एन.जोशी अध्यक्ष संस्कृत विभाग विक्रम वि.वि. उज्जैन ने इस अवसर पर नाट्यशास्त्र का परिचय दिया।
राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली के उपकुलपति ,संगोष्ठी के मुख्य अतिथि प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी ने इस अवसर पर बीज भाषण प्रस्तुत किया।विशेष बात यह रही कि प्रो. त्रिपाठी ने अपना वक्तव्य ओवरहेड प्रोजेक्टर तथा लेपटाप की सहायता से प्र्स्तुत किया। प्रो.त्रिपाठी सम्भवत:संस्कृत के पहले विद्वान है जो संस्कृत के क्षेत्र मे अधुनातन विज्ञान और तकनीकि का समुचित उपयोग करते हुए चलते है।इस अवसर पर प्रो.त्रिपाठी ने कहा-“नाट्यशास्त्र ऎसी विलक्षण पुस्तक है जो दुनिया मे अन्यत्र कही नही है।जैसे पाणिनि के समान विलक्षण दूसरा वैयाकरण दुनिया मे नही है।नाट्यशास्त्र और अष्टाध्यायी दोनो प्रयोग के शास्त्र है ,यहाँ हाँल मे बैठकर विवेचना की वस्तु नही है।जो चिंतन को प्रयोग से जोडता है वही मुनि है।अभिनवगुप्त के अनुसार भरत इसी आधार पर मुनि है।...नाट्यशास्त्र की परम्परा भरत से पहले भी हमारे देश मे रही होगी।भरत के अनुसार सात्विक अभिनय एक प्रकारसे परकाया प्रवेश विद्या की सिद्धि है-यथा देहांतरं गच्छन ..इत्यादि। कहा गया है –पश्य देवस्यकाव्यम न ममार न जीर्यते। नाट्यशास्त्र मे लोक है,वेद है और आध्यात्म है। नाट्यशास्त्र मे दर्शक चाक्षुष यज्ञ का प्रतिभागी है,बढई-माली-लुहार आदि सभी प्रतिभागी के रूप मे नाट्य प्रयोग का हिस्सा है।”
सत्र के अध्यक्ष सागर वि.वि के उपकुलपति प्रो.आर.एस.कसाना ने इस अवसर पर इस अध्यक्षीय भाषण मे प्रो.त्रिपाठी के साथ बिताये अपने अंतरंग क्षणो को याद किया तथा अभ्यागतो का इस संगोष्ठी मे स्वागत किया। अन्त मे प्रो.अच्युतानंद दाश के असमय निधन पर शोक व्यक्त करते हुए उद्घाटन सत्र का समापन हुआ।
प्रथम सत्र
इस सत्र मे संगीत गुन्देचा –भोपाल,इला घोष –कटनी,रमाकांत पाण्डेय-जयपुर,सुमनलता श्रीवास्तव-जबलपुर,पूर्ण चन्द्र उपाध्याय-भवानी मंडी आदि ने अपने आलेख प्रस्तुत किये। सत्र की अध्यक्षता डाँ. भारत रत्न भार्गव-दिल्ली ने की। डाँ.भार्गव ने अपने अध्यक्षीय मे सभी आलेखो की समीक्षा प्रस्तुत की। संगीता गुन्देचा का मत्तवारणी,सुमनलता श्रीवास्तव का संगीत ,इलाघोष का अर्थप्रकृति,और रमाकांत पाण्डेय का राधावल्लभ त्रिपाठी की रसदृष्टि विषयक आलेख इस सत्र के विशेष आकर्षण रहे। सत्र का संचालन डाँ.महेश द्विवेदी (सागर)ने किया।
दि.4-12-09
द्वितीय सत्र
इस सत्र मे डाँ.मनसुख के. मौलिया-राजकोट,प्रो.कुसुम भूरिया-सागर,प्रो.ओ.पी.राजपाली-अम्बा,डाँ.पुष्पा झा-जबलपुर,डाँ.एम.एस.चम्पक लाल-बडौदा,गणेशानन्द श्रीवस्तव –जालौन आदि ने अपने आलेख प्रस्तुत किये।इस सत्र मे प्रो.कुसुम भूरिया का-नाट्यशास्त्र मे प्रजातंत्र,मनसुख मौलिया का -नाट्यशास्त्र मे छन्द विवेचन,ओ.पी.राजपाली का- संस्कृत नाटको मे प्रस्तावना,पुष्पा झा का-रासक उपरूपक की लोक धर्मी परम्परा,और चम्पक लाला का-आकाशवचन और जनांतिक विषयक आलेख बहुत चर्चित हुए।सत्र की अध्यक्षता प्रो.प्रभुनाथ द्विवेदी (वाराणसी)ने की और संचालन डाँ.पूर्णचन्द्र उपाध्याय-(भवानी मंडी) ने किया।
तृतीय सत्र
इस सत्र मे डाँ. प्रीति श्रीवास्तव –गुना,डाँ.भारतेन्दु मिश्र-दिल्ली,डाँ.भारत रत्न भार्गव-दिल्ली,डाँ.कमला प्रसाद पाण्डेय-बिलासपुर,ऋषन् भारद्वाज-सागर आदि ने अपने आलेख पढे।इस सत्र मे ,डाँ.भार्गव का-नाट्यशास्त्र की लोकवादी परम्परा,प्रीति श्रीवास्तव का-नाट्यशास्त्र मे स्वास्थ्य विधान,भारतेन्दु मिश्र का-भरत की सौन्दर्य दृष्टि, कमला प्रसाद का-नाट्यशास्त्र मे व्याकरण की विशेष रूप से सराहना की गयी। सत्र की अध्यक्षता प्रो.भागचन्द्र जैन भागेन्दु(-दमोह) ने और संचालन डाँ.शीतंशु त्रिपाठी-(सागर) ने किया।

विक्रमोर्वशीयम की मनोहारी प्रस्तुति (सायं:7 बजे)
प्रसिद्ध रंगनिर्देशक प्रो.कमल वशिष्ठ(ग्वालियर),सह निर्देशक-ब्रजेश रिछरिया के निर्देशन मे कालिदास कृत विक्रमोर्वशीयम नाटक का मंचन सागर वि.वि.के स्वर्णजयंती सभागार मे हुआ।नाटक की अवधि एक घण्टा पचास मिनट रही ।विदूषक -ब्रजेश रिछरिया ने पहले सूत्रधार फिर विदूषक के रूप मे जो समा बाँधा तो नाटक उठता चला गया ।सुन्दर दृश्यबन्धो के साथ शीतांशु त्रिपाठी-पुरुरवा, ब्रजेश रिछरिया –विदूषक,श्वेता केशरवानी-उर्वशी,शमीनाज खान-निपुणिका,स्वाती पाठक-मेनका,धर्मेन्द्र चौबे-आयुष राजेश राय-छत्र धारक आदि का अभिनय विशेष रूप से बहुत सराहा गया।
नेपथ्य मे रवि टाँक का -तबला,आर.के.माणके का -संगीत,संजय द्विवेदी और आस्था त्रिपाठी का गायन,मनीष बोहरे की सज्जा व्यवस्था,संगीत श्रीवास्तव की प्रकाश व्यवस्था,तथा सत्यवती त्रिपाठी की भूमिका संगीत संयोजन मे विशेष उल्लेखनीय रही।
दि.5-12-09
चतुर्थ सत्र (समापन सत्र)
वाराणसी से पधारे प्रो.शिवजी उपाध्याय-अध्यक्ष साहित्य विभाग स.स.वि.वि की अध्यक्षता मे इस सत्र का समापन हुआ। इस अवसर पर डाँ.भारत रत्न भार्गव ने विस्तार से इस संगोष्ठी के महत्व तथा भारतीय रंगमंच के ऎतिहासिक क्रम पर प्रकाश डाला। डाँ.पुष्पा दीक्षित ने नाट्यशास्त्र से जोडकर पुरुषार्थ चतुष्टय की चर्चा की। अंत मे प्रो.कुसुम भूरिया ने सभी अभ्यागतो के प्रति धन्यवाद व्यक्त किया।

रविवार, 4 अक्तूबर 2009

भरत की सौन्दर्य दृष्टि


भरत की सौन्दर्य दृष्टि
डाँ.भारतेन्दु मिश्र
भरतमुनि के नाट्यशास्त्र मे भारतीय सौन्दर्यशास्त्र के मूल तत्व अपने मौलिक रूप मे विद्यमान हैं। इस दिशा मे डाँ.सुरेन्द्र एस.बारलिंगे ,प्रो.के.सी.पांडेय , डाँ.रामविलास शर्मा,डाँ.कमलेशदत्त त्रिपाठी तथा प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी जैसे विद्वानों ने बहुत गम्भीरता से काम किया है।असल मे भारतीय सौन्दर्य परम्परा वैदिक सभ्यता के आविर्भाव के साथ ही विकसित हुई। पाराशर्यशिलालिभ्यामभिक्षुनटॅसूत्रयो: [अष्टाध्यायी] के सन्दर्भ मे डाँ.वासुदेव शरण अग्रवाल कहते है-‘आर्ष वांगमय की यह सारी सामग्री इतना ही संकेत दे पाती है कि इस देश मे भरतों की एक परम्परा थी।सम्भवत: इन भरतों या भरत जनों मे से किसी एक विशिष्ट व्यक्ति या पूरे वंश का संबन्ध नटसूत्रों से रहा हो।’[पाणिनि कालीन भारतवर्ष-पृ.315]
अर्थात भरतमुनि का सौन्दर्य चिंतन भी आर्ष परम्परा जितना ही प्राचीन रहा होगा।यह अलग बात है कि भरत की सौन्दर्य दृष्टि किसी एक व्यक्ति ,वंश,जाति या किसी सामंत अथवा राजा के नाम से प्रचलित या विकसित नही हुई। भरत की सौन्दर्य चेतना अपने आप मे बहुलता मे व्याप्त भारतीय सामाजिक विकास की गति के साथ ही विकसित हुई है जो आज भी विकासमान है।भरत लोक को ही प्रमाण मानते हैं- तल्लोकप्रमाणम हि विज्ञेयं नाट्यम[ना.शा.] शताब्दियो की विकास यात्रा के पुनरीक्षण करने से ज्ञात होता है कि लोक के आलोक मे ही भारतीय सौन्दर्य चेतना का विकास हुआ है।प्राचीन लोकायत मत और शैवमत ही किसी न किसी रूप मे भारतीय सौन्दर्य दर्शन का मूल हेतु रहा है। सहृदय सामाजिक सदैव भरत के सामने आलोचक के रूप मे बैठा रहा है। लोक मे प्राश्निक भी हैं।
विभिन्न कलाओ के पारखी प्राश्निक अलग- अलग सामाजिक संरचना के साथ दीक्षित -निर्मित हुए हैं।उनके लोक अलग हैं।उनकी मान्यताएँ भी अलग हैं,उनकी कलाओ के सरोकार भी अलग हैं।परंतु वे सब के सब मिलकर एक नाटक की रचना भूमि पर बात करते हैं।यह सब संभव हुआ है भरत के लोकवादी दृष्टिकोण से,क्योंकि भरत के रंगमंच पर स्त्री-पुरुष,राजा –रंक, ब्राह्मण-शूद्र,स्वधर्मी-विधर्मी ,मूर्ख-विद्वान ,दुखी,थके हुए,शोकाकुल,गृहस्थ तथा सन्यासियों सभी का समान रूप से स्वागत है। भरत का रंगमंच है ही इतना सुन्दर कि उसकी ओर सभी खिचे चले जाते हैं—
सर्वोपदेशजनं नाट्यमेतद भविष्यति दुखार्तानामं श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम।[ना.शा.1/111] भरत का यह नाट्यशास्त्र अपने आप मे पंचम वेद कहा जाता है। भरत की समन्वय दृष्टि के कारण ही उनका यह ग्रंथ समस्त ललित कलाओ ,शिल्प कलाओ तथा लोक कलाओ की नैसर्गिक विकास यात्रा का प्रमुख दस्तावेज माना जाता है। मंच पर अपनी –अपनी भूमिकाओ मे नियुक्त नट-नटी,भरत जाति के हैं।मंच के पीछे –नीचे-दाँये-बाँये सब कहीं अपनी छोटी-बडी भूमिका निभाने वाले रंगकर्मी वास्तव मे भरत के ही वंशज हैं। अर्थात भरत के रंगमंच पर कोई वर्जना नही है,उनका रंगमंच सबके लिए है।शारदातनय ने भावप्रकाशन नामक अपने ग्रंथ मे नाट्यशास्त्र के दो संस्करणो का उल्लेख किया है,उनके अनुसार भरत कोई एक व्यक्ति विशेष नही है वरन भरत तो एक प्रकार की जाति है जो नाना प्रकार के वर्ण, वेश,विन्यास,भाषा,वय,कर्म और चेष्टा को धारण करती है।अत:इस रंगजाति के लोग ही भरत कहे जाते होंगे-
भाषावर्णोपकरणै:नानाप्रकृतिसंभवम
वेषं वय:कर्मं चेष्टा विभ्रद भरत उच्यते।[भावप्रकाश]
लोक मे व्याप्त जनमानस के समन्वय की ऎसी दृढ संकल्पना भरत या भरतों के सामने अवश्य विद्यमान रही होगी, जिसके आधार पर नाट्यशास्त्र की शताब्दियों पुरानी सौन्दर्य दृष्टि अविकल रूप से भारतीय लोक मानस मे आज भी विद्यमान है।सामाजिक समन्वय की यही चेतना परवर्ती समग्र संत साहित्य मे कबीर-नानक-नामदेव-मीरा आदि की कविताओं मे भी साफ साफ दिखाई देती है।
भरत की सौन्दर्य चेतना की दूसरी सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता उनकी रसवादी दृष्टि है।भरत कहते है- यो अर्थो हृदयसंवादी तस्य भावो रसोद्भव:। शरीरं व्याप्ते तेन शुष्कं काष्ठमिवाग्निना।।[ना.शा.] कोई वस्तु या कृति सुन्दर है अथवा उदात्त है यह उस वस्तु के आस्वाद पर निर्भर करेगा।रस आस्वाद होने के साथ-साथ आस्वाद्य भी है।कलाकार को सृजनात्मकता का आनन्द मिलता है और सहृदय या रसिक को साधारणीकरण की प्रक्रिया मे रसानुभूति का आनन्द मिलता है।वह रस की अनुभूति मनुष्य को आमूल प्रभावित करती है।रसचर्या के क्षणविशेष मे नट और सहृदय सामाजिक दोनो अपनी निजता से ऊपर उठ जाते हैं। भरत की यह रसदृष्टि ही भारतीय मनोविज्ञान की सैद्धांतिकी के रूप मे विकसित हुई। मेरी दृष्टि मे भरत का रससूत्र [विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगात रसनिष्पत्ति:] ही भारतीय मनोविज्ञान का पहला सूत्र है।रस का स्थायी भाव,स्थायी भावो के विभाव,अनुभाव और व्यभिचारी भाव आदि की परिकल्पना भरत ने जिस समय की होगी वह न केवल उस समय मौलिक रही होगी, वरन आज भी उस रसदृष्टि को चुनौती देने वाला विश्वसाहित्य मे कोई नही है।भरत की रस चेतना अपने आप मे संपूर्ण है।
शब्द-रूप-रस-स्पर्श-गन्ध के माध्यम से ही मनुष्य किसी द्रव्य की सुन्दरता का आकलन करता है। भरत के रस सिद्धांत मे इन सभी इन्द्रिय बोधों की समग्र चेतना व्याप्त है। सौन्दर्यानुभूति की तीन कोटियाँ है—1.सौन्दर्य व्यक्ति सापेक्ष होता है-अर्थात किसी व्यक्ति को कोई वस्तु किसी समय मे बहुत सुन्दर लग सकती है ,दूसरे को वही वस्तु सामान्य और तीसरे को वही वस्तु उसी समय मे असुन्दर प्रतीत हो सकती है। इसके मूल मे व्यक्ति की रुचि ,मनोदशा या मनोसंरचना ही प्रमुख कारण है।
2.सौन्दर्य काल सापेक्ष होता है-अर्थात किसी व्यक्ति को एक ही वस्तु एक समय विशेष पर बहुत सुन्दर प्रतीत होती है।कुछ समय बाद वही वस्तु सामान्य लगने लगती है और फिर एक समय आता है कि वही वस्तु असुन्दर भी प्रतीत होने लग सकती है। 3.सौन्दर्य स्थिति सापेक्ष है-अर्थात सामाजिक मानसिक परिस्थितियों के आधार पर भी सौन्दर्य की अनुभूति और अभिव्यक्ति मे परिवर्तन देखा जा सकता है। इन सब परिस्थितियों मे मन ही कारण है। क्योकि सौन्दर्य की न्यूनता अधिकता या उदासीनता को मन ही तय करता है।मन मे व्याप्त स्थायी भाव आदि ही तो रसानुभूति के प्रमुख कारक है। कालांतर मे भरत की यही रस चेतना समस्त भारतीय कलाओं को प्रभावित करती हुई आगे बढती है।काव्यशास्त्र के प्राय: सभी प्राचीन आचर्यों ने रस को काव्यकला का परमप्रयोजन माना है।काव्य कला के विभिन्न सिद्धांत क्रमश:—भामह-अलंकार,वामन-रीति,आनन्दवर्धन-ध्वनि,कुंतक-वक्रोक्ति तथा क्षेमेन्द्र का औचित्य सिद्धांत कही न कही भरत की रसवादी सौन्दर्य चेतना से गहरे तक
प्रभावित है।भरत का रस सिद्धांत है ही बहु आयामी खासकर नाटक के सन्दर्भ मे ही भरत रस की तीन अवस्थाओं का संकेत करते हैं—‘एवं रसाश्च भावाश्च त्रयवस्था नाटके स्मृता:’[ना.शा.7/130] भरत के अनुसार रस प्रेक्षक और नट के बीच स्वयमेव रूपांतरित होता है।वह कभी-कभी प्रतीकों के माध्यम से स्वयमेव स्पन्दित होता है।विभाव-अनुभाव-व्यभिचारी के संयोग से प्रकट हुए स्थायीभाव का रस रूप मे स्वयमेव रूपांतरण हो जाता है। इस रूपांतरण की स्वाभाविक प्रक्रिया मे रस की अभिव्यक्ति भी होती है और अनुभूति भी। वस्तुत: भरत का रस सूत्र ही भारतीय सौन्दर्य दर्शन का केन्द्रबिन्दु है। भरत के अनुसार मंचीय रस आठ है,स्थायी भी आठ है परंतु भावोद्रेक दो ही मनोदशाओ के रूप मे प्रकट होता है और वो है –हर्ष या विषाद। [हर्षादीन अधिगच्छन्ति-ना.शा. निर्णयसागर-पृ.93]
सृजन की प्रक्रिया तथा आस्वादन की प्रक्रिया दोनो का लक्ष्य रस ही है। भरत के अनुसार रस ही सौन्दर्य है ,रस ही आनन्द है,और रस ही ब्रह्म है।
अभिनय,काव्य,संगीत,नृत्य,वास्तु,स्थापत्य,चित्र, आदि सभी ललित कलाओं के माध्यम अलग –अलग है किंतु रस की अभिव्यक्ति और अनुभूति सभी कला रूपो मे समान रूप से होती है। नाटक मे तो सभी ललित कलाएँ एकाकार होकर प्रकट होती है। इसी लिए नाटक मे सब प्रकार के प्रेक्षको को अलग-अलग स्तर पर रसानुभूति होती है। यह रसानुभूति की प्रक्रिया नाटक मे बहुत सहज होती है। नाट्क मे कला और शिल्प अर्थात उपयोगी कला रूपो की भी आवश्यकता होती है। नाट्यशास्त्र मे भरत इन सभी की यथा- अवसर चर्चा करते हुए आगे बढते है। भरत की सौन्दर्य दृष्टि से कुछ बचा ही नही
है।भरत आगे चलकर नाट्य के संतुलन की बात करते हैं। यह संतुलन ही तो सौन्दर्य की अभिलाषा जगाता है-- एवं गानंच नाट्यंच विविधाश्रयम अलातचक्रप्रतिमं कर्तव्यम नाट्ययोक्तृभि:।[ना.शा.28/7]
अर्थात अभिनय ,गायन,वाद्य,नृत्य आदि का संतुलन ही रसव्यंजक है। भरत के अनुसार नाट्य के विविध प्रयोगो को अलातचक्र के समान प्रस्तुत करना चाहिए। अलातचक्र का अर्थ है आग का गोला या बनते बिगडते वृत्त जो वास्तव मे कुछ नही होते किंतु पलीता लकडी का दण्ड तथा मदारी के घुमाने का क्रम और इन सब के समन्वय द्वारा ही अलातचक्र की सृष्टि होती है। यह विविधि कलाओं के संतुलन और लोकवादी समन्वय की रूप रेखा ही भरत की सौन्दर्य दृष्टि का मूलतत्व है। ऎसे ही कला रूपो के माध्यम से रसोद्रेक होता है।संक्षेप मे यही भारतीय सौन्दर्य सिद्धांत की आधार भूमि है।

सोमवार, 8 जून 2009

शोक के शब्द

परदा गिरा कर चल दिये



नहीं रहे छ्त्तीसगढ़ी रंगशैली के उन्नायक, महान रंगकर्मी हबीब तनवीर साहब के दिवंगत होने ख़बर तमाम रंगकर्मियों-लेख़कों को शोकाकुल कर गयी।रायपुर छ्त्तीसगढ़ में 1 सितंबर1923 को जनमे हबीब तनवीर को अपनी मिट्टी इतनी प्रिय थी कि उन्होंने अपने रंगकर्म के द्वारा छ्त्तीसगढ़ी शैली में अपनी अलग पहचान विकसित की।वे सामान्य परिवार में जनमें और सारा जीवन सामान्य आदमी के ख़्वाबों को नयी रंगभाषा और नया रंगमंच देने के लिए प्रयत्नशील रहे।
सच्चे अर्थों में प्रगतिशील चेतना को लेकर आगे बढ़ने वाले तनवीर साहब नए रंगजगत के सर्जक थे।उनका रंगसंसार अनूठा है। आगरा बाजार उनका प्रसिद्ध नाटक है जिससे रंगमंच पर उनकी नयी पहचान बनी। इसके बाद शूद्र्क के मृच्छकटिकम पर आधारित नाटक मिट्टी की गाड़ी का छ्त्तीसगढ़ी शैली में प्रयोग बहुत चर्चित रहा।मोर नांव दामाद, चरन दास चोर,इन्दर लोकसभा ,शाजापुर की शांतिबाई,नंदराजा मस्त है आदि उनके छ्त्तीसगढ़ी भाषा के नाट्य प्रयोग हैं। लोकजीवन की तमाम अनुगूंजें हबीब साहब की कल्पना में साकार रूप लेती दिख़ायी देती हैं।
शूद्र्क विशाख़द्त्त,भवभूति,शेक्सपीयर ,रवीन्द्र्नाथ ठाकुर,ब्रेख़्त,प्रेमचंद,गोर्की, शंकरशेष जैसे महान लेख़कों के नाटकों का ही मंचन नही किया अपितु उन्होंने अपने समकालीन नाट्यकरों के नाटकों पर भी काम किया। विजयदान देथा,असगर वजाहत, सफ़दर हाशमी जैसे लेख़कों के कांसेप्ट पर भी तनवीर साहब ने काम किया। अभी 21 मार्च 09 को भारत भवन- भोपाल में आयोजित संस्कृत नाट्योत्सव में अंतिम बार उनसे मुलाकात करने का मौका मिला।तब भी वे अस्वस्थ थे।आयोजक राधावल्लभ त्रिपाठी सहित सभी ने उनसे आग्रह किया कि वे बैठकर ही अपने विचार व्यक्त करें। पर उनका उत्साही रगकर्मी उन्हे ख़ड़े होकर आपनी बात कहने के लिए विवश कर रह था। वे बोले- “अभी मैं ख़ड़ा हो सकता हूँ ।“ इसके बाद वे कांपते हुए कदमों से डायस की ओर बढ़ गये।
अनेक राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से सम्मानित पद्मभूषण हबीब तनवीर साहब अपने विशिष्ट रंगकर्म पर परदा गिरा कर आज चले गये। पता नही उन जैसा कोई विलक्षण रंगनिदेशक दुबारा कब इस दुनिया में कदम रख़ेगा।





शुक्रवार, 27 मार्च 2009

संस्कृत नाटक:परम्परा तथा संभावनाएँ


संस्कृत रंगमंच की परंपरा सहस्रों वर्ष पुरानी है। वैदिक यज्ञों तथा वैदिक समाज के अनुष्ठानों से ही इस परंपरा के बीज हमे दिखाई देते हैं।ऋग्वेद में आये अनेक –पुरुरवा-उर्वशी,यम-यमी,इन्द्र-अदिति-वामदेव,इन्द्र-मरुत,अगस्त्य-लोपामुद्रा आदि संवाद सूक्त प्राचीन नाट्य का ही रूप हैं। भरत ने ब्रह्मा को नाट्यशास्त्र का रचयिता कहा है। भरत जिनका समय ईसा पूर्व चौथी सदी से लेकर ईसा पूर्व पहली सदी तक माना जाता है उनके समय में भी लोक में नाटक प्रतिष्ठित रहा होगा ऐसा संकेत स्वयं भरत देते हैं। कैशिकी वृत्ति को भरत शिव परिवार से और विष्णु भगवान से उपलब्ध मानते हैं। इसी प्रकार संगीत के प्रवर्तकों में नारद तथा स्वाति आदि का नाम भरत आदर से लेते हैं। अर्थात् भरत से पूर्व भी लोक में नाटक खेलने की परंपरा किसी न किसी रूप में अवश्य प्रचलित रही होगी। यही कारण है कि भरत अनेक स्थलों पर कहते चलते हैं-नानाशीला:प्रकृतय:शीले नाट्यं प्रतिष्ठितम्
तस्माल्लोकप्रमाणं हिविज्ञेयंनाट्ययोक्तृभि:।

बाद में ग्रंथ की परिसमाप्ति पर भरतवाक्य में भी वे कहते हैं—न प्रोक्तं यच्च लोकादनुकृतिकरणं तच्च कार्यं विधिज्ञै:।
अर्थात् लोक परंपरा ही रंगमंच के लिए प्रबल प्रमाण है। भरत का मानना है कि जो कुछ इस ग्रंथ में न आ सका हो उसे लोक प्रयोग परंपरा के अनुसार क्रिया विधि को जानने वाले नट ,सूत्रधार आदि को लोक परंपरा से ग्रहण कर लेना चाहिए। संस्कृत रंगमंच की यह परंपरा निश्चित रूप से पाणिनि जैसे वैयाकरण से भी पूर्व प्रचलित रही होगी।
पाराशर्यशिलालिभ्यां भिक्षुनटसूत्रयो: इत्यादि सूत्र से यही प्रमाणित होता है।
भरत केवल शास्त्रकार नहीं है अपितु वे संस्कृत रंगमंच के प्रथम प्रयोक्ता भी हैं।
खुले आकाश के नीचे सर्व प्रथम अमृतमंथन नामक नाटक भरत के ही निर्देशन में उनके शिष्यों द्वारा खेला गया। कुछ असुरों द्वारा व्यवधान उत्पन्न किये जाने पर भरत ने पहली बार प्रेक्षागृह का निर्माण कराया और फिर समुद्रमंथन नामक नाटक का सफल मंचन हुआ।इसी प्रकार त्रिपुरदाह नामक नाटक के मंचन का भी उल्लेख मिलता है। संस्कृत प्रयोग परंपरा की दृष्टि से देखें तो ये सब आदिम नाट्यप्रयोग कहे जा सकते हैं। प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी नाट्यशास्त्र विश्वकोश की भूमिका में कहते हैं-'ईसा पूर्व की शताब्दियों में नाटक राजमहल से लेकर गाँवों तक फैल चुका था।..इसी वातावरण में भास सौमिल्ल कविपुत्र तथा अश्वघोष जैसे बड़े नाटककार जनमे तथा लौकिक संस्कृत नाटक(क्लासिकल संस्कृत ड्रामा)के युग का सूत्रपात हुआ।'
कहा जाता है कि भरत के सौ पुत्रों को शूद्र होने का शाप देकर ऋषियों नें समाज से बहिष्कृत कर दिया था। तब नहुष जैसे कुछ राजाओं ने उन्हे शरण दी और नाट्य प्रयोग परंपरा को दरबारों में बचाकर रखा।
संस्कृत नाटकों की प्रयोग परंपरा कालिदास के समय में बहुत आगे बढ़ चुकी थी। मालविकाग्निमित्र में कालिदास सूत्रधार के माध्यम से कहते हैं-पूर्वेषां कवीनां दृष्टा:प्रयोगबन्धा:। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि ये प्रयोग राजदरबारों में ही होते रहे होंगे। राजदरबारों में ही कवियों कलाकारों की विद्वत सभा होती थी। संस्कृत रंगमंच की प्रयोग परंपरा के इतिहास की द्रष्टि से भास के नाटक स्वप्नवासवदत्तम् ,प्रतिज्ञायौगंधरायणम् आदि तथा कालिदास के मालविकाग्निमित्र और विक्रमोर्वशीयम् आदि नाटकों की प्रस्तावना बहुत महत्त्वपूर्ण है। मालविकाग्निमित्र नाटक संस्कृत नाट्ययुग की कलात्मक परिपक्वता का प्रतीक है।
शूद्रक का मृच्छकटिकम् संस्कृत रंगपरंपरा का दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रस्थान बिन्दु है। यहाँ राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियाँ लोकधर्मी परंपरा के रूप में प्रकट हुई हैं। इस नाटक की प्रस्तावना से ही प्रकट होता है कि इस नाटक का रचनाकार कोई चक्रवर्ती सम्राट शूद्रक था। जो दिवंगत हो चुका है। यह छद्म नामवाला शूद्रक कौन था कहना कठिन है। यहाँ आर्यक नामक जिस लचर राजा और उसकी बेहद लचर राज्यव्यवस्था का उल्लेख मिलता है वह यथार्थवादी समाज का प्रतिनिधि रूप है।तथा शकार जैसे खलनायक का जो रूप नाटक मे उभरता है वह भी अद्भुत है। परंतु लोकधर्मी इस नाटक की तुलना में दूसरा कोई नाटक कदाचित ही विश्व साहित्य में मिले।
विशाखदत्त का नाटक मुद्राराक्षस अपने आप में अनोखी नीति परंपरा राजनीति और कूटनीति की मिसाल प्रस्तुत करता है। पूरे नाटक में नारी पात्र नहीं है। इसी प्रकार भट्टनारायण का वेणीसंहार नाटक भारतीय रंगमंच पर दुखांत नाटकों की परंपरा में ओज और वीभत्स का प्रतिनिधित्व करता है।
जहाँ तक संस्कृत नाटकों के मंच प्रयोग की बात है तो ये अधिकांश नाटक वसंतोत्सव में खेले जाते थे। कुछ नाटकों के ग्रीष्म में भी खेले जाने की सूचना मिलती है। श्रीहर्ष संस्कृत नाटकों की प्रयोग परंपरा को और आगे बढाते हैं। रत्नावली तथा प्रियदर्शिका नाटिकाओं की प्रस्तावना से ज्ञात होता है कि ये नाटक हर्ष के समय में ही अनेक बार खेले गये होंगे। बोधायन का प्रहसन भगवदज्जुकम् अपने ढंग की अनूठी प्रस्तुति है। सामाजिक विसंगतियों का विरूप रंगमंच पर हास्य के माध्यम से पहली बार भगवदज्जुकम् में प्रस्तुत हुआ।इसीप्रकार महेन्र्दविक्रम का प्रहसन मत्तविलास भी अपनी हास्य व्यंग्य शैली के लिए प्रसिद्ध हुआ। दक्षिण भारतीय मंदिरों में इन दोनो नाटकों का बहुत बार मंचन हुआ।
भवभूति के नाटकों मालतीमाधव,तथा उत्तररामचरित की प्रयोग परंपरा अलग श्रंगार तथा करुण प्रसंग की द्रष्टि से अप्रतिम है।
शकुंतला-दुष्यंत, वासवदत्ता-उदयन-सागरिका, मालविका-अग्निमित्र, वसंतसेना-चारुदत्त, सीता-राम, द्रौपदी-भीम-दुर्योधन-युधिष्ठिर-शकुनि-श्रीकृष्ण, चाणक्य-चन्द्रगुप्त जैसे अनेक जीवंत पात्र संस्कृत रंगमंच से ही निकल कर लोक में आये हैं। आज हमारे सामने इन पात्रों की विभिन्न छवियाँ उभरती हैं। इन पात्रों का नाम लेते ही भारतीय सौंदर्यशास्त्र की लोकवादी परंपरा का सहज रूप में ही आभास होने लगता है, क्योंकि ये सभी पात्र कहीं न कहीं अपनी मूल छवि के साथ रंगमंच पर रूढ़ हो चुके हैं। क्लासिकल संस्कृत नाटक का परिदृश्य इन्ही रूढ हो चुके पात्रों की पहचान के रूप में आज भी सुरक्षित है।
संस्कृत रंगमंच और मंचीय कलाओं का विकास दक्षिण में अधिक योजनाबद्ध ढंग से हुआ। चिदंबरम का नटराज मंदिर भरत के नाट्यशास्त्र की प्रयोग परंपरा का मूर्त रूप है।जहाँ 108 करणों की मूर्तियाँ बनायी गयी हैं। दक्षिण भारत के मंदिरों में संस्कृत रंगमंच की परंपरा बहुत समय तक यथावत जीवित रही उसके बाद यही परंपरा कुडियाट्टम् यक्षगान और अन्य रंगमंचीय लोक परंपराओं - भरतनाट्यम् कथकली कुचिपुड़ी गरबा आदि लोक नृत्यों से जुड़कर नये रूपों में विकसित होती रही। उत्तर भारत में भी लोकनाट्य की अनेक परंपराऍ नौटंकी रास साँग बिहू नटुआ नाच रामलीला हुड़ुक किरतनिञा आदि का प्रयोग कहीं न कहीं संस्कृत रंगमंच की प्रयोग परंपरा का लोक रूप है।
पूर्वोत्तर भारत के अनेक राज्यों खासकर बिहार में ज्योतिरीश्वर ठाकुर का धूर्तसमागम, उमापति का पारिजातहरण,
तथा विद्यापति का गोरक्षविजय आदि नाटकों के मंचन की परंपरा का उल्लेख मिलता है। ये सभी नाटक संस्कृत नाटकों की परंपरा में ही खेले जाते थे।बिहार नाट्यशास्त्र के प्रसिद्ध टीकाकार नान्यदेव की धरती रही है।
जहाँ तक नाट्यशास्त्र सम्मत प्रयोग परंपरा का प्रश्न है तो भरत की रंगचर्या के अनुसार संस्कृत नाटकों का प्रयोग भी आधुनिक युग में किया जाने लगा है।विशेषत:भरत के अनुसार आंगिक अभिनय की पद्धतियों का प्रयोग इब्राहिम अलकाजी, ब.व.कारंत, गोवर्धन पांचाल, वेंकटराम राघवन, विजय मेहता, हबीब तनवीर, कावलम नारायण पणिक्कर, कमलेशदत्त त्रिपाठी, राधावल्लभ त्रिपाठी, राजेन्द्र मिश्र, शेखर वैष्णवी, सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ जैसे कुछ रंगकर्मियों और संस्कृतज्ञों ने किया है और आज भी कर रहे हैं।
जैसा भरत नाटक की प्रयोग परंपरा को नाट्यधर्मी और लोकधर्मी दो रूपों में व्याख्यायित करते चलते हैं वैसा आज के समय में प्राय: कम ही देखने को मिलता है। संस्कृत और विशेषकर नाट्यशास्त्र के विद्यार्थी ही नाट्यधर्मी प्रयोग करने मे सफल हो पाते हैं। पात्र के अनुसार वेश-भाषा-वय-वर्ण-विधि-प्रकृति–मंच आदि का नियोजन नाट्यधर्मी कहलाता है जहाँ भरतोक्त नाट्यशैलियों का विधिपूर्वक प्रयोग किया जाता है, जबकि लोकधर्मी में लोकस्वभाव के अनुसार पात्रों की अभिनय परंपरा तथा मंच सामग्री का चयन किया जा सकता है। यही कारण है कि लोकधर्मी में अपनी लोक परंपराओं तथा लोकशैली के अनुष्ठानों के अनुसार नाटक लगातार खेले जाते रहे हैं जो आज भी खेले जा रहे हैं। इब्राहिम अलकाजी, हबीब तनवीर और कावलम नारायण पणिक्कर के नाट्य-प्रयोग लोकधर्मी परंपरा का ही प्रतिनिधित्व करते हैं।
आधुनिक भाषाओं में नाट्य प्रयोग की यह परंपरा विभिन्न भाषाओं और विभिन्न नाट्य शैलियों के साहचर्य में विकसित हुई और आगे भी विकासमान है। संस्कृत रंगंमंच पर भी दुनिया भर की तकनीकि विज्ञान का प्रभाव पड रहा है,वह कितना महत्त्वपूर्ण है यह अलग प्रश्न है। आजकल कथा-मंचन और उपन्यास-मंचन की नई रंगचर्या हिन्दी भाषा में चल पड़ी है। संस्कृत भाषा में नए नाटकों का अभाव नहीं है। फिर भी आधुनिकता के अनुरूप संस्कृत रंगमंच को राष्ट्रीय स्तर पर विकसित करने की आवश्यकता है। संस्कृत रंगमंच के विकास द्वारा ही संस्कृत भाषा का विकास संभव है। समतावादी मानवीय-धर्म और दर्शन आज हमारे समाज की आवश्यकता है। भरत का सच्चा शिष्य रंगमंच पर या कि जीवन में भी जाति–धर्म-लिंग-भाषा-वेश आदि के आधार पर किसी मनुष्य के साथ भेदभाव नहीं कर सकता। यदि कोई ऐसा करता है तो वह भरत–नाट्यशास्त्र का विद्यार्थी नहीं हो सकता। भरत के रंगमंच और उस विशाल परंपरा में जिस लोकोन्मुख समाज की कल्पना की गयी है वह दुनिया के किसी भी समाज के लिए आदर्श है।
संस्कृत में लोकधर्मी और नाट्यधर्मी दोनो प्रकार के नाटक और उनकी रंगपरंपराएँ उपलब्ध हैं। कालिदास अकादमी, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, केन्दीय संस्कृत विद्यापीठ जैसे अनेक मंच भी हैं। हमारे देश के संस्कृतज्ञ लगातार संस्कृत रंगमंच को अपनी तरह से आगे बढ़ा रहे हैं। कथा मंचन की जो परंपरा विकसित हुई है और जो अब उपन्यास पर आधारित नाटक खेले जा रहे हैं। इन सब नए प्रयोगों द्वारा भी नए लोकोन्मुख पात्रों को स्थापित किया जा रहा है। संस्कृत नाटकों में भी पात्रानुसार आवश्यकतानुसार संस्कृत के साथ-साथ संस्कृतेतर भाषाओं का प्रयोग कराना चाहिए यही भरत का मत था। स्थानीय बोलियों का भी प्रयोग यदि किया जाये तो संस्कृत नाटक प्रयोग परंपरा में और निखार आ सकेगा। मुख्य पात्र नायक–नायिका आदि मंच पर संस्कृत में संवाद करें किन्तु अन्य सहायक पात्र प्राकृत के स्थान पर हिन्दी, मराठी, बांग्ला,मलयालम,पंजाबी,गुजराती आदि भाषाओं अथवा अवधी,ब्रज,छत्तीसगढी,बुंदेली,हरियाणवी जैसी बोलियों का प्रयोग करें तो इससे संस्कृत नाटक और संस्कृत रंगमंच का और अधिक विस्तार हो सकता है। हमारे पूर्वज नाट्यकारों ने दासी, सैनिकों, स्त्रियों, सेवकों जैसे अकुलीन पात्रों के लिए स्थानीय प्राकृत भाषा का प्रयोग किया था। आज भारत जैसे विभिन्न भाषाओं वाले समाज में बहुभाषिक संवादोंवाले या मिश्रित संवादोंवाले नाटकों की प्रयोग परंपरा को और आगे बढाया जा सकता है।
संस्कृत भाषा में रचनात्मक लेखन जैसा कोई पाठ्यक्रम नही है। संस्कृत रंगकर्मी जैसा भी कोई पाठ्यक्रम शुरू किया जा सकता है। हमारे क्लासिकल नाटकों की डी.वी.डी. या सी.डी. निर्मित की जा सकती है। बच्चों को आकर्षित करने के लिए पंचतंत्र की कहानियौ का भी मंचन किया जा सकता है। कुछ प्रगतिशील अध्यापक लगातार इस प्रकार के प्रयोग करते रहे हैं। हिन्दी में यदि अनामदास का पोथा, बूँद और समुद्र, गोदान आदि का मंचन हो सकता है तो संस्कृत के रंगकर्मी कादंबरी, दशकुमारचरित विक्रमादित्य कथा आदि का मंचन क्यो नही कर सकते?
आवश्यक यह भी है कि वह सूची भी बनायी जाये जिन नाटको का मंचन अभी नही हो पाया है। आकाशवाणी के लिए श्रव्यनाटक का एक नया रूप भी हमारे सामने है। कलानाथ शास्त्री, श्रीराम वेलणकर, रमाकान्त शुक्ल आदि इस रेडियो- नाटक की दिशा में लगातार प्रयत्न करते रहे हैं। आधुनिक विषयात्मक तथा नए समय में लिखे गये अनेक नाटक नव्य चेतना से परिपूर्ण हैं। हरिनारायण दीक्षित का मेनकाविश्वमित्र सातवें दशक में लिखा गया अच्छा नाटक है। राघवन कृत अनारकली,मिथिलेश कुमारी मिश्र कृत आम्रपाली, राजेन्द्र मिश्र कृत विद्योत्तमा तथा राधावल्लभ त्रिपाठी कृत सुशीला आदि कुछ ऐसे नाटक हैं जो विविध नारी पात्रों के मनोभावों को प्रकट करने वाले हैं। नए रंगप्रयोग और नवीन रससिद्धि की दृष्टि से इन नाटकों का मंचन बहुत आवशयक है। मंचन के बाद ही किसी नाटक की उपयोगिता का आकलन किया जा सकता है। लिखने भर से कुछ नही हो जाता। संस्कृत भाषा में लिख डालने भर से कुछ नही होता।ऐसे रंगमंच की दृष्टि से अनुपयोगी नाटकों का किसी भी भाषा में कोई अर्थ नही है। रंगमंच पर तो देह की भाषा चलती है, जो अभिनय से प्रकट होकर सहृदय को जोड़ती है। भाषा को लेकर भरत का कहीं कोई आग्रह नही है। संस्कृत रंगमंच और नाट्यशास्त्रीय रंगपरंपरा के बृहदाकाश और रस के अगाध समुद्र की भरत सम्मत व्यापक अवधारणा को हमें और अधिक विस्तार से समझना होगा।हमारा लक्ष्य सहृदय है। वह जिस भाषा को जानता है वही भाषा भरत को भी स्वीकार है। आंगिक अभिनय की भाषा, संगीत की भाषा से जब एकाकार होती है तभी रस की सिद्धि होती है।
यही रंगमंच का व्याकरण है। नाट्यास्वाद प्राप्त करते हुए जिस रस-रूपी ब्रह्म की प्रतीति होने लगती है वह अनिर्वचनीय होती है। अत: संस्कृत रंगकर्मियों को शास्त्राभ्यासजड़ नही होना चाहिए। हर एक रंगप्रयोग अपनी दृष्टि से अनूठा होता है। कालिदास अकादमी, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान आदि मंचों से संस्कृत रंगमंच की जो प्रयोग परंपरा शुरू हुई है वह निश्चित रूप से स्वागत योग्य है।