सोमवार, 13 जून 2011

दृश्यबन्ध -3

(सावित्री अष्टावक्र को भक्त प्रहलाद की कथा सुनाती है ।भक्त प्रहलाद की रोचक कथा सुनकर अष्टावक्र अपनी माता से प्रहलाद और नृसिंह भगवान के बारे तरह तरह के सवाल पूछता है।)

अष्टावक्र:माँ भगवान नृसिंह कैसे चलते थे?..मनुष्य जैसे या सिंह जैसे?

सावित्री :भोन्दूराम,यह तो कहानी है,कहानी से सीख ली जाती है।

मैने भगवान नृसिंह को ठोडे ही देखा है। तू ये समझ ले कि जीवन के लिए चलना अनिवार्य है-बस।

अष्टावक्र:आप चिंता न करें माँ! मै अपना रास्ता स्वयं बनाऊगा।

सावित्री :ऐसा ही हो मेरे लाल।

(सुमित्रा बाल विधवा थी।पति के देहांत के बाद ससुराल वालों ने और मायके मे भाइयों ने भी थोडे दिन शरण देने के बाद तिरस्कृत कर दिया था। अब उसे दोनो परिवार के लोगों ने मनहूस कहकर घर से बाहर कर दिया था।..परिजनो से उपेक्षित सुमित्रा को एक दिन सावित्री मिल गयी थी और वह उसे विद्यापीठ में ले आयी थी।धीरे धीरे आचार्य सुयश ने भी सुमित्रा को और सुमित्रा ने विद्यापीठ को अपना लिया। अब सुमित्रा अष्टावक्र की बुआ बन गयी थी )

(सावित्री अब अस्वस्थ रहने लगी थी।उसकी खाँसी क्षय रोग बन चुकी थी। एक दिन-)

सुमित्रा:भाभी,मुझ जैसी मनहूस को आप इस विद्यापीठ मे क्यों ले आयीं?..कहीं मेरे पापों की छाया आपके सुपुत्र पर न पड जाये?

सावित्री:..तू निरी मूर्ख है...अरे मनहूस तो वो था जो मर गया और तुझे विधवा बना गया..देख मेरा स्वास्थ्य ठीक नही रहता...अब तुझे ही विद्यापीठ की देखभाल करनी है।

सुमित्रा:आपको कुछ नही होगा..

सावित्री:..कुछ पता नही यह खाँसी बढ गयी है...मन उचट गया है...बस तुझे अपना समझकर कहती हूँ -कि यह विद्यापीठ कभी न छोडना। मै न रहूँ... तो मेरे भोन्दूराम का ध्यान रखना।

सुमित्रा:..बस कीजिए...भाभी..मुझे रोना आ रहा है...

सावित्री: तू बहुत रो चुकी है,अपनी छोटी सी उम्र में..अब समझदारी से काम ले।

सुमित्रा:मै कुछ नही समझ पा रही हूँ...

सावित्री:सुन..(खाँसते हुए) देख, मेरी हालत ठीक नही है.. (फिर खाँसते हुए) अब तुझे ही विद्यापीठ का सारा दायित्व निभाना है।..

सुमित्रा:मैं..कैसे?

सावित्री: हाँ तू तुझे ही सभी वटुकों का ध्यान रखना होगा..

सुमित्रा: जी,भाभी..

सावित्री:देख विद्यापीठ मे बहुत काम होता है।अब मेरे बस का नही रहा। गोशाला है -उद्यान है,यहाँ तरह तरह के वटुक आते हैं-उनका भोजन बनाना होता है,सबको अपने हृदय की ममता से सींचना होता है और अनुशासन की आँख से नियंत्रित करना होता है।

सुमित्रा:इतना सारा दायित्व..?..मैने...कभी...

सावित्री: नही निभाया तो क्या तू सक्षम है..यह तेरा नया जीवन है।जैसे जैसे नये जीवन मे प्रवेश करेगी वैसे ही अपना अंनर्थकारी अतीत भूलेगी।...बस तू संकल्प कर ले।

सुमित्रा:कैसे होगा यह सब?...

सावित्री;तू जानती नही नारी के अंग अंग में प्रेम की अमृतधारा समायी रहती है..बस किसी को स्पर्श से -किसी को पुचकार से -किसी को विनम्र होकर -किसी समर्पण से और किसी किसी को तो देखकर ही अपने वश मे कर लेती है।

सुमित्रा:मैं...यह सब...

सावित्री:हाँ सुमित्रा,तू सुंदरी है..तू निष्पाप है..तू सबको अपने वश मे कर सकती है।..यहाँ गायें हैं-वटुक हैं-पक्षी हैं-वृक्ष हैं ,आचार्य सुयश जैसे विद्वान गुरु हैं..तू प्रकृति रूपा है सँभाल ले यह विद्यापीठ का साम्राज्य।

(सुमित्रा की खाँसी तेज हो जाती है।)

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011



अष्टावक्र


(लोकविख्यात बालयोगी अष्टावक्र के जीवन पर केन्द्रित नाटक)

दृश्यबन्ध-दो

(अष्टावक्र का घर ही विद्यापीठ था तो लगातार नए वटुक आते रहते थे। ये वटुक सिर मुडा कर एक लँगोटी,एक धोती,एक जनेऊ लेकर आते थे। इनका उपनयन संस्कार होता था। और फिर माता भिक्षां देहि कहते हुए उन्हे आचार्य विद्यापीठ मे ले आते थे। धोती आचार्य के लिए,लँगोटी अपने लिए जो धोती नही दे पाते थे वे अँगौछा या उत्तरीय ही ले आते थे। अनाज फल गुड आदि की व्यवस्था अभिभावक ही करते थे। सर्दियों के लिए काली कमली भी वटुक अपने घर से ही लाते थे। आचार्य सुयश शर्मा वेदविद्या के खासकर कर्मकाण्ड के आचार्य थे। ज्यादातर विद्यार्थी पुरोहिताई सीखने आते थे। वटुको की संख्या दस से अधिक थी।गायो की सेवा,गोदोहन,उपले थापने आदि का दैनिक कार्य वटुको का ही था।आचार्य जी ने दिन के हिसाब से सभी वटुको को कार्य सौप रखा था।उपनयन करवाने के बाद जो भी वटुक वहाँ आता वह सबके साथ अपनी कुटिया बनाकर रहता। सभी वटुको का भोजन आदि सावित्री और सुमित्रा ही बनाती थी।सावित्री अस्वस्थ थी,अब उसकी एक ही चिंता थी कि अष्टावक्र स्वावलम्बी कैसे बने। एक दिन साँझ को सुलाते समय सावित्री ने बेटे के सिर पर हाँथ फिराते हुए कहा-)

सावित्री:-बेटा अब तू बडा हो गया है,अपने आप शौच आदि जाया कर।अपने आप नहाया कर और लँगोटी धोने की आदत भी डाल ले।

अष्टावक्र:-क्यों,माँ?...अपने आप क्यो?

सावित्री:-बेटा कुछ कार्य संसार मे अपने आप ही करने होते हैं,सभी वटुक करते हैं न?..पहले तुझे कठिनाई होगी लेकिन अभ्यास करेगा तो स्वावलम्बी बन सकेगा।

अष्टावक्र:- मैं... सामान्य नही हूँ..आप तो जानती हैंवैसे आप कहीं जाने वाली हैं ?

सावित्री:-हाँ बेटा मेरी तबियत ठीक नही रहती,पता नही कब साँस रुक जाये....सुमित्रा बुआ भी यह सब नही करेंगी.....तू सामान्य नही, तू तो विशेष है-मेरा लाल,फिर अब तू बडा हो आया है।

अष्टावक्र:-अभी आपको सौ साल तक जीवित रहना है..माँ...

सावित्री:-(मुस्करायीऔर गहरी साँस लेकर बोली) चल ठीक है,बातें न बना।कल से अपने काम स्वयं करने का प्रण कर।

अष्टावक्र:-हाँ मै प्रण लेता हूँ.....।मै अष्टावक्र ,अपनी माता के समक्ष प्रण लेता हूँ कि कल से अपने सभी दैनिक कार्य स्वयं करूँगा..अब तो ठीक है माँ।

सावित्री:- (सावित्री की आँखे भर आयीं).. ठीक है। लेकिन ध्यान रहे ..कठिनाई से डर मत जाना।

अष्टावक्र:-बस आप देखना माँ।

(दूसरे दिन सुबह से ही अष्टावक्र ने अपने दैनिक कार्य करने शुरू किये तो सचमुच उसे बहुत कष्ट हुआ। उस की सबसे बडी समस्या चलने की थी।चलने के नाम पर वह हाँथों और पैरो के बल घिसटता था। पहले दिन उसे बिना किसी की सहायता के काम करने मे दोगुना समय भी लगा। किंतु माता के सामने लिया प्रण उसने निभाया। )

सावित्री:- ( आँचल मे मुँह छिपाकर)-कितना कष्ट हो रहा है मेरे लाल को ,हे दैव,क्या करूँ...अरे इसके तो घुटने छिल गये हैं...खून भी बह आया है..इसकी मदत करनी चाहिए ...मैने निरर्थक ही प्रण दिलाया..मै भी इतनी कठोर हूँ?

सुमित्रा:-दीदी..क्यो रो रही हो ,मै इसकी मदत करती हूँ ...

सावित्री:- नही सुमित्रा!..इसकी आवश्यकता नही है। यह इसकी पहली परीक्षा है। मुझे देखने दो कि यह अपना प्रण निभा पायेगा कि नही?

सुमित्रा:- दीदी इसे बहुत कष्ट हो रहा है,

सावित्री :- मै देख रही हूँ, लेकिन मेरा लाल हारेगा नही ऐसा मेरा विश्वास है।

सुमित्रा:- आप ठीक कहतीं हैं दीदी...लेकिन मुझसे भी देखा नही जा रहा..

सावित्री:-बस अब रोज देखना,धीरे-धीरे वह अपने काम स्वयं करेगा।

(अष्टावक्र ने शौचादिक से निवृत्त होकर आज स्वयं स्नान भी किया था। पिता ने भी यह देखा लेकिन उन्हे इसकी कोई प्रसन्नता न हुई। वे बिना कुछ बोले ही अपने काम मे व्यस्त हो गये। सावित्री के लिए यह बडी घटना थी। अष्टावक्र के छिले हुए घुटनो और कुहनियो से अभी खून बह रहा था। )

सावित्री:- कहो मेरे लाल?...बहुत पीडा होगी?

अष्टावक्र:- (अष्टावक्र के आँसू निकल आये थे,लेकिन वह मन से तो वह सबल हुआ था,बोला) हाँ माँ पीडा तो है..किंतु आज मै विजेता बन गया हूँ...मैने अपना प्रण निभाया..

सावित्री:- (आँचल से पुत्र की आँखे पोछते हुए) सचमुच मेरे लाल!..तुम आज विजेता बन गये हो जीवन की पहली परीक्षा मे सफल हो गये।..मै बहुत प्रसन्न हूँ,..सुमित्रा!अरे जल्दी से मेरे लाल के घावो पर औषधि लेप करो।..रहने दो लाओ मै ही करती हूँ।

(सावित्री देर तक पुत्र के घावो को साफ करके उनपर इंगुदी के तेल की मालिश करती रही। फिर पुत्र का मुँह चूम कर बोली)

सावित्री:- देखो भोंदूराम,तुम सामान्य बालक नही हो,तुम तो परमात्मा के विशेष दूत हो-इसी लिए तुम सबसे अलग हो...

अष्टावक्र:- दूत क्या करता है माँ?

सावित्री:- परमात्मा का दूत सच्चा मनुष्य होता है,वह दुनिया भर को सही रास्ता दिखाता है।

अष्टावक्र:क्या दूत के हाथ पैर मेरे जैसे ही होते हैं?

सावित्री:हाँ ..ऐसे भी होते हैं,वैसे भी होते हैं...

अष्टावक्र:ऐसे भी और वैसे भी का क्या अर्थ है माँ?

सावित्री:तनिक बडा होगा तो स्वयं समझ जायेगा। अब चुप रह औषधि लेप करने दे।

सुमित्रा:-दीदी,आपका प्रयोग सफल रहा।

सावित्री:-तुम तो जानती हो मेरी तबियत कुछ ठीक नही रहती। वैद्य जी ने कहा है कि खाँसी ठीक नही हुई तो अंतिम समय दूर नही..

सुमित्रा:-आप ऐसा क्यो सोचती है

सावित्री:-सुनो मेरी बात,अष्टावक्र मे मेरे प्राण बसते हैं..मुझे यदि कुछ हो जाये तो मेरे बाद तुम्हे ही इसका ध्यान रखना होगा..मुझे वचन दो

सुमित्रा:-आपको कुछ नही होगा दीदी!,बस अभी ज्यादा मत बोलिए-खाँसी बढ जायेगी।...मेरी ओर से आप निश्चिंत रहें-जैसा कहेगी वैसा ही होगा।

अष्टावक्र:-माँ वो प्रहलाद वाली कहानी सुनायी थी आपने...

सावित्री:-हाँ वो तो पूरी हो गयी थी।

अष्टावक्र:-किंतु माँ नरसिंह भगवान का आधा शरीर पशु जैसा था और आधा मनुष्य जैसा फिर वो चलते कैसे थे-यह तो आपने नही बताया?

सावित्री:-वो सब तरह चल सकते है। मनुष्य की तरह भी और पशु की तरह भी..

अष्टावक्र:-मेरे जैसे भी?..मै तो पशुओ की तरह चल पाता हूँ...

सावित्री:-हाँ,तो क्या हुआ ...(आँसू पोछते हुए) बस जीवन के लिए चलना आवश्यक है मेरे भोन्दूराम। बस ये सोचो कि तुम्हे चलते रहना है।

(अष्टावक्र नरसिंह भगवान के शरीर और अपने शरीर मे तमाम समानताएँ खोजने लगा। वह यो ही आत्ममंथन करता रहा।)

सोमवार, 24 जनवरी 2011





अष्टावक्र


(लोकविख्यात बालयोगी अष्टावक्र के जीवन पर केन्द्रित नाटक)

दृश्यबन्ध-1
 (अष्टावक्र के पिता वैष्णव मतानुयायी आचार्य सुयश शर्मा विद्यापीठ के कुलपति है।लोकायत मत की अनुयायी सावित्री उनकी पत्नी,और अष्टावक्र उनका दो वर्षीय बेटा। आचार्य वैदिक कर्मकाण्ड के मार्ग पर चलते और सावित्री को वैदिक कर्मकाण्ड पर विश्वास नही था। जनकपुर की बस्ती से दूर प्राकृतिक वातावरण मे आचार्य सुयश का विद्यापीठ है। अष्टावक्र जन्म से ही शारीरिक रूप से अक्षम है। उसके शरीर की आठ हड्डियाँ टेढी थी इसीलिए पिता ने उसका नाम अष्टावक्र रख दिया था। इस दृश्य मे पति पत्नी दोनो अष्टावक्र को लेकर चिंतित हैं और एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं-)


                            एक:- उपेक्षित लाडला


सुयश- तूने किस मनहूस राक्षस को जन्म दिया-सावित्री! मेरा तो कुल ही कलंकित हो गया..तेरे आचार विचार..


सावित्री-मेरे आचार विचार के बारे मे कुछ कहा तो ठीक नही होगा --आचार्य.!...आप भी निरे पुरुष ही निकले....।


सुयश-तेरे आचार विचार शुद्ध होते तो ये नि:शक्त बालक जन्म नही लेता।


सावित्री-शिशु की निशक्तता की जिम्मेदारी केवल माता की नही होती,पिता की भागीदारी के बिना तो शिशु जन्म ही नही लेते..फिर केवल माता?


सुयश ये कैसी मूर्खतापूर्ण बाते कर रही हो?


सावित्री- सत्य तीखा होता है आचार्य! क्यो?..बुरा लगा आपको?..


सुयश-और क्या..मेरे आचार विचार के बारे मे तो पूरा जनकपुर जानता है। मै शुद्ध वैष्णव मत का अनुयायी हूँ -त्रिकाल सन्ध्या करता हूँ।


सावित्री-मै लोकायत मत की हूँ-इसीलिए मेरे आचार विचार आपको शुद्ध नही लगते?


सुयश-चार्वाक के अनुयायी ...और आचार विचार की शुद्धता?..ह.ह.ह ...यदि तुम भी वैष्णवी होतीं..तो ये मनहूस नि:शक्त बालक ...



सावित्री:-फिर क्यों किया था प्रेम मुझसे ?..और क्यो किया था विवाह ?...


सुयश :-बस यही भूल हुई...और अब उसी का परिणाम है ये मनहूस राक्षस...


सावित्री-मेरा अष्टावक्र नि:शक्त है,मनहूस नही..वह राक्षस नही है और अपंगता कोई अभिशाप भी नही है।..इसका मस्तिष्क सक्रिय है। आप देखना एक दिन यही नि:शक्त बालक अपने कर्मो से हमे ख्याति दिलायेगा,यह एक माता का विश्वास है।


सुयश ;- पता नही तुम क्या सोचती हो ..


सावित्री;- जो मै सोचती हूँ वही ठीक है पुत्र के बारे मे माता से अच्छा और कौन सोच सकता है?..और हाँ देखो अभी मै स्नान सरोवर तक जा रही हूँ...


सुयश:- तो जाओ, मैने कब रोका है?..


सावित्री:- तनिक ध्यान रखना मेरा लाडला यहाँ सो रहा है..कहीं खटोले से नीचे न गिर जाये...सुमित्रा भी नही है घर में...


सुयश:-ठीक है...(अपवार्य)अब मेरे लिए यही रह गया है कि इस कुलकलंकी अपाहिज की देखभाल करूँ ?..मै भी कितना अभागा हूँ!..इस प्रौढावस्था मे पुत्र हुआ वह भी नि:शक्त..अब तो इसकी ही देखरेख मे शेष जीवन कट जायेगा। विद्यापीठ का विकास गया भाड मे।
(पत्नी के जाने के बाद आचार्य सुयश ने शिशु को खटोले से नीचे लिटा दिया और यू ही एकांत मे आकाश की ओर देखकर कुछ चिंतन करने लगे। उनकी चिंता धीरे धीरे अब कुंठा मे बदलने लगी थी। देर तक आँगन मे वैसे ही बैठे रहे ।इस बीच सावित्री स्नान सरोवर से स्नान करके वापस आयी तो वह हैरान रह गयी।)


सावित्री:-अरे यह खटोले से नीचे कैसे आया?


सुयश:-..मैने ही धरती पर लिटा दिया था।


सावित्री:-क्यो आचार्य?


सुयश:-ताकि यह नीचे न गिर जाये..


सावित्री:- कोई जीव काट लेता मेरे लाल को तो?


सुयश:-कुछ हुआ तो नही...


सावित्री:-आपने इसके आँसू देखे?


सुयश:-मुझे तो रोने की भी आवाज सुनाई नही दी..


सावित्री:-ये चीखता नही है...किंतु जब कष्ट असहनीय हो जाता है तो इसकी आँखों से आँसू निकल आते हैं..अरे इसके पैर मे तो चींटे चिपके हैं..अरे देखो तो खून भी निकल रहा है आप कितने निर्दयी हैं?


सुयश:- इस अपाहिज को लेकर मेरा समय नष्ट मत करो..मुझे विद्यापीठ के और भी काम हैं..


सावित्री:-देखना एक दिन यही काम आयेगा!,तनिक बडा होने दो..


सुयश:-बडा भी हो जायेगा तो क्या कर लेगा ? विद्यापीठ के अन्य विद्यार्थियों की तुलना में ?..देवदत्त की तरह क्या यह पेड पर चढकर यज्ञ के लिए लकडियाँ तोड लायेगा ?


सावित्री:-नही ये लकडहारा नही है,ये तो विलक्षण है,देखना ये यज्ञ अनुष्ठान करेगा ही नही-ये उपदेशक बनेगा..


सुयश:-उपदेशक क्या बनेगा ये मिट्टी का माधव..अभी तो बोल भी नही पाता


सावित्री:-माता कहने लगा है..


सुयश:-तात तो नही कह पाता..क्या करेगा?...अरे ये तो सोम शर्मा की तरह गोदोहन भी नही कर पायेगा?


सावित्री:-आपको तो सारी कमियाँ मेरे बेटे मे ही दिखायी देती हैं...तनिक बडा होने दो देखते रह जायेंगे आप और आपके विद्यापीठ के सभी शिष्य।

(अष्टावक्र का स्वभाव अंतर्मुखी था। माता के अलावा सुमित्रा बुआ ही उसका ध्यान रखती थीं। धीरे धीरे अब अष्टावक्र बडा हो आया था)


क्रमश: