गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

स्वानुभूति से सह-अनुभूति तक / अशोक गुजराती


खिड़की वाली सीट—समीक्षा-2
जैसा कि लेखक ने स्वयं प्राक्कथन में उल्लेख किया है .इस संग्रह में समाहित कहानियों में उनका अध्यापक ,पर्यवेक्षक और समन्वयक का व्यक्तित्व उभर आया है|सच है कि हम वही तो लिखेंगे, जो हमारे इर्द–गिर्द की स्थितियाँ और तमाम लोग हमें अनुभव प्रदान करेंगे| शेर मुंह वाले मास्टर साहब, क्लास और क्लास, नेक इरादा, सन्नाटा, और कलमुंही जैसी कहानियां उनके स्वयं–अनुभूत सत्य से सृजित हुई प्रतीत होती हैं| इससे हुआ यह कि ये सारी कथाएँ वायवी ना होकर यथार्थ के करीब से होकर गुजरती हैं| दूसरी विशेषता भारतेंदु जी की मैं रेखांकित करना चाहता हूँ, जो शायद उन्हें खुद भी अहसास न करा पायी हो, वह है उनके संवादों की लय, वस्तुस्थिति से अभिन्नता और दृश्य को सामने रखकर उसमें रच बस जाने की कला। जी हाँ, यह निश्चित ही प्रदर्शित करता है कि लेखक कहानियों से अधिक सक्षम नाटकों की सर्जना करने में प्रवीण है| उनके नाटक पुरस्कृत भी हुए हैं, मैं उनसे उस क्षेत्र में और–और कार्य करने की अपेक्षा करता हूँ| इस किताब में संग्रहीत उनकी एक कहानी है--‘घेरे और घेरे’| इस कहानी में वे प्रेम विवाह और संयोजित विवाह की तुलना बहुत गहराई से करते हैं| इन दिनों अंतरजातीय विवाह और जल्द ही किसी-न-किसी कारण से तलाक की घटनाओं में जो इजाफा हो रहा है, इसका असर लडकी के माँ-बाप के अंतर्मन को झकझोर देता है और पुरानी पीढी के परंपरावादी बुजुर्ग इसको सह नहीं पाते| क्या इस अनिष्ट की चिंता आजकल का युवा वर्ग अपनी सोच का हिस्सा भी बनाता है? इस कहानी में उनका एक बहुत सटीक उद्वेलन भी है-–‘औरत तो रसीदी टिकट होती है| उस पर एक बार किसी के हस्ताक्षर हो जाएं तो उसका महत्त्व शून्य हो जाता है..’ वे दाम्पत्य प्रेम का विश्लेषण करते हुए कहते हैं-‘वस्तुत: प्रेम परस्पर पलता है| रोज की खटर-पटर में ज्यों ज्यों उम्र पकती है–प्रेम प्रगाढ़ होता जाता है|’ ‘क्लास और क्लास’ में वे एक रईस परिवार का कच्चा चिट्ठा खोलते हैं| पति अमेरिका जाकर भोग-विलास में मस्त है तो पत्नी अपने बच्चे के टीचर से दैहिक आनंद लेने में रत है| मुझे इस कहानी में पत्नी उतनी अधिक दोषी नहीं लगती जो बराबरी के स्तर पर जीने की जिद के अलावा अपनी शारीरिक आवश्यकता की मांग को खोलकर स्वीकार करती है| ‘उस्ताद जी’ एक बढ़िया कहानी है जिसमें फ़ौज से निवृत्त हुए हज्जाम की सक्रियता, रुआब और अहमन्यता को लेखक ने बिलकुल सहज तरीके से उजागर किया है| ‘कलमुंही’ की विद्या, ‘बीजगणित’ के मिस्टर एक्स, ‘काक्रोचों की दुनिया’ के जेडी, ‘खिड़की वाली सीट’ के उच्च्वार्गीय महाशय, ‘बरतौनी’ के ठाकुर गयाबख्श व रामप्रसाद-–इस प्रकार के चरित्र समाज में अक्सर दिखाई दे जाते हैं ये अपने आप में कुंठित, चरित्रहीन तथा पराजित व्यक्ति होते हैं जो दूसरो की तकलीफों की फ़िक्र से अनजान पतन की राह पर चल पड़ते हैं| इसके विपरीत ‘नेक इरादा’ के खयाली राम मास्टर हों अथवा शेर मुँह वाले मास्टर साहब-–यह साबित करते हैं कि इस दुनिया में सामंजस्य भाई चारा विश्वास सह-अनुभूति और अपनेपना के जज्बे का अस्तित्व अभी भी बना हुआ है, और इसी प्रेम भावना के कारण यह विश्व सुचारु रूप से गतिमान है| अंत में भारतेंदु जी की कहानी कहने की सरल सुबोध एवं सुगम विशेषता उनकी किस्सागोई को लोककथा के अंदाज में परिवर्तित कर पाठक को लुभाती है निरंतर बांधे रहती है| दो दशकों की दीर्घ समायावधि में लिखी-छपी इन कहानियों में काल के सतत बदलाव को जहां लक्ष्य किया जा सकता है वहीं उनकी गति में वृद्धि होकर भविष्य में और श्रेष्ठ कहानियों की अपेक्षा जगाता है| (आलोच्य पुस्तक:खिड़की वाली सीट, लेखक:डा.भारतेंदु मिश्र, प्रकाशक :वागदेवी प्रकाशन,गाजियाबाद, मूल्य:रु॰ 150/-,वर्ष:2013) सम्पर्क: प्रा. डा. अशोक गुजराती, बी 40 / एफ 1, दिलशाद कालोनी, दिल्ली-110095 सचल-09971744164 / फोन : 8010531187

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

जनजीवन के भावांकन व साधारणीकरण की कहानियां / संतोष कुमार सिंह


खिड़की वाली सीट : समीक्षा-1
रस शास्त्र कविता के साधारणीकरण को साहित्य का लक्ष्य घोषित करता है |कहना होगा कि भारतेंदु मिश्र की कहानियों का यह संग्रह अपनी सुघड़ता ,सहजता,और ग्राह्ता में साधारणीकरण के स्तर तक उठता है|यथार्थवादी एवं रोमांटिक शैली में लिखी गयी ये कहानियां एक शिक्षक के इर्द गिर्द फैले जनजीवन का भावांकन करने में सफल हुई हैं| कला एवं व्यवसाय के प्रति समर्पित ‘उस्ताद जी’ जहां भारतीय समाज के समन्वयवादी अवधारणा के मूर्तिमान हैं, वहीं कलीमुद्दीन जैसे नवधनाड्य के प्रति उस्ताद जी की प्रतिक्रिया एक अनुशासित फ़ौजी की सहज प्रतिक्रिया ही कही जानी चाहिए| ‘कलमुहीं’ कहानी पैसे और देह की साधना में रमे समाज के पतनशील चरित्र को उजागर करती है|इन कलमुहों को दूसरे की जायदाद या अन्य कुछ भी हड़पने के लिए स्त्री के विकृत चरित्र का इस्तेमाल ही क्यों न करना पड़े इन्हें अपनी हवस साधने के लिए हर कीमत छोटी लगती है| ‘शेरमुँह वाले मास्टर जी ’मेहनत लगन एवं निष्ठा से समाज (उनका डाक्टर बेटा भी इसी मुहिम का हिस्सा है ) के चेहरे को उन्नत करने में लगे हैं, मानो लेखक के मन में विद्यमान अध्यापक अपने अध्यवसाय एवं स्वाभिमान रूपी दो कंधों से समाज का पथ प्रदर्शन करने में अग्रसर है|यह कड़ियल अध्यापक लालसा एवं वैभव की दौड़ में शामिल नमकहराम अपने डाक्टर बेटे को किसी भी सूरत में माफ़ करने को तैयार नहीं है| काक्रोचो की दुनिया,बरतौनी,सन्नाटा आदि क्रमश: घटना वक्रता एवं घटना बहुलता से साधी गयी कहानियां हैं|ये कहानियां अवसरवाद ,नवसामंतो /उच्च अधिकारियों के मन में पलती स्त्री-देह लोलुपता को अपने ढंग से व्यक्त करती है|जबकि दो अलग अलग शैलियों में लिखी गयी ‘घेरे और घेरे ’एवं ‘परती जमीन’ कहानियां इस संग्रह की महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं| ‘घेरे और घेरे ’कहानी स्त्री विमर्श के नारे को उसके ठोस सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अंकित करती है|इस कहानी के दो प्रमुख पात्रो में से जहां सुनीता अपनी शर्तो पर जीवन जीने –जीवन साथी चुनने ,व्यवसाय चुनने एवं वैचारिक स्वाधीनता जैसे आधुनिक विचार को लेकर प्रतिबद्ध है|वहीं प्रियंक रूमानी ज्वार के उतर जाने के बाद अपनी खोल में उतर आने वाला नौजवान है | सुनीता की वैचारिक प्रतिबद्धता स्पष्ट है |उसका आत्मविश्वास स्वाभिमान बिलकुल आधुनिक स्त्री के तेवर को रूपायित करता है|वहीं प्रियंक का चरित्र कथित परिवार की परंपरा प्रतिष्ठा के समक्ष स्खलित हो जाता है और उसमे शायद सामान्य मानवीय सौजन्य तक की मर्यादा का अभाव दिखता है|जहां तक लेखक के वैचारिक तेवर का ताल्लुक है उसने अपनी वैचारिक तटस्थता को कॉफ़ी हद तक साधा है,हाँ एकाध टिप्पणी से सावधानी पूर्वक बचा जाना चाहिए था वो चाहे अपनी पीढी की सापेक्षिक प्रंशसा(पृष्ठ -४३ ) हो या सुनीता को कोसना (पृष्ठ -४५ )|कहानी की विशिष्टता उसके छोटे छोटे सटीक संवादों से बढ़ जाती है|भारतेंदु मिश्र अपनी तरफ से जो भी टिप्पणी करते जाते हैं उससे बच लेना उचित होता- क्योकि पाठक उसे पक्षपात की तरह देखते हैं | भावुकता का साहित्य से वही रिश्ता है जो पानी का प्यास बुझाने से| ‘परती जमीन ’तमाम जाने पहचाने फार्मूलो के बावजूद पानी और प्यास के रिश्ते की कथा है |निजी तौर पर मुझे इन भावुकतापूर्ण कहानियों ने किसी भी दूसरी शैली की कहानियों से अधिक संतोष दिया है|प्रेमचन्द साहित्यकार को पथप्रदर्शक का दर्जा देते हैं |ऐसी कहानियों का स्वागत होना चाहिए जो मजहब और फिरको की कट्टरता को शिथिल कर समन्वय का पथ प्रदर्शित करती हैं | कुल मिलाकर भारतेंदु मिश्र की साधारणीकरण की शैली का स्वागत किया जाना चाहिए|हाँ इस साधारणीकरण को कहानी के मूल उद्देश्य संवेग,संवेदना,तनाव और व्यंग्य के आवेग को तीक्ष्णता देने वाला अवश्य होना चाहिए| (आलोच्य पुस्तक:खिड़की वाली सीट ,लेखक:डा.भारतेंदु मिश्र ,प्रकाशक :वागदेवी प्रकाशन,गाजियाबाद ,मूल्य:१५०,वर्ष:२०१३/) (कथादेश के फरवरी-१४ अंक में प्रकाशित) संपर्क:बी-१२/एफ-३ डी.एल.एफ.दिलशाद एक्स्टेंशन-२,गाजियाबाद-२०१००५