गुरुवार, 9 जुलाई 2020


💐संस्कृत भारतीयता की भाषा है👍


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# भारतेंदु मिश्र 
धार्मिक स्तर पर हुए देश विभाजन के बाद स्वत: मिली स्वतंत्रता और उसके बाद से ही संस्कृत को पाखण्ड और कर्मकांड की भाषा साबित करने की एक आवाज उठती रही है| जब धर्म के आधार पर बीएचयू में एक शिक्षक का विरोध होता है तब ऐसी घटनाओं के कारण यह भ्रम पुष्ट होता है| किन्तु ये पूर्वाग्रह उचित नही है| राजीव गांधी जब प्रधान मंत्री थे तब ‘नई शिक्षा नीति’ में त्रिभाषा सूत्र से संस्कृत को बाहर निकाल कर संस्कृत भाषा के पठन पाठन पर भी रोक लगा दी गयी थी| तमाम आन्दोलन और प्रदर्शन हुए,पद यात्राएं की गयीं, संस्कृत के शिक्षक जेल गए और सर्वोच्च न्यायालय ने तब कई वर्षों बाद राहत दी थी| सोचिए ज़रा तब राजीव जी के सलाहकार कौन से लोग थे| राजीव जी का संस्कृत भाषा से कितना जुड़ाव था?
ये बात अपनी जगह सही है कि संस्कृत भाषा के कुछ लोग पांडित्य प्रदर्शन करने वाले और पुराणपंथी रहे हैं| संस्कृत भाषा में ही पुरोहित आज भी कर्मकांड कराते हैं| लेकिन यह तथ्य भी गौरतलब है कि आज भी देश में करोड़ों संस्कृत के शिक्षक हैं जो लगातार नैतिक मूल्यों की शिक्षा बच्चों को दे रहे हैं| नवीन विषयों को भी उठा रहे हैं| जाति और धर्मान्धता से भीतर ही भीतर लड़ भी रहे हैं| वे सबके सब मनुवादी या मनुवाद के पोषक नहीं है|वे तो नवाचार के माध्यम से इक्कीसवीं सदी की बात भी कर रहे हैं| यह भी हमें जान लेना चाहिए कि संस्कृत में शाताधिक महाकाव्य, प्रबंध काव्य उपन्यास और नाटक भी केवल स्वतंत्रता के बाद के कालखंड में लिखे गए| जिनमें आधुनिक विषय के - नानक,तुकाराम,रामदास,ज्ञानेश्वर,महात्मागांधी,सुभाष,नेहरू,राजेन्द्रप्रसाद, इंदिरागांधी और लेनिन जैसे नायकों पर चरित काव्य लिखे जा चुके हैं|इसके अलावा भाषा और अन्य साहित्येतर विषयों पर अनेक महत्वपूर्ण शोध हुए हैं| ये सबके सब संस्कृतकर्मी शोधार्थी केवल मनुवादी या सामंतवादी परंपरा के हिन्दू पुरुष ही नही हैं| इस रचनाशीलता में स्त्रियाँ ,दलित और अल्पसंख्यक भी सम्मिलित हैं| कृपया इस सांस्कृतिक राष्ट्रीय भाषा को राजनीतिक ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ से जोड़कर न देखें|
संस्कृत आयुर्वेद, योग, प्राचीन इतिहास,दर्शन,कला,गणित,विज्ञान और आध्यात्म की भाषा है | कुछ लोग उसे अपने छोटे चश्मे से बिना ठीक से पढ़े जाने ही हिन्दी के नवयुवकों को भ्रमित करने का काम कर रहे हैं| भाषा तो नदी की तरह प्रवाहमान होती है| उसमें से किसी गर्त के एक अंजुरी भर ठहरे हुए जल को लेकर उसे प्रदूषित समझ लेना भयंकर भूल है| जैसे कि नेत्रहीन व्यक्ति हाथी की पूँछ को छूकर उसे रस्सी समझकर यह अवधारणा बना लेता है कि हाथी किसी रस्से जैसा होता है| यह सम्पूर्ण दृष्टि नहीं है,यह किसी के लिए उचित भी नही है| खुलकर बात कीजिए शास्त्रार्थ कीजिए लेकिन केवल आरोप लगाकर नई पीढी के युवकों को भ्रमित करना शायद किसी भाषा के विकास की दृष्टि से निंदनीय है|
संस्कृत को सामंतवादी भाषा साबित करने वाले यह नही जानते कि संस्कृत भाषा सदियों तक माध्यम भाषा रही है| दलित स्त्री विरोधी होना लेखक या कवि का व्यक्तिगत स्थायी भाव हो सकता है पूरी भाषा संस्कृति या परंपरा का वह स्थायी भाव नहीं है| असल में हम ग्रन्थों के कुछ प्रक्षिप्त अंश या अनर्गल उद्धरणों को खोजकर यह साबित करने में लगे रहते हैं| कश्मीर से कन्याकुमारी तक संस्कृत अखंड भारत की भाषा है|राजनीति को लेकर एक आधुनिक संस्कृत कवि की एक कुण्डलिया देखें| निवेदन है ज़रा हिन्दी के विचारक बताएं भी कि इस कुण्डलिया में कितना पाखण्ड है कितना सामंतवाद है कितना हिंदुत्व है?
किम पठने किम पाठने/नेता भव हे पुत्र!
बिना गुणैरपि लप्स्यते गुणगानं सर्वत्र
गुणगानं सर्वत्र भविष्यति विपुला सेवा
भ्रष्टाचारे कृते मिलिष्यति रबड़ी मेवा
वीर:कथयति सेविष्यन्ते गुरुवो भवने
नेतु: चमसो भवे: फलं पश्यसि किम पठने ||(डॉ.वीरभद्र मिश्र )
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