रविवार, 30 अक्तूबर 2016

लेखक बनने के लिए

पं.अमृतलाल नागर से भेंटवार्ता
(वर्ष 1986 मे नागर जी से की गयी मुलाकत के अंश)
पुराने लखनऊ मे चौक मुहल्ले का अलग स्थान है।एक ओर बडा इमामबाडा ,भूलभुलौया,गोलदरवाजा,घण्टाघर मेडिकल कालेज आदि प्रसिद्ध इमारतें तो दूसरी ओर भांग ठंडाई वालो की पुरानी दूकाने यहां की गलियो में कहीं बेले की माला बेचने वाले बरबस आपके गले मे माला डाल देंगे तो कहीं वेश्याओ के उजडे हुए कोठे सुनसान दिखाई पडेंगे।आसपास ही आप आप की भाषा मे हंसी मजाक करते हुए लोग भी मिल जाएंगे।यहीं एक गली में थोडी दूर चलकर ही एक भव्य कोठी है।जिसके दृढ और विशाल कपाटों को देखकर ही उसकी प्राचीनता और भव्यता का प्रमाण मिल जाता है।इसी मे प्रसिद्ध सिने अभिनेता शशिकपूर ने अपनी फिल्म जुनून का छायांकन किया था।यही कोठी प्रख्यात कथाकार उपन्यासकार पं.अमृतलाल नागर जी का निवास स्थान रहा है।इधर का इलाका आरम्भ से ही रंगीनियो का और मस्तियो का इलाका रहा है।
यह मुलाकात सन 1986 मे की गयी थी।उनदिनो बाबू जी अस्वस्थ चल रहे थे।यद्यपि उस समय उनकी दृष्टि और श्रवण शक्ति कमजोर हो रही थी किंतु उनकी सर्जनात्मक शक्ति एवं चिंतनजन्य आनन्द उन्हे सतत कुछ नया देने के लिए संकल्पबद्ध करता जाता था।तभी उनसे लखनऊ यात्रा मे युवारचनाकार मंच की ओर से नवलेखन पर की गयी एक मुलाकात के कुछ अंश-
भा.मि.-उपन्यासों के प्रचार प्रसार और विस्तार के आगे नाटको का विस्तार कम हो गया है,जबकि पहले नाटक मे ही उपन्यास के सारे तत्व मिल जाया करते थे।आपकी दृष्टि में इसका मुख्य कारण क्या है?
नागर जी-
नाटक की परंपरा भारत मे बाहरी आक्रमणो के कारण समाप्त हो गयी।पहले वही खेले जाते थे तब उन्ही का विस्तार भी था।नाटक बडी व्यवस्था चाहता है।उपन्यास को केवल पाठक चाहिए।संस्कृत मे कादम्बरी उपन्यास है।दशकुमारचरित,कथासरितसागर,हितोपदेश आदि मे कहानियां हैं।संकृत मे कथा लेखन काफी विस्तार मे मिलता है-नाटको का तो है ही।आधुनिक काल में हिन्दी मे नाटक तो प्रारंभ हुए परंतु कुछ परिस्थितियां ऐसी हुईं कि हमारे देश में हिन्दी का पेशेवर रंगमंच नही बना।शौकिया रंगमंच बाबू भारतेन्दु आदि ने शुरू किया लेकिन महाराष्ट्र मे आज भी रंगमंच है।परंतु वह हिन्दी से नही विकसित हुआ।वह व्यवस्थित है ,इसीलिए वहां थियेटर चलते हैं।रंगमंच की दृष्टि से इतनी प्रौढता भारत में कहीं भी नही आयी कि केवल नाटक ही देखे जायें यदि ऐसा होता तो शायद उपन्यास कम पढे जाते।नाटक पढने के लिए नही लिखे जाते।दूरदर्शन रेडियो आदि पर कितनी खपत हो सकती है।अत: उपन्यास विधा आगे आयी और यह विधा विस्तृत होती गयी।निराला जी भी नाटक लिखना और मंचन करना चाहते थे।एक संस्था भी बनी किंतु कुछ हुआ नही।
भा.मि.-
आपके द्वारा आनूदित विष्णुभट्ट कृत ‘मांझा प्रवास’का हिन्दी अनुवाद ‘आंखों देखा गदर’नवभारत टाइम्स दैनिक मे छपा।देश मे इसप्रकार का जीवंत इतिहास विभिन्न भाषाओ मे बिखरा पडा होगा।फिर हिन्दी के रचनाकारो की दृष्टि इस ओर क्यो नही पडती?
नागर जी-
हमारे यहां दिक्कत ये है कि पिछले कुछ वर्षो में साहित्य के किसी भी पक्ष उपन्यास हो या कविता किसी विधा की उचित समीक्षा नही मिलती है।हिन्दी के बुद्धिजीवियो मे भी यह कमी है कि वह जीवंत इतिहास को पहचानने की ललक नही रखता।फिरभी दृष्टि ही न जाती तो गदर के फूल कैसे लिखता मैं।हम अंग्रेजी के माद्ध्यम से ही अन्य भारतीय भाषाओ को पढते हैं।यदि उसी भाषा मे पढे तो अच्छा हो बिना भाषा को समझे उस भाषा के साहित्य को समझा तो जा सकता है परंतु अनुभव की तरलता और संवेदनाओ का स्पर्श नही किया जा सकता।यह परिश्रम हर व्यक्ति के बस का नही है।इसीलिए नवलेखन मे मौलिकता का प्राय: अभाव सा दिखता है।
भा.मि.-
इधर भाषा के आधार पर रचनाकारो में प्रांतीयता या क्षेत्रीयता ही अधिक देखने को मिल रही है।हिन्दी के लोग हिन्दी भाषी प्रांतो तक ही जाने माने जाते हैं।हिन्दी के रचनाकार अहिन्दी भाषी प्रांतो मे जनमे महापुरुषो तथा उनके आदर्शो पर क्यो नही लिखते? जबकि रचनाकार तो वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा मे ही जीता है?
नागर जी-दक्षिण भारत या अन्य क्षेत्रो से जुडे लोगो के बारे मे कहा है(लिखा है)पर वह कम है।यह कमी तो हमारे बुद्धिजीवी की ही है।दूसरी ओर यह जागरूकता का प्रश्न है।रवीन्द्र जी के साहित्य में ...कंचन...की बात है जो जागरूक साहित्यकार होता है वह इन सब बातो का ध्यान रखता है।भाषा का विरोध राजनैतिक स्तर पर है।मै 1945 मे मद्रास गया था।वहां शिक्षक रखकर मैने तमिल सीखी।वहां भी लोग हिन्दी पढते और सीखते हैं इसके अतिरिक्त अध्ययन प्रवास और पर्यटन भी आवश्यक है।समंवय की दृष्टि लाने के लिए यह आवश्यक है।वस्तुत:रचनात्मक कार्य के लिए यह आवश्यक नही कि किसी क्षेत्र विशेष या व्यक्तिविशेष के लिए आग्रह हो।कहानी मानव की है आप यह कह सकते हैं लेखन मे आज उस तरह की स्फूर्ति नही  है।आज लेखक के संघर्ष हैं उसकी समस्या जीविकोपार्जन है।अत: वह जिज्ञासा को जागृत भी नही कर पाता भारत ही क्या विश्व की बात का पता भी और वहां के आदर्शो का चित्रण होना चाहिए।आवश्यक मात्रा आदिसे बचने के लिए हमे सीमित रह जाना पडता है।
भा.मि.-
करवटें उपन्यास के बाद आपने इधर कुछ नया शुरू किया था।उसके बारे मे कुछ बतलाइए?
नागर जी-करवटें मे 1850 से 1902 तक का एक ऐतिहासिक कालखण्ड है।इस नई कृति में 1902 से अ986 यानी आजतक की बात कहना लक्ष्य है।बीसवीं सदी के अंग्रेजी पढे लिखे मध्यवर्गीय समाज की समस्याओ को हमने इसमे लिया है।शीर्षक बाद मे रखेंगे।इधर हमारी दृष्टि भी शिथिल हो रही है।श्रवण शक्ति तो पहले से ही कमजोर है।बिना पढे तो कुछ लिखा ही नही जा सकता।अभी तक चौथाई कार्य ही हुआ है।धीरे धीरे प्रयास चल रहा है।
भा.मि.-गद्यलेखन में विशेषत: कथात्मक लेखन के लिए आपकी दृष्टि मे कौन सी बातो का ध्यान रखना आवश्यक है?
नागर जी-
संस्कृत मे एक उक्ति है-जिसका अर्थ है-देशाटन राजदरबार, वेश्या का घर,हाट इन सबको घूमे बिना कोई कवि या लेखक नही बन सकता।मै मेहतओ के पीछे घूंमा हूं।कोठो पर गया हूं।पर्यटन किया है।दस प्रतिशत प्रतिभा और नब्बे प्रतिशत श्रम लेखक को अच्छा लेखक बनाता है।हिन्दी मे प्रतिभा की कमी नही है।दिशा की कमी है।जमीन पर पैर नही रक्खा ब्रम्ह की बात करने लगे।संस्कृति लचीली होती है जो जडता नही सिखाती।जंहा जडता है वहां प्रगति कैसे संभव है।समय को पहचानिए समय के साथ चलिए।तब तो कुछ बात बनेगी।
प्रस्तुति :भारतेंदु मिश्र  




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें