गुरुवार, 1 अगस्त 2013

चार रंग और चार दिन ,रस रंग सने


चार रंग का समापन
हिन्दी अकादमी द्वारा चार रंग शीर्षक से चार दिन –चार निर्देशकों की तेरह कहानियों का मंचन किया गया |निर्देशकों के नाम क्रमश:- देवेन्द्र राज अंकुर,श्रीमती त्रिपुरारी शर्मा,एम.के.रैना और बंशी कौल थे| समापन वाले दिन यानी १-८-१३ को बंशी कौल निर्देशित जिन दो कहानियों का मंचन किया गया –वे थीं – डिप्टी कलेक्टरी और जिन्दगी और जोंक ये दोनों अमरकान्त जी की कहानियां और उनका मंचन बेहद मार्मिक रहा|चारो दिन कथा रस और द्रश्यबंधो का अनूठा संगम बना रहा दिल्ली के रंग प्रेमियों के लिए |

सोमवार, 13 जून 2011

दृश्यबन्ध -3

(सावित्री अष्टावक्र को भक्त प्रहलाद की कथा सुनाती है ।भक्त प्रहलाद की रोचक कथा सुनकर अष्टावक्र अपनी माता से प्रहलाद और नृसिंह भगवान के बारे तरह तरह के सवाल पूछता है।)

अष्टावक्र:माँ भगवान नृसिंह कैसे चलते थे?..मनुष्य जैसे या सिंह जैसे?

सावित्री :भोन्दूराम,यह तो कहानी है,कहानी से सीख ली जाती है।

मैने भगवान नृसिंह को ठोडे ही देखा है। तू ये समझ ले कि जीवन के लिए चलना अनिवार्य है-बस।

अष्टावक्र:आप चिंता न करें माँ! मै अपना रास्ता स्वयं बनाऊगा।

सावित्री :ऐसा ही हो मेरे लाल।

(सुमित्रा बाल विधवा थी।पति के देहांत के बाद ससुराल वालों ने और मायके मे भाइयों ने भी थोडे दिन शरण देने के बाद तिरस्कृत कर दिया था। अब उसे दोनो परिवार के लोगों ने मनहूस कहकर घर से बाहर कर दिया था।..परिजनो से उपेक्षित सुमित्रा को एक दिन सावित्री मिल गयी थी और वह उसे विद्यापीठ में ले आयी थी।धीरे धीरे आचार्य सुयश ने भी सुमित्रा को और सुमित्रा ने विद्यापीठ को अपना लिया। अब सुमित्रा अष्टावक्र की बुआ बन गयी थी )

(सावित्री अब अस्वस्थ रहने लगी थी।उसकी खाँसी क्षय रोग बन चुकी थी। एक दिन-)

सुमित्रा:भाभी,मुझ जैसी मनहूस को आप इस विद्यापीठ मे क्यों ले आयीं?..कहीं मेरे पापों की छाया आपके सुपुत्र पर न पड जाये?

सावित्री:..तू निरी मूर्ख है...अरे मनहूस तो वो था जो मर गया और तुझे विधवा बना गया..देख मेरा स्वास्थ्य ठीक नही रहता...अब तुझे ही विद्यापीठ की देखभाल करनी है।

सुमित्रा:आपको कुछ नही होगा..

सावित्री:..कुछ पता नही यह खाँसी बढ गयी है...मन उचट गया है...बस तुझे अपना समझकर कहती हूँ -कि यह विद्यापीठ कभी न छोडना। मै न रहूँ... तो मेरे भोन्दूराम का ध्यान रखना।

सुमित्रा:..बस कीजिए...भाभी..मुझे रोना आ रहा है...

सावित्री: तू बहुत रो चुकी है,अपनी छोटी सी उम्र में..अब समझदारी से काम ले।

सुमित्रा:मै कुछ नही समझ पा रही हूँ...

सावित्री:सुन..(खाँसते हुए) देख, मेरी हालत ठीक नही है.. (फिर खाँसते हुए) अब तुझे ही विद्यापीठ का सारा दायित्व निभाना है।..

सुमित्रा:मैं..कैसे?

सावित्री: हाँ तू तुझे ही सभी वटुकों का ध्यान रखना होगा..

सुमित्रा: जी,भाभी..

सावित्री:देख विद्यापीठ मे बहुत काम होता है।अब मेरे बस का नही रहा। गोशाला है -उद्यान है,यहाँ तरह तरह के वटुक आते हैं-उनका भोजन बनाना होता है,सबको अपने हृदय की ममता से सींचना होता है और अनुशासन की आँख से नियंत्रित करना होता है।

सुमित्रा:इतना सारा दायित्व..?..मैने...कभी...

सावित्री: नही निभाया तो क्या तू सक्षम है..यह तेरा नया जीवन है।जैसे जैसे नये जीवन मे प्रवेश करेगी वैसे ही अपना अंनर्थकारी अतीत भूलेगी।...बस तू संकल्प कर ले।

सुमित्रा:कैसे होगा यह सब?...

सावित्री;तू जानती नही नारी के अंग अंग में प्रेम की अमृतधारा समायी रहती है..बस किसी को स्पर्श से -किसी को पुचकार से -किसी को विनम्र होकर -किसी समर्पण से और किसी किसी को तो देखकर ही अपने वश मे कर लेती है।

सुमित्रा:मैं...यह सब...

सावित्री:हाँ सुमित्रा,तू सुंदरी है..तू निष्पाप है..तू सबको अपने वश मे कर सकती है।..यहाँ गायें हैं-वटुक हैं-पक्षी हैं-वृक्ष हैं ,आचार्य सुयश जैसे विद्वान गुरु हैं..तू प्रकृति रूपा है सँभाल ले यह विद्यापीठ का साम्राज्य।

(सुमित्रा की खाँसी तेज हो जाती है।)

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011



अष्टावक्र


(लोकविख्यात बालयोगी अष्टावक्र के जीवन पर केन्द्रित नाटक)

दृश्यबन्ध-दो

(अष्टावक्र का घर ही विद्यापीठ था तो लगातार नए वटुक आते रहते थे। ये वटुक सिर मुडा कर एक लँगोटी,एक धोती,एक जनेऊ लेकर आते थे। इनका उपनयन संस्कार होता था। और फिर माता भिक्षां देहि कहते हुए उन्हे आचार्य विद्यापीठ मे ले आते थे। धोती आचार्य के लिए,लँगोटी अपने लिए जो धोती नही दे पाते थे वे अँगौछा या उत्तरीय ही ले आते थे। अनाज फल गुड आदि की व्यवस्था अभिभावक ही करते थे। सर्दियों के लिए काली कमली भी वटुक अपने घर से ही लाते थे। आचार्य सुयश शर्मा वेदविद्या के खासकर कर्मकाण्ड के आचार्य थे। ज्यादातर विद्यार्थी पुरोहिताई सीखने आते थे। वटुको की संख्या दस से अधिक थी।गायो की सेवा,गोदोहन,उपले थापने आदि का दैनिक कार्य वटुको का ही था।आचार्य जी ने दिन के हिसाब से सभी वटुको को कार्य सौप रखा था।उपनयन करवाने के बाद जो भी वटुक वहाँ आता वह सबके साथ अपनी कुटिया बनाकर रहता। सभी वटुको का भोजन आदि सावित्री और सुमित्रा ही बनाती थी।सावित्री अस्वस्थ थी,अब उसकी एक ही चिंता थी कि अष्टावक्र स्वावलम्बी कैसे बने। एक दिन साँझ को सुलाते समय सावित्री ने बेटे के सिर पर हाँथ फिराते हुए कहा-)

सावित्री:-बेटा अब तू बडा हो गया है,अपने आप शौच आदि जाया कर।अपने आप नहाया कर और लँगोटी धोने की आदत भी डाल ले।

अष्टावक्र:-क्यों,माँ?...अपने आप क्यो?

सावित्री:-बेटा कुछ कार्य संसार मे अपने आप ही करने होते हैं,सभी वटुक करते हैं न?..पहले तुझे कठिनाई होगी लेकिन अभ्यास करेगा तो स्वावलम्बी बन सकेगा।

अष्टावक्र:- मैं... सामान्य नही हूँ..आप तो जानती हैंवैसे आप कहीं जाने वाली हैं ?

सावित्री:-हाँ बेटा मेरी तबियत ठीक नही रहती,पता नही कब साँस रुक जाये....सुमित्रा बुआ भी यह सब नही करेंगी.....तू सामान्य नही, तू तो विशेष है-मेरा लाल,फिर अब तू बडा हो आया है।

अष्टावक्र:-अभी आपको सौ साल तक जीवित रहना है..माँ...

सावित्री:-(मुस्करायीऔर गहरी साँस लेकर बोली) चल ठीक है,बातें न बना।कल से अपने काम स्वयं करने का प्रण कर।

अष्टावक्र:-हाँ मै प्रण लेता हूँ.....।मै अष्टावक्र ,अपनी माता के समक्ष प्रण लेता हूँ कि कल से अपने सभी दैनिक कार्य स्वयं करूँगा..अब तो ठीक है माँ।

सावित्री:- (सावित्री की आँखे भर आयीं).. ठीक है। लेकिन ध्यान रहे ..कठिनाई से डर मत जाना।

अष्टावक्र:-बस आप देखना माँ।

(दूसरे दिन सुबह से ही अष्टावक्र ने अपने दैनिक कार्य करने शुरू किये तो सचमुच उसे बहुत कष्ट हुआ। उस की सबसे बडी समस्या चलने की थी।चलने के नाम पर वह हाँथों और पैरो के बल घिसटता था। पहले दिन उसे बिना किसी की सहायता के काम करने मे दोगुना समय भी लगा। किंतु माता के सामने लिया प्रण उसने निभाया। )

सावित्री:- ( आँचल मे मुँह छिपाकर)-कितना कष्ट हो रहा है मेरे लाल को ,हे दैव,क्या करूँ...अरे इसके तो घुटने छिल गये हैं...खून भी बह आया है..इसकी मदत करनी चाहिए ...मैने निरर्थक ही प्रण दिलाया..मै भी इतनी कठोर हूँ?

सुमित्रा:-दीदी..क्यो रो रही हो ,मै इसकी मदत करती हूँ ...

सावित्री:- नही सुमित्रा!..इसकी आवश्यकता नही है। यह इसकी पहली परीक्षा है। मुझे देखने दो कि यह अपना प्रण निभा पायेगा कि नही?

सुमित्रा:- दीदी इसे बहुत कष्ट हो रहा है,

सावित्री :- मै देख रही हूँ, लेकिन मेरा लाल हारेगा नही ऐसा मेरा विश्वास है।

सुमित्रा:- आप ठीक कहतीं हैं दीदी...लेकिन मुझसे भी देखा नही जा रहा..

सावित्री:-बस अब रोज देखना,धीरे-धीरे वह अपने काम स्वयं करेगा।

(अष्टावक्र ने शौचादिक से निवृत्त होकर आज स्वयं स्नान भी किया था। पिता ने भी यह देखा लेकिन उन्हे इसकी कोई प्रसन्नता न हुई। वे बिना कुछ बोले ही अपने काम मे व्यस्त हो गये। सावित्री के लिए यह बडी घटना थी। अष्टावक्र के छिले हुए घुटनो और कुहनियो से अभी खून बह रहा था। )

सावित्री:- कहो मेरे लाल?...बहुत पीडा होगी?

अष्टावक्र:- (अष्टावक्र के आँसू निकल आये थे,लेकिन वह मन से तो वह सबल हुआ था,बोला) हाँ माँ पीडा तो है..किंतु आज मै विजेता बन गया हूँ...मैने अपना प्रण निभाया..

सावित्री:- (आँचल से पुत्र की आँखे पोछते हुए) सचमुच मेरे लाल!..तुम आज विजेता बन गये हो जीवन की पहली परीक्षा मे सफल हो गये।..मै बहुत प्रसन्न हूँ,..सुमित्रा!अरे जल्दी से मेरे लाल के घावो पर औषधि लेप करो।..रहने दो लाओ मै ही करती हूँ।

(सावित्री देर तक पुत्र के घावो को साफ करके उनपर इंगुदी के तेल की मालिश करती रही। फिर पुत्र का मुँह चूम कर बोली)

सावित्री:- देखो भोंदूराम,तुम सामान्य बालक नही हो,तुम तो परमात्मा के विशेष दूत हो-इसी लिए तुम सबसे अलग हो...

अष्टावक्र:- दूत क्या करता है माँ?

सावित्री:- परमात्मा का दूत सच्चा मनुष्य होता है,वह दुनिया भर को सही रास्ता दिखाता है।

अष्टावक्र:क्या दूत के हाथ पैर मेरे जैसे ही होते हैं?

सावित्री:हाँ ..ऐसे भी होते हैं,वैसे भी होते हैं...

अष्टावक्र:ऐसे भी और वैसे भी का क्या अर्थ है माँ?

सावित्री:तनिक बडा होगा तो स्वयं समझ जायेगा। अब चुप रह औषधि लेप करने दे।

सुमित्रा:-दीदी,आपका प्रयोग सफल रहा।

सावित्री:-तुम तो जानती हो मेरी तबियत कुछ ठीक नही रहती। वैद्य जी ने कहा है कि खाँसी ठीक नही हुई तो अंतिम समय दूर नही..

सुमित्रा:-आप ऐसा क्यो सोचती है

सावित्री:-सुनो मेरी बात,अष्टावक्र मे मेरे प्राण बसते हैं..मुझे यदि कुछ हो जाये तो मेरे बाद तुम्हे ही इसका ध्यान रखना होगा..मुझे वचन दो

सुमित्रा:-आपको कुछ नही होगा दीदी!,बस अभी ज्यादा मत बोलिए-खाँसी बढ जायेगी।...मेरी ओर से आप निश्चिंत रहें-जैसा कहेगी वैसा ही होगा।

अष्टावक्र:-माँ वो प्रहलाद वाली कहानी सुनायी थी आपने...

सावित्री:-हाँ वो तो पूरी हो गयी थी।

अष्टावक्र:-किंतु माँ नरसिंह भगवान का आधा शरीर पशु जैसा था और आधा मनुष्य जैसा फिर वो चलते कैसे थे-यह तो आपने नही बताया?

सावित्री:-वो सब तरह चल सकते है। मनुष्य की तरह भी और पशु की तरह भी..

अष्टावक्र:-मेरे जैसे भी?..मै तो पशुओ की तरह चल पाता हूँ...

सावित्री:-हाँ,तो क्या हुआ ...(आँसू पोछते हुए) बस जीवन के लिए चलना आवश्यक है मेरे भोन्दूराम। बस ये सोचो कि तुम्हे चलते रहना है।

(अष्टावक्र नरसिंह भगवान के शरीर और अपने शरीर मे तमाम समानताएँ खोजने लगा। वह यो ही आत्ममंथन करता रहा।)

सोमवार, 24 जनवरी 2011





अष्टावक्र


(लोकविख्यात बालयोगी अष्टावक्र के जीवन पर केन्द्रित नाटक)

दृश्यबन्ध-1
 (अष्टावक्र के पिता वैष्णव मतानुयायी आचार्य सुयश शर्मा विद्यापीठ के कुलपति है।लोकायत मत की अनुयायी सावित्री उनकी पत्नी,और अष्टावक्र उनका दो वर्षीय बेटा। आचार्य वैदिक कर्मकाण्ड के मार्ग पर चलते और सावित्री को वैदिक कर्मकाण्ड पर विश्वास नही था। जनकपुर की बस्ती से दूर प्राकृतिक वातावरण मे आचार्य सुयश का विद्यापीठ है। अष्टावक्र जन्म से ही शारीरिक रूप से अक्षम है। उसके शरीर की आठ हड्डियाँ टेढी थी इसीलिए पिता ने उसका नाम अष्टावक्र रख दिया था। इस दृश्य मे पति पत्नी दोनो अष्टावक्र को लेकर चिंतित हैं और एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं-)


                            एक:- उपेक्षित लाडला


सुयश- तूने किस मनहूस राक्षस को जन्म दिया-सावित्री! मेरा तो कुल ही कलंकित हो गया..तेरे आचार विचार..


सावित्री-मेरे आचार विचार के बारे मे कुछ कहा तो ठीक नही होगा --आचार्य.!...आप भी निरे पुरुष ही निकले....।


सुयश-तेरे आचार विचार शुद्ध होते तो ये नि:शक्त बालक जन्म नही लेता।


सावित्री-शिशु की निशक्तता की जिम्मेदारी केवल माता की नही होती,पिता की भागीदारी के बिना तो शिशु जन्म ही नही लेते..फिर केवल माता?


सुयश ये कैसी मूर्खतापूर्ण बाते कर रही हो?


सावित्री- सत्य तीखा होता है आचार्य! क्यो?..बुरा लगा आपको?..


सुयश-और क्या..मेरे आचार विचार के बारे मे तो पूरा जनकपुर जानता है। मै शुद्ध वैष्णव मत का अनुयायी हूँ -त्रिकाल सन्ध्या करता हूँ।


सावित्री-मै लोकायत मत की हूँ-इसीलिए मेरे आचार विचार आपको शुद्ध नही लगते?


सुयश-चार्वाक के अनुयायी ...और आचार विचार की शुद्धता?..ह.ह.ह ...यदि तुम भी वैष्णवी होतीं..तो ये मनहूस नि:शक्त बालक ...



सावित्री:-फिर क्यों किया था प्रेम मुझसे ?..और क्यो किया था विवाह ?...


सुयश :-बस यही भूल हुई...और अब उसी का परिणाम है ये मनहूस राक्षस...


सावित्री-मेरा अष्टावक्र नि:शक्त है,मनहूस नही..वह राक्षस नही है और अपंगता कोई अभिशाप भी नही है।..इसका मस्तिष्क सक्रिय है। आप देखना एक दिन यही नि:शक्त बालक अपने कर्मो से हमे ख्याति दिलायेगा,यह एक माता का विश्वास है।


सुयश ;- पता नही तुम क्या सोचती हो ..


सावित्री;- जो मै सोचती हूँ वही ठीक है पुत्र के बारे मे माता से अच्छा और कौन सोच सकता है?..और हाँ देखो अभी मै स्नान सरोवर तक जा रही हूँ...


सुयश:- तो जाओ, मैने कब रोका है?..


सावित्री:- तनिक ध्यान रखना मेरा लाडला यहाँ सो रहा है..कहीं खटोले से नीचे न गिर जाये...सुमित्रा भी नही है घर में...


सुयश:-ठीक है...(अपवार्य)अब मेरे लिए यही रह गया है कि इस कुलकलंकी अपाहिज की देखभाल करूँ ?..मै भी कितना अभागा हूँ!..इस प्रौढावस्था मे पुत्र हुआ वह भी नि:शक्त..अब तो इसकी ही देखरेख मे शेष जीवन कट जायेगा। विद्यापीठ का विकास गया भाड मे।
(पत्नी के जाने के बाद आचार्य सुयश ने शिशु को खटोले से नीचे लिटा दिया और यू ही एकांत मे आकाश की ओर देखकर कुछ चिंतन करने लगे। उनकी चिंता धीरे धीरे अब कुंठा मे बदलने लगी थी। देर तक आँगन मे वैसे ही बैठे रहे ।इस बीच सावित्री स्नान सरोवर से स्नान करके वापस आयी तो वह हैरान रह गयी।)


सावित्री:-अरे यह खटोले से नीचे कैसे आया?


सुयश:-..मैने ही धरती पर लिटा दिया था।


सावित्री:-क्यो आचार्य?


सुयश:-ताकि यह नीचे न गिर जाये..


सावित्री:- कोई जीव काट लेता मेरे लाल को तो?


सुयश:-कुछ हुआ तो नही...


सावित्री:-आपने इसके आँसू देखे?


सुयश:-मुझे तो रोने की भी आवाज सुनाई नही दी..


सावित्री:-ये चीखता नही है...किंतु जब कष्ट असहनीय हो जाता है तो इसकी आँखों से आँसू निकल आते हैं..अरे इसके पैर मे तो चींटे चिपके हैं..अरे देखो तो खून भी निकल रहा है आप कितने निर्दयी हैं?


सुयश:- इस अपाहिज को लेकर मेरा समय नष्ट मत करो..मुझे विद्यापीठ के और भी काम हैं..


सावित्री:-देखना एक दिन यही काम आयेगा!,तनिक बडा होने दो..


सुयश:-बडा भी हो जायेगा तो क्या कर लेगा ? विद्यापीठ के अन्य विद्यार्थियों की तुलना में ?..देवदत्त की तरह क्या यह पेड पर चढकर यज्ञ के लिए लकडियाँ तोड लायेगा ?


सावित्री:-नही ये लकडहारा नही है,ये तो विलक्षण है,देखना ये यज्ञ अनुष्ठान करेगा ही नही-ये उपदेशक बनेगा..


सुयश:-उपदेशक क्या बनेगा ये मिट्टी का माधव..अभी तो बोल भी नही पाता


सावित्री:-माता कहने लगा है..


सुयश:-तात तो नही कह पाता..क्या करेगा?...अरे ये तो सोम शर्मा की तरह गोदोहन भी नही कर पायेगा?


सावित्री:-आपको तो सारी कमियाँ मेरे बेटे मे ही दिखायी देती हैं...तनिक बडा होने दो देखते रह जायेंगे आप और आपके विद्यापीठ के सभी शिष्य।

(अष्टावक्र का स्वभाव अंतर्मुखी था। माता के अलावा सुमित्रा बुआ ही उसका ध्यान रखती थीं। धीरे धीरे अब अष्टावक्र बडा हो आया था)


क्रमश:

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

मैं डियरपार्क हूँ

उलझनें                                     फोटो:भारतेन्दु मिश्र


आओ संवाद करें- बतकही ही जीवन है। डियरपार्क का संवाद सुने।
1
मैं डियरपार्क हूँ
मैं डियरपार्क हूँ                                      
आओ मेरे पास बैठो
और चक्कर लगाओ
दोचार
सुरमई सुबह में सुनो
चिडियों का अनहद अनंतराग
और देखो कभी उषा की छवि
  रक्तपुष्प                                                  फोटो:बलराम अग्रवाल
निश्छल प्रेम की चित्रकारी
करती हैं किरणबालाएँ पेडों पर
रचती हैं रँगोली आँगन मे
रोज सुबह
पूर्वी दिल्ली के दिलशाद गार्डन में
बनाया गया था मुझे
जंतुशाला की तरह
तैरती थींयहाँ सैकडों बतखें
बगुलों के साथ
छोटी सी नहर में
करती थीं अठ्खेलियाँ
सफेद गुलाबी बतखें
फुदकते थे खरगोश
अपने जोडों के साथ
बाडे में रहता था गैंडा भी
मोर-कठफोडवा-तोते रहते थे एक साथ
सुनाती थी मैना हाले दिल हौले से
हिरन कूदते थे अपने झुंड मे मस्त होकर
बिखर गये सब साथी एक एक कर
अब वह वैभव नही रहा
पिछले बीस वर्षों में बुढा गया हूँ
मर गये कुछ साथी
मार दिये गये
कुछ कर दिये गये स्थानांतरित
अन्य जंतुशालाओं में
विकास और विनाश की
अकथ कथा गुनता हूँ
जितना बचा हूँ पसरा हूँ आज भी
परिसर की लौहजालियाँ
उखाड ले जाते हैं स्मैकिये
लोग नोच रहे हैं मेरे आभूषण
मै चुप देखता हूँ
अपने घावों को
और मुस्तैद चौकीदारों को
डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी
########
माली बनाते हैं क्यारियाँ
सिरजते हैं आलवाल
फूलों को देते हैं पानी
काटते हैं घास
खडे हैं सैकडों वृक्ष
काले कीकर और गोरे सफेदों के बीच
कुछ और घनी छाया वाले साथी भी हैं
यूँ तो बुराँस है-चीड है-नीम है
उग आया है पीपल भी
झाड है झुरमुट है कटीली घास है
मेरे आँगन में खिले हैं फूल
और हरेपन से रिश्ता अभी टूटा नही है
#######
कौए हैं-कबूतर हैं
पेड पर कसरत करती गिलहरियाँ हैं
मैना है-पिढकुलिया है
गौरैया और लाल दिखती हैं कभी-कभी
पूँछ ऊपर नीचे करती आती है श्यामा
दाना-पानी की खोज में
आते हैं सब मेरे आँगन में
दिल्ली का ताप जो सह नही पाते
वो दूर हो जाते हैं दिल्ली से
किसान हो या गौरैया
सब दूर हो रहे हैं यहाँ से
बाज और चील आते हैं अक्सर
उल्लू और चमगादड बैठते है छिपकर
छिपकर आती हैं लडकियाँ भी
अँधेरे में अपने दोस्तों के साथ
और बाडे खाली हैं
किसी पुराने किले की मानिन्द
लुटे हुए खण्डहर सा
पसरा हूँ बस
सब आजाद हैं-आदमी -औरतें -बच्चे
बडे-बूढे सब आजाद हैं
लोग आते हैं यहाँ समय निकालकर
पालतू कुत्ते भी होते है साथ
विरेचन के लिए
नागार्जुन ने इन्हे ही देखकर लिखा होगा
देखो भाई कुत्तों ने भी कुत्ते पाले
सुबह शाम दोपहर मनमाफिक
लगाते हैं चक्कर पगवीथी पर
करते हैं कसरत
बैठते हैं घास पर
खेलते हैं-वालीबाल-बैडमिंटन
गाते हैं भजन
करते हैं योग
बतियाते हैं लोग अपने सुख दुख
बिछी हैं तमाम लोहे की बेंचें
किसी पर सो रहता है
रात भर काम करके थका हुआ मजदूर
क्रिकेट की बाल से टूट जाती है उसकी नींद
जिद्दी बच्चे खेलते हैं क्रिकेट
उडाते हैं पतंग
चलाते हैं साइकल
और मोटर साइकल मेरी पगवीथी पर
लोग नोच ले जाते हैं
मेरे आभूषण पूजा के लिए
कोई उन्हे रोक नही पाता
यही तो प्रजातंत्र हैं
मेरे आँगन का
#########
मेरी पगवीथी पर बैठकर
जब कोई करता है प्रेमालाप
मैं धन्य हो जाता हूँ
आते हैं कई युवा जोडे
पाठशाला से भागकर आते हैं
कई किशोर अपनी प्रेयसियों के साथ
मेरी इस खुली पाठशाला में
सफेदों के तनों पर
लिख जाते हैं अपना नाम
सफेदे उनके प्रेम के साक्षीबन
मुस्कराते हैं कष्ट सहकर भी
खडे रहते हैं चुपचाप
नमालूम कहाँ कहाँ से आते हैं लोग
यहाँ बना ली है लोगों ने पगडंडियाँ
मेरी छाती पर उगी
हरी रोमावलि को रौंदकर
######
अपने कामकाज के लिए
उग आये हैं फुटपाथिये खोखे
मेरी बाहरी परिधि पर
चाय भी है-पान भी है
बैद भी है जडीबूटी वाला
हजामतवाला फिराता है उस्तरा
और बैठता है वजन की मशीन लेकर एक बूढा
वर्दीवाले को मिलता है हफ्ता
कमायी के हिसाब से
अनियंत्रित ढंग से विकसित होरहा है
लोगों का मोटापा
मेरा पडोस और मैं
सब आजाद हैं
अमलतास
##########                                  
हरबार के बजट में
आते हैं कुछ नए आभूषण
नए झूले -नए बल्व
पगवीथी की होती है मरम्मत
सजता हूँ दो चार दिन
और फिर सब गायब होने लगता है
आँधियों से जूझकर झुके हुए
कई पेड सुस्ता रहे हैं
उनके ठूँठों पर बच्चे
चढते उतरते हैं
खींचते हैं उनके कान
अपनी नरम हथेलियों से
ये शैतान बच्चे
मानो उडा रहे हों किसी बूढे का मजाक
कई पेड सुस्ता रहे हैं/उनके ठूँठों पर बच्चे/चढते उतरते हैं/
खींचते हैं उनके कान
यह जो पेडों की पत्तियों मे कंपन देखते हो
वह मेरे ही मन की आशंका है
सफेदे गिरते जा रहे हैं
जरा सी हवा में
या गिराये जा रहे हैं जानबूझ कर
ये जडें जमा ही नही पाये
पानी के अभाव में
अब इतना पानी कहाँ से लाऊँ
यहाँ यमुना से दूर
यमुना जो सूख गयी है
दिल्ली की प्यास से
देखो तनिक इन कीकरों को
उलझे हैं अपने आप में
गुथी हैं इनकी शाखाएँ
जैसे अपने ही परिजनों के बीच
झगड रहे हो घर के सदस्य
देखना भर ही तो है मेरी नियति
मेरा क्या है मैं मौन हूँ
बस देखता हूँ
सुनता हूँ सबकी
##########
बच्चों से खेलते हैं अंकल जी
बरसों से देखता हूँ
उन्हे खेलते हुए बच्चों से
हर सुबह आते हैं वो
अंकुरित अनाज भी लाते हैं वो
हर दिन देखता हूँ
उनका खिला हुआ चेहरा
अध्यापक नही हैं वो
शायद इसीलिए आते हैं
तमाम बच्चे उनके पास
खेलते हैं खो-खो
पकडम पकडाई और सीखते हैं
जीवन का पाठ बिना किताब के
इस खुली पाठशाला में
###########
आते हैं काकबन्धु जी
थैले मे लाते हैं दाने और आँटे की गोलियाँ
कौए उन्हे देखकर आ जाते हैं
                                                                          चित्र:बलराम अग्रवाल
खोजी पत्रकारों की तरह
अपने बाइट के लिए
वो किसी से बतियाते नही
बस अपना काम करते हैं
एक जगह चुन ली है उन्होने
हमेशा के लिए
गिलहरियाँ भी ले जाती हैं अपना भाग
चीटियों के बिलों के पास
वो बिखराते हैं चुटकी भर आँटा
पास की बेंच पर बैठकर
लगाते हैं एक सिगरेट
सुस्ताने के लिए
और फिर चले जाते हैं घर
अपने इस कर्म को धर्म समझकर
लेखक मंडली ने
दिया है उन्हे यह नाम
बाएँ से:भारतेन्दु मिश्र, हरिनारायण, विभांशु दिव्याल, त्रिपाठी जी, राजेन्द्र नागदेव चित्र  बलराम अग्रवाल 
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नंगातलाई का गाँव बिस्कोहर
बिस्कोहर के बिसनाथ जी
आते हैं रोज मेरे इस आँगन में
लगाते हैं चक्कर
भाँजते हैं हाथ पाँव
करते हैं उत्तानपाद आसन
लेखक मंडली के मुखिया हैं वो
कब बिसनाथ से डाँ विश्वनाथ त्रिपाठी
और डाँ विश्वनाथ त्रिपाठी से
बिसनाथ बन जाते हैं
कहना कठिन है
मेरे आँगन में
ऐसे ही होती है जन से अभिजन
और अभिजन से जन के बीच आवाजाही
इस खुली अकादमी के हैं कई सदस्य
हरिनारायण-रमेश-विभांशु-
राजेन्द्रनागदेव-बलराम-राकेशतिवारी
हेमंत और मैं
अशोक गुजराती जुडे हैं
अभी कुछ दिन हुए
कभी आते थे यहाँ नियमित विजय जी-
अरुणप्रकाश-आलोकपुराणिक-
शमशेरआलम-रवीन्द्रपाण्डेय
और वो चौबे जी
जो करवाते थे कविगोष्ठी
पिछले साल चला गया रामलखन
हमेशा के लिए दूर
उसकी चाल का दूसरा
आदमी नही मिला तबसे
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बाएँ से:कथाकार शिवमूर्ति, डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी, हरिनारायण जी(संपादक 'कथादेश') 
चित्र:बलराम अग्रवाल



रविवासरीय बैठकी चलती है लम्बी
बतरस लूटते हैं सब अपने ढंग से
झाँकते हैं समस्याओं में अपनी तरंग से
डूबकर नहाते हैं निन्दा के ताल में
सभी मगन रहते हैं लेकिन हर हाल में
अक्सर प्रकट होते हैं-
टालस्टाय-गालिब-निराला
कबीर-तुलसी शेक्सपीयर
 जोश-शमशेर-नागार्जुन
तो कभी उतर आते हैं-कालिदास-बाँणभट्ट
और शूद्रक इस बतकही मे
बिखर जाती है पुनर्नवा घास
पुनर्नवा के साथ जी उठते हैं
आचार्य प्रवर हजारी प्रसाद द्विवेदी
गुरुवर जो ठहरे बिसनाथ के
रामविलासशर्मा-केदारनाथअग्रवाल-त्रिलोचन
सभी प्रकट होते हैं प्रसंगवश
लगता है पान खाये बैठे हैं
पास में नामवर
और पाइप सुलगा रहे हैं
काला चश्मा चढाये राजेन्द्र यादव
बतकही के बीच आते हैं
मित्रों के मित्र भी कभी-कभार
कभीकभार की चर्चा भी होती है
साहित्य की धडकन गुनते हैं रोज
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जब कोई लचर लबार
पुरस्कार के पीछे भागता है
तो यहाँ चर्चा होती है
कफन सम्मान की
कि अमुक को दे ही दिया जाये
दबोचकर यह सम्मान
सिर पर फोडकर नारियल
ओढा ही दी जाय सफेद शाल
और दे ही दिया जाय मानपत्र
आत्मा की शांति के लिए
बात होती है
साहित्य के दलालों की
किताबों की और साहित्यिक बवालों की
###########
                                                                                               फोटो:भारतेन्दु मिश्र



जब घास बढ जाती है
तो स्वत: आ जाती हैं
झोली और हँसिया लहराती घसियारनें
मालियों की अनुमति से
काटती हैं वो घास
ये करते हैं श्रम सौन्दर्य पर बातचीत
कटी हुई घास की गंध
सदियों पुराने आदिम गंधवाले
संस्कार से मेल खाती है
बिसनाथ जी सूँघते हैं
घास को-फूल को-पत्ती को और करते हैं
आलिंगन वृक्ष का
लोटते हैं घास पर
उनका धरती के हरेपन से
जुडे रहने का यह क्रम लुभाता है मुझे
मै तो पार्क हूँ
बहसें होती हैं देरतक
दूरतक जाकर फिर लौट आते हैं
सब अपने आप में
अपने आप में रहने का फन
सीख रहे हैं लोग यहाँ
जो नही सीख पाते
वो छटककर चले जाते हैं अपनी राह
कठिन है
साँझे हो रहना विचारों मे
उससे भी ज्यादा कठिन है
साँझी हँसी
हँसना खुद पर तो मानो पहाड तोडने जैसा है
ये हँसते हैं बिन्दास
पीते हैं चाय रस्क के साथ
आलोचना करते हुए
दीन दुनिया की और अपनी
शैतान बच्चों की तरह
सबने बिगाड रखे हैं
मित्रों के नाम
किसी को तेन्दुआ,किसी को हरिया
किसी को बैलराम किसी को नागराज
किसी को लट्ठ किसी को पतझड
किसी को विभासानन्द
बाबू बिसनाथबिस्कोहरी बेंतवाले        चित्र:बलराम अग्रवाल
तो किसी को बाबू बिसनाथबिस्कोहरी बेंतवाले
कहकर हँसते हैं
इनके जीवन के दिन
कुछ ऐसे ही सरसते हैं
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यहाँ जो कभी नही आये उनके
डुप्लीकेट चुन लिए हैं सबने
एक सज्जन हैं जो कदकाठी से लगते हैं
आलोचक परमानन्द से
रामदरसमिश्र-उदयप्रकाश-मैनेजरपाण्डे
और न जाने कौन कौन से
साहित्यकार प्रकट होते हैं
अपनी चाल-ढाल से
ये दूर से उन्हे देखकर बतियाते हैं
और बतरस में खो जाते हैं
कविता की तरह
मनुष्यों मे भी होता है भावसाम्य
कुछ ऐसी ही लयमें
चलती है यहाँ रसचर्या
परस्पर सहभाव से
बतरस का होता नही कोई छोर
पकाते हैं खयाली पुलाव
आँखें चमक आती हैं ठहाकों में
खुली पाठशाला में
होते हैं सहज व्याख्यान
कैण्टरबरीटेल्स
और हितोपदेश की शैली में
टकराते हैं गाँधी और मार्क्स
आचार्य की संवेदना सजल हो आती है
लाल हो आता है
उनका चेहरा प्रसंगवश
वो सजग हैं
वो सधे हुए हैं
उनकी मुद्रा का अर्थ होता है
##########
विचलित हो जाता हूँ  
नाले में कूदकर
पन्नी और बोतल बीनते बच्चे को देख
नाला जो मेरे आँगन के बीचसे गुजरता है
नाले पर बनी हैं छतें
जिनमें से टूट गयी हैं कई
समय की धार से
कलन्दर कालोनी के बच्चे
उतर जाते हैं इनमें
रोटियों की खोज में
रोटियाँ जो बोतलों की शक्ल में तैरती हैं
नाला गहरा और बदबूदार है
ये खेलते हैं वहीं
लोग समझाते हैं लेकिन वो मानते नही
उनका रोज का काम है
प्लास्टिक बीनना
###########
मेरे आँगन में
आते हैं सीमापुरी के बच्चे
करते हैं करतब
खाते हैं हवाई गोता
लगाते हैं गुलाटियाँ
चलते हैं हाँथों के बल
सीखते हैं मलख्म्भ
अपने सपने को
साकार करना चाहते हैं
किसी शो की प्रतियोगिता में जुटे हैं लगातार
मन मोह लेते हैं
सबका अपने अभ्यास से
इनका कोई उस्ताद नही है
ये बन रहे हैं अपने आप मे उस्ताद
अच्छे लगते हैं मुझे
इनके सपने और इनकी कलाबाजियाँ
प्रतियोगिता में नही चुने जायेंगे
तो भी बहुत काम आयेंगी ये कलाबाजियाँ
कुछ न कुछ कर ही गुजरेंगे जिन्दगी में
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पगवीथी पर टहलते हैं
तमाम आम लोग
जिनके चेहरे सब जानते हैं
सबसे होती है राम-राम
अधेड मोटी औरतें और मर्द
लगाते हैं कई चक्कर
मोटापा घटाने के लिए
आती है एक गर्भिणी
अपने पति के साथ
मेरा हर तिनका रोमांचित होता है
देखकर उनका साहचर्य
वो आठ दस चक्कर लगाने वाली
लडकी अब नही आती
शायद हो गया होगा उसका फिटनेस टेस्ट
घूमती हैं मोटापा घटाने के लिए
दो लडकियाँ हिलमिल
बतियाती हैं अपनी ही धुन में
एक कीकर जैसी साँवली
दूसरी सफेदे जैसी गोरी
ये जान गयी हैं जीरो फिगर का मर्म
वो रस्सी कूदनेवाली लडकी
आती है माँ के साथ
दोनो कूदती हैं रस्सी
उन्हे उछलता हुआ देखते हैं
मनचले लोग
रस्सी के वृत्त में  
उछलते हैं उनके अंग
लहराते हैं दुपट्टे पतंग से
लेकिन उन पर
किसी हवा का असर नही होता
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मन बतकही में रमता है
थोडी कसरत-थोडा टहलना
और देखना लोगों के आरपार
बस यहीं होता है
खुला है यहाँ आसमान
पुरवा पछुआ
और बसंती का सुख यहीं मिलता है
गुनगुनी धूप सहलाती है जोडों का दर्द
सर्दियों में देरतक बैठते हैं लोग-
धूप के लिहाफ में
रहता है यहीं कहीं
एक नकुल परिवार
अपने किसी दुर्ग में
छोटे बडे मिलाकर हैं कई सदस्य
उछलते हैं धूसर नकुल शिशु
धूप की आँच में
दिल्ली में सन्युक्त परिवार
अब देखने को नही मिलते
###########
गर्मी में जुडाते हैं लोग
थके हुए कामगर सो जाते हैं
मेरी बेंच पर बेरोक टोक
आषाढ आते ही गिलहरी
बनाने लगती है अपना घर
प्रजनन से पहले
वो बिछा ही लेना चाहती है
अपना नरम होलडाल
                                                                                     चित्र:बलराम अग्रवाल
तिनके घास और लत्ते के रेशों को
गोल गोल घुमाकर
वह चढती है उल्टे पाँव
कीकर की फुनगी पर
कौओं से आँख बचा
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मेरा रोम रोम भीगता है
बरसात में
भीगने से बचते हैं लोग
उनके लिए हरी छतरियों वाले पेड
खडे है मेरे आगन में
रजस्वला धरती पर बरसता है बादल
तो हरा हो जाता है मेरा मन
माटी की सोंधी महक
भर जाती हैं रोम रोम में
कुलबुलाते हैं तमाम जीव
केचुए-घिनौरी और वीरवधूटियाँ
रेंगने लगते हैं देखते देखते
उग आते हैं केचुओं के घर
नरमायी धरती पर
चमकते हैं एक रूप
योजनाबद्ध ढंग से बनायी गयी
बस्ती की तरह
चीटियाँ चली जाती हैं सुरंग में इन्हीदिनों
बहुत प्राचीन निवासी हैं
वो इस धरती की
उन्हे ऋतु के हिसाब से
धरती पर रहने का हुनर आता है
#########
कातिक आते ही
कुत्ते करने लगते हैं किलोल
बैठना मुश्किल कर देते हैं
लोगों का आसपास
नमालूम कहाँ से आ जाते हैं
ये निगोडे देसी कुत्ते
जब जाडा बढ जाता है
तो पूस की ठंड में
काँप जाता है मेरा मन
ठिठुर जाते हैं फूल
ओस और पाले की रात में
सबको कहाँ मिलती है छत
सबको कहाँ मिलती हैं टोपियाँ
सबको कहाँ मिलते हैं लिहाफ
#############                           लिली
बसंत आता है तो
सुर्ख सुकुमार किसलयों पर
भौंरे बीन बजाते हैं
तितलियाँ नाचती हैं
मधु उतर आता है चारो ओर
फूलों पर मधुमक्खियाँ मँडराती हैं
क्यारियाँ रंग-बिरंगे फूलों से सज जाती हैं
बसंत की घोषणा मे तन जाते हैं
भोंपू जैसे पीले कनेर
मगन हो फूलते हैं सभी
लिली-चमेली-गुडहल
लेकिन जब फूलती है नीम
तो मन मचलने लगता है
कोयल गाती है राग बसंत
बसंता गाता अविराम
गर्मी बढती है तो
जेठ में फूलता है अमलतास
फिर महक उठता है मेरा आँचल
सोनपरी उतर आती है
कानों में सोने के झुमके लटकाये
पाम है लतायें है-सदाबहार है
सब बैठे हैं मेरे आँगन में
क्यारियों में झूमती है लिली
जैसे सुन्दरियाँ डोलती हैं रैम्प पर
मेरे हृदय मे लहराता है सुन्दरवन
बिछा है कालीन हरी घास का
आओ तो सही मेरे पास
#########
ये कवि-लेखक मानते नही
कविता कहानी पर
करते हैं बात अधिकतर
गनीमत है कि यहाँ
अपनी सुनाने का रिवाज नही है
चर्चा में आती है कथादेश
समयांतर और हंस
तद्भव-आलोचना- वागर्थ
वसुधा-अलाव सर्वनाम
आजकलऔर नयाज्ञानोदय
जनसत्ता की होती है चर्चा विशेष
बात होती है रंगमंच की
कारंत-अल्काजी-हबीबतनवीर की
बात चलती है फिल्मों की
फिल्मी गानों की
राजकपूर-दिलीपसाहब
संजीवकुमार और अमिताभ की
नरगिस-मीनाकुमारी वैजंतीमाला
नूतन और रेखा की
नासिरुद्दीन-नानापाटेकर-पंकजकपूर
अनुपमखेर और परेशरावल के अभिनय की
बात होती है गीतकारों
संगीतकारों की हरिप्रसाद चौरसिया
और भीमसेनजोशी की
लता मन्ना डे-मुकेश और रफी की  
इसी बीच
मन की तरंग पर
नागदेव गाते हैं मराठी गीत 
मन मे भर जाती है अभंग की उमंग
बतकही का क्या है जिधर घूम गये
घूम गये
############
बहुत दिनों से नजर नही आया
वह पापडवाला
वो डलिया मे रखकर पान बेचनेवाला
वो बडे मिंयाँ जो सिलते थे कपडे
और पेश करते थे कलाम
वो ललवानी साहब
चटाई लेकर आते थे व्यायाम के लिए
वो मैदानीजी और वो शर्मासाहब
चले गये सब पता नही कहाँ
आता था एक तीतरवाला
पिंजरे में लेकर एक जोडा
चुग्गा चुगाने के लिए
दीमक की खोज में
छोडता था एक एक को बारी-बारी
उसे मालूम था कि
पिंजरे वाले की चाहत
दूसरे को खींच ही लायेगी
उसके सीटी बजाते ही
बाहरवाला लौट आता था उसकी कैद में                     बतकही
 ताहिरपुर का एक बच्चा
लाता था खरगोश थैले मे डालकर
टहलाने के लिए
फुदकते हुए खरगोश को देखकर
मेरे आँगन का अतीत
मेरी आँखों में नाचने लगता है
उडा ले गयी समय की आँधी
खुशबू की तरह बिखर न गये हों कहीं
लेकिन पेडों ने टेप कर लिए है
पंछियों के रुदन और गान
कबूतरों की गुटरगूँ
कौवों की काँय-काँय
कुत्तो का गुर्राना
कोयल की कूक
ट्यूबवेल की हूक
लोगों के सुख और लोगों के दुख
वह सब जो घट चुका है
मैने कर लिया है अंकित हृदय पर
मैं देखता हूँ पत्तियों की आँख से
सुनता हूँ फूलों के कान से
लिखता हूँ फुनगियों की कलम से
धरती पर अमिट लेख
मेरा क्या है
मैं चेतन होकर भी जड हूँ
बडा कठिन होता है
संग होकर भी निस्संग होना
##########
बडे चटोरे हैं ये लिखने पढने वाले
मिठाई का नाम सुनते ही
ये लटपटा जाते हैं
हीरा की बालूशाही-श्याम की लस्सी
नेतराम की जलेबी-
रामआसरे की मलाईगिलौरी
पंछी का पेठा
बृजवासी की रसमलाई
मथुरा का पेडा और नजाने कितनी
मिठाइयों पर होता है विमर्श
सत्तू-लिट्टी-चोखा-पोहा
पनेथी सकपहिता-रसावल
दहीबडे-सतपुतिया-
मछली-बिरियानी-कबाब
शबाब और शराब पर भी होती है बातचीत
स्वाद के आस्वाद पर होता है विमर्श
बतरस में होते हैं विविध रस
चलती है रसचर्या बहुविधि
बातों में घुलमिल जाते हैं षडरस
(तिक्त-मधुर-कटु-अम्ल-काषाय और लवण)
बहुत आत्मीय होती है बातचीत
सुनाते हैं यात्राप्रसंग
बाहर से लौटकर
दिलखोलकर करते हैं समीक्षा
सही और गलत की 
टकराते हैं विचार बार बार
लेकिन फिर चाय और फैन के साथ
हो जाती है सहमति
बीच में लपलपायी जबानवाला
एक सभ्य कुत्ता झाँकता है
उसकी पनियल आँखों में
चमकती है प्रणति
भूख की यह प्रणति देख याद हो आती हैं
राजकपूर की फिल्में
और उनके कुत्ते
ये मुफ्तखोर कुत्ता किसी काम का नही
यह जानकर भी
फेक ही देते हैं एक टुकडा
उसकी तरफ अक्सर
###########
ख्वाब न होते
तो दुनिया बेमानी हो जाती
बात होती है ख्वाबों की
बात बात में होती है कविता
बातचीत ही तो होती है कविता
दुरि बैठि बिराजति बात बनी
घनानंद ऐसे ही नही
बने प्रेम के कवि
बात बनने लगती है
तो होता है रसबोध
नवरसरुचिरा होती है बतकही
दूब हरियाती है यहाँ सर्जना की
हर बेंच कुछ कहना चाहती है
समय की हथेली पर
 रच रहा है कोई अनगिन सौन्दर्यबिम्ब
बात बिराजती है मेरे प्राणों में
बातों की दुनिया बसती है मेरे मन में
बस नही हैं मेरे पास
चिडिया को फुसलाने वाले शब्द
हरेपन की भाषा में जैसा कह पाता हूँ
सुन सकते हो तो सुनो
देखो किस तरह
जलता हूँ-जुडाता हूँ-भीगता हूँ
हरी भरी भाषा में लिखता हूँ
जीवन समग्र
मै केवल पार्क नही हूँ
######                                              पार्क की बेंच

*भारतेन्दु मिश्र (मैने कई बैठको अर्जित अनुभवो को जिया है इस  कविता मे तब यह इस रूप मे बन पडी)