शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

मैं डियरपार्क हूँ

उलझनें                                     फोटो:भारतेन्दु मिश्र


आओ संवाद करें- बतकही ही जीवन है। डियरपार्क का संवाद सुने।
1
मैं डियरपार्क हूँ
मैं डियरपार्क हूँ                                      
आओ मेरे पास बैठो
और चक्कर लगाओ
दोचार
सुरमई सुबह में सुनो
चिडियों का अनहद अनंतराग
और देखो कभी उषा की छवि
  रक्तपुष्प                                                  फोटो:बलराम अग्रवाल
निश्छल प्रेम की चित्रकारी
करती हैं किरणबालाएँ पेडों पर
रचती हैं रँगोली आँगन मे
रोज सुबह
पूर्वी दिल्ली के दिलशाद गार्डन में
बनाया गया था मुझे
जंतुशाला की तरह
तैरती थींयहाँ सैकडों बतखें
बगुलों के साथ
छोटी सी नहर में
करती थीं अठ्खेलियाँ
सफेद गुलाबी बतखें
फुदकते थे खरगोश
अपने जोडों के साथ
बाडे में रहता था गैंडा भी
मोर-कठफोडवा-तोते रहते थे एक साथ
सुनाती थी मैना हाले दिल हौले से
हिरन कूदते थे अपने झुंड मे मस्त होकर
बिखर गये सब साथी एक एक कर
अब वह वैभव नही रहा
पिछले बीस वर्षों में बुढा गया हूँ
मर गये कुछ साथी
मार दिये गये
कुछ कर दिये गये स्थानांतरित
अन्य जंतुशालाओं में
विकास और विनाश की
अकथ कथा गुनता हूँ
जितना बचा हूँ पसरा हूँ आज भी
परिसर की लौहजालियाँ
उखाड ले जाते हैं स्मैकिये
लोग नोच रहे हैं मेरे आभूषण
मै चुप देखता हूँ
अपने घावों को
और मुस्तैद चौकीदारों को
डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी
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माली बनाते हैं क्यारियाँ
सिरजते हैं आलवाल
फूलों को देते हैं पानी
काटते हैं घास
खडे हैं सैकडों वृक्ष
काले कीकर और गोरे सफेदों के बीच
कुछ और घनी छाया वाले साथी भी हैं
यूँ तो बुराँस है-चीड है-नीम है
उग आया है पीपल भी
झाड है झुरमुट है कटीली घास है
मेरे आँगन में खिले हैं फूल
और हरेपन से रिश्ता अभी टूटा नही है
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कौए हैं-कबूतर हैं
पेड पर कसरत करती गिलहरियाँ हैं
मैना है-पिढकुलिया है
गौरैया और लाल दिखती हैं कभी-कभी
पूँछ ऊपर नीचे करती आती है श्यामा
दाना-पानी की खोज में
आते हैं सब मेरे आँगन में
दिल्ली का ताप जो सह नही पाते
वो दूर हो जाते हैं दिल्ली से
किसान हो या गौरैया
सब दूर हो रहे हैं यहाँ से
बाज और चील आते हैं अक्सर
उल्लू और चमगादड बैठते है छिपकर
छिपकर आती हैं लडकियाँ भी
अँधेरे में अपने दोस्तों के साथ
और बाडे खाली हैं
किसी पुराने किले की मानिन्द
लुटे हुए खण्डहर सा
पसरा हूँ बस
सब आजाद हैं-आदमी -औरतें -बच्चे
बडे-बूढे सब आजाद हैं
लोग आते हैं यहाँ समय निकालकर
पालतू कुत्ते भी होते है साथ
विरेचन के लिए
नागार्जुन ने इन्हे ही देखकर लिखा होगा
देखो भाई कुत्तों ने भी कुत्ते पाले
सुबह शाम दोपहर मनमाफिक
लगाते हैं चक्कर पगवीथी पर
करते हैं कसरत
बैठते हैं घास पर
खेलते हैं-वालीबाल-बैडमिंटन
गाते हैं भजन
करते हैं योग
बतियाते हैं लोग अपने सुख दुख
बिछी हैं तमाम लोहे की बेंचें
किसी पर सो रहता है
रात भर काम करके थका हुआ मजदूर
क्रिकेट की बाल से टूट जाती है उसकी नींद
जिद्दी बच्चे खेलते हैं क्रिकेट
उडाते हैं पतंग
चलाते हैं साइकल
और मोटर साइकल मेरी पगवीथी पर
लोग नोच ले जाते हैं
मेरे आभूषण पूजा के लिए
कोई उन्हे रोक नही पाता
यही तो प्रजातंत्र हैं
मेरे आँगन का
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मेरी पगवीथी पर बैठकर
जब कोई करता है प्रेमालाप
मैं धन्य हो जाता हूँ
आते हैं कई युवा जोडे
पाठशाला से भागकर आते हैं
कई किशोर अपनी प्रेयसियों के साथ
मेरी इस खुली पाठशाला में
सफेदों के तनों पर
लिख जाते हैं अपना नाम
सफेदे उनके प्रेम के साक्षीबन
मुस्कराते हैं कष्ट सहकर भी
खडे रहते हैं चुपचाप
नमालूम कहाँ कहाँ से आते हैं लोग
यहाँ बना ली है लोगों ने पगडंडियाँ
मेरी छाती पर उगी
हरी रोमावलि को रौंदकर
######
अपने कामकाज के लिए
उग आये हैं फुटपाथिये खोखे
मेरी बाहरी परिधि पर
चाय भी है-पान भी है
बैद भी है जडीबूटी वाला
हजामतवाला फिराता है उस्तरा
और बैठता है वजन की मशीन लेकर एक बूढा
वर्दीवाले को मिलता है हफ्ता
कमायी के हिसाब से
अनियंत्रित ढंग से विकसित होरहा है
लोगों का मोटापा
मेरा पडोस और मैं
सब आजाद हैं
अमलतास
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हरबार के बजट में
आते हैं कुछ नए आभूषण
नए झूले -नए बल्व
पगवीथी की होती है मरम्मत
सजता हूँ दो चार दिन
और फिर सब गायब होने लगता है
आँधियों से जूझकर झुके हुए
कई पेड सुस्ता रहे हैं
उनके ठूँठों पर बच्चे
चढते उतरते हैं
खींचते हैं उनके कान
अपनी नरम हथेलियों से
ये शैतान बच्चे
मानो उडा रहे हों किसी बूढे का मजाक
कई पेड सुस्ता रहे हैं/उनके ठूँठों पर बच्चे/चढते उतरते हैं/
खींचते हैं उनके कान
यह जो पेडों की पत्तियों मे कंपन देखते हो
वह मेरे ही मन की आशंका है
सफेदे गिरते जा रहे हैं
जरा सी हवा में
या गिराये जा रहे हैं जानबूझ कर
ये जडें जमा ही नही पाये
पानी के अभाव में
अब इतना पानी कहाँ से लाऊँ
यहाँ यमुना से दूर
यमुना जो सूख गयी है
दिल्ली की प्यास से
देखो तनिक इन कीकरों को
उलझे हैं अपने आप में
गुथी हैं इनकी शाखाएँ
जैसे अपने ही परिजनों के बीच
झगड रहे हो घर के सदस्य
देखना भर ही तो है मेरी नियति
मेरा क्या है मैं मौन हूँ
बस देखता हूँ
सुनता हूँ सबकी
##########
बच्चों से खेलते हैं अंकल जी
बरसों से देखता हूँ
उन्हे खेलते हुए बच्चों से
हर सुबह आते हैं वो
अंकुरित अनाज भी लाते हैं वो
हर दिन देखता हूँ
उनका खिला हुआ चेहरा
अध्यापक नही हैं वो
शायद इसीलिए आते हैं
तमाम बच्चे उनके पास
खेलते हैं खो-खो
पकडम पकडाई और सीखते हैं
जीवन का पाठ बिना किताब के
इस खुली पाठशाला में
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आते हैं काकबन्धु जी
थैले मे लाते हैं दाने और आँटे की गोलियाँ
कौए उन्हे देखकर आ जाते हैं
                                                                          चित्र:बलराम अग्रवाल
खोजी पत्रकारों की तरह
अपने बाइट के लिए
वो किसी से बतियाते नही
बस अपना काम करते हैं
एक जगह चुन ली है उन्होने
हमेशा के लिए
गिलहरियाँ भी ले जाती हैं अपना भाग
चीटियों के बिलों के पास
वो बिखराते हैं चुटकी भर आँटा
पास की बेंच पर बैठकर
लगाते हैं एक सिगरेट
सुस्ताने के लिए
और फिर चले जाते हैं घर
अपने इस कर्म को धर्म समझकर
लेखक मंडली ने
दिया है उन्हे यह नाम
बाएँ से:भारतेन्दु मिश्र, हरिनारायण, विभांशु दिव्याल, त्रिपाठी जी, राजेन्द्र नागदेव चित्र  बलराम अग्रवाल 
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नंगातलाई का गाँव बिस्कोहर
बिस्कोहर के बिसनाथ जी
आते हैं रोज मेरे इस आँगन में
लगाते हैं चक्कर
भाँजते हैं हाथ पाँव
करते हैं उत्तानपाद आसन
लेखक मंडली के मुखिया हैं वो
कब बिसनाथ से डाँ विश्वनाथ त्रिपाठी
और डाँ विश्वनाथ त्रिपाठी से
बिसनाथ बन जाते हैं
कहना कठिन है
मेरे आँगन में
ऐसे ही होती है जन से अभिजन
और अभिजन से जन के बीच आवाजाही
इस खुली अकादमी के हैं कई सदस्य
हरिनारायण-रमेश-विभांशु-
राजेन्द्रनागदेव-बलराम-राकेशतिवारी
हेमंत और मैं
अशोक गुजराती जुडे हैं
अभी कुछ दिन हुए
कभी आते थे यहाँ नियमित विजय जी-
अरुणप्रकाश-आलोकपुराणिक-
शमशेरआलम-रवीन्द्रपाण्डेय
और वो चौबे जी
जो करवाते थे कविगोष्ठी
पिछले साल चला गया रामलखन
हमेशा के लिए दूर
उसकी चाल का दूसरा
आदमी नही मिला तबसे
###########
बाएँ से:कथाकार शिवमूर्ति, डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी, हरिनारायण जी(संपादक 'कथादेश') 
चित्र:बलराम अग्रवाल



रविवासरीय बैठकी चलती है लम्बी
बतरस लूटते हैं सब अपने ढंग से
झाँकते हैं समस्याओं में अपनी तरंग से
डूबकर नहाते हैं निन्दा के ताल में
सभी मगन रहते हैं लेकिन हर हाल में
अक्सर प्रकट होते हैं-
टालस्टाय-गालिब-निराला
कबीर-तुलसी शेक्सपीयर
 जोश-शमशेर-नागार्जुन
तो कभी उतर आते हैं-कालिदास-बाँणभट्ट
और शूद्रक इस बतकही मे
बिखर जाती है पुनर्नवा घास
पुनर्नवा के साथ जी उठते हैं
आचार्य प्रवर हजारी प्रसाद द्विवेदी
गुरुवर जो ठहरे बिसनाथ के
रामविलासशर्मा-केदारनाथअग्रवाल-त्रिलोचन
सभी प्रकट होते हैं प्रसंगवश
लगता है पान खाये बैठे हैं
पास में नामवर
और पाइप सुलगा रहे हैं
काला चश्मा चढाये राजेन्द्र यादव
बतकही के बीच आते हैं
मित्रों के मित्र भी कभी-कभार
कभीकभार की चर्चा भी होती है
साहित्य की धडकन गुनते हैं रोज
###########
जब कोई लचर लबार
पुरस्कार के पीछे भागता है
तो यहाँ चर्चा होती है
कफन सम्मान की
कि अमुक को दे ही दिया जाये
दबोचकर यह सम्मान
सिर पर फोडकर नारियल
ओढा ही दी जाय सफेद शाल
और दे ही दिया जाय मानपत्र
आत्मा की शांति के लिए
बात होती है
साहित्य के दलालों की
किताबों की और साहित्यिक बवालों की
###########
                                                                                               फोटो:भारतेन्दु मिश्र



जब घास बढ जाती है
तो स्वत: आ जाती हैं
झोली और हँसिया लहराती घसियारनें
मालियों की अनुमति से
काटती हैं वो घास
ये करते हैं श्रम सौन्दर्य पर बातचीत
कटी हुई घास की गंध
सदियों पुराने आदिम गंधवाले
संस्कार से मेल खाती है
बिसनाथ जी सूँघते हैं
घास को-फूल को-पत्ती को और करते हैं
आलिंगन वृक्ष का
लोटते हैं घास पर
उनका धरती के हरेपन से
जुडे रहने का यह क्रम लुभाता है मुझे
मै तो पार्क हूँ
बहसें होती हैं देरतक
दूरतक जाकर फिर लौट आते हैं
सब अपने आप में
अपने आप में रहने का फन
सीख रहे हैं लोग यहाँ
जो नही सीख पाते
वो छटककर चले जाते हैं अपनी राह
कठिन है
साँझे हो रहना विचारों मे
उससे भी ज्यादा कठिन है
साँझी हँसी
हँसना खुद पर तो मानो पहाड तोडने जैसा है
ये हँसते हैं बिन्दास
पीते हैं चाय रस्क के साथ
आलोचना करते हुए
दीन दुनिया की और अपनी
शैतान बच्चों की तरह
सबने बिगाड रखे हैं
मित्रों के नाम
किसी को तेन्दुआ,किसी को हरिया
किसी को बैलराम किसी को नागराज
किसी को लट्ठ किसी को पतझड
किसी को विभासानन्द
बाबू बिसनाथबिस्कोहरी बेंतवाले        चित्र:बलराम अग्रवाल
तो किसी को बाबू बिसनाथबिस्कोहरी बेंतवाले
कहकर हँसते हैं
इनके जीवन के दिन
कुछ ऐसे ही सरसते हैं
##########                             
यहाँ जो कभी नही आये उनके
डुप्लीकेट चुन लिए हैं सबने
एक सज्जन हैं जो कदकाठी से लगते हैं
आलोचक परमानन्द से
रामदरसमिश्र-उदयप्रकाश-मैनेजरपाण्डे
और न जाने कौन कौन से
साहित्यकार प्रकट होते हैं
अपनी चाल-ढाल से
ये दूर से उन्हे देखकर बतियाते हैं
और बतरस में खो जाते हैं
कविता की तरह
मनुष्यों मे भी होता है भावसाम्य
कुछ ऐसी ही लयमें
चलती है यहाँ रसचर्या
परस्पर सहभाव से
बतरस का होता नही कोई छोर
पकाते हैं खयाली पुलाव
आँखें चमक आती हैं ठहाकों में
खुली पाठशाला में
होते हैं सहज व्याख्यान
कैण्टरबरीटेल्स
और हितोपदेश की शैली में
टकराते हैं गाँधी और मार्क्स
आचार्य की संवेदना सजल हो आती है
लाल हो आता है
उनका चेहरा प्रसंगवश
वो सजग हैं
वो सधे हुए हैं
उनकी मुद्रा का अर्थ होता है
##########
विचलित हो जाता हूँ  
नाले में कूदकर
पन्नी और बोतल बीनते बच्चे को देख
नाला जो मेरे आँगन के बीचसे गुजरता है
नाले पर बनी हैं छतें
जिनमें से टूट गयी हैं कई
समय की धार से
कलन्दर कालोनी के बच्चे
उतर जाते हैं इनमें
रोटियों की खोज में
रोटियाँ जो बोतलों की शक्ल में तैरती हैं
नाला गहरा और बदबूदार है
ये खेलते हैं वहीं
लोग समझाते हैं लेकिन वो मानते नही
उनका रोज का काम है
प्लास्टिक बीनना
###########
मेरे आँगन में
आते हैं सीमापुरी के बच्चे
करते हैं करतब
खाते हैं हवाई गोता
लगाते हैं गुलाटियाँ
चलते हैं हाँथों के बल
सीखते हैं मलख्म्भ
अपने सपने को
साकार करना चाहते हैं
किसी शो की प्रतियोगिता में जुटे हैं लगातार
मन मोह लेते हैं
सबका अपने अभ्यास से
इनका कोई उस्ताद नही है
ये बन रहे हैं अपने आप मे उस्ताद
अच्छे लगते हैं मुझे
इनके सपने और इनकी कलाबाजियाँ
प्रतियोगिता में नही चुने जायेंगे
तो भी बहुत काम आयेंगी ये कलाबाजियाँ
कुछ न कुछ कर ही गुजरेंगे जिन्दगी में
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पगवीथी पर टहलते हैं
तमाम आम लोग
जिनके चेहरे सब जानते हैं
सबसे होती है राम-राम
अधेड मोटी औरतें और मर्द
लगाते हैं कई चक्कर
मोटापा घटाने के लिए
आती है एक गर्भिणी
अपने पति के साथ
मेरा हर तिनका रोमांचित होता है
देखकर उनका साहचर्य
वो आठ दस चक्कर लगाने वाली
लडकी अब नही आती
शायद हो गया होगा उसका फिटनेस टेस्ट
घूमती हैं मोटापा घटाने के लिए
दो लडकियाँ हिलमिल
बतियाती हैं अपनी ही धुन में
एक कीकर जैसी साँवली
दूसरी सफेदे जैसी गोरी
ये जान गयी हैं जीरो फिगर का मर्म
वो रस्सी कूदनेवाली लडकी
आती है माँ के साथ
दोनो कूदती हैं रस्सी
उन्हे उछलता हुआ देखते हैं
मनचले लोग
रस्सी के वृत्त में  
उछलते हैं उनके अंग
लहराते हैं दुपट्टे पतंग से
लेकिन उन पर
किसी हवा का असर नही होता
############
मन बतकही में रमता है
थोडी कसरत-थोडा टहलना
और देखना लोगों के आरपार
बस यहीं होता है
खुला है यहाँ आसमान
पुरवा पछुआ
और बसंती का सुख यहीं मिलता है
गुनगुनी धूप सहलाती है जोडों का दर्द
सर्दियों में देरतक बैठते हैं लोग-
धूप के लिहाफ में
रहता है यहीं कहीं
एक नकुल परिवार
अपने किसी दुर्ग में
छोटे बडे मिलाकर हैं कई सदस्य
उछलते हैं धूसर नकुल शिशु
धूप की आँच में
दिल्ली में सन्युक्त परिवार
अब देखने को नही मिलते
###########
गर्मी में जुडाते हैं लोग
थके हुए कामगर सो जाते हैं
मेरी बेंच पर बेरोक टोक
आषाढ आते ही गिलहरी
बनाने लगती है अपना घर
प्रजनन से पहले
वो बिछा ही लेना चाहती है
अपना नरम होलडाल
                                                                                     चित्र:बलराम अग्रवाल
तिनके घास और लत्ते के रेशों को
गोल गोल घुमाकर
वह चढती है उल्टे पाँव
कीकर की फुनगी पर
कौओं से आँख बचा
###########
मेरा रोम रोम भीगता है
बरसात में
भीगने से बचते हैं लोग
उनके लिए हरी छतरियों वाले पेड
खडे है मेरे आगन में
रजस्वला धरती पर बरसता है बादल
तो हरा हो जाता है मेरा मन
माटी की सोंधी महक
भर जाती हैं रोम रोम में
कुलबुलाते हैं तमाम जीव
केचुए-घिनौरी और वीरवधूटियाँ
रेंगने लगते हैं देखते देखते
उग आते हैं केचुओं के घर
नरमायी धरती पर
चमकते हैं एक रूप
योजनाबद्ध ढंग से बनायी गयी
बस्ती की तरह
चीटियाँ चली जाती हैं सुरंग में इन्हीदिनों
बहुत प्राचीन निवासी हैं
वो इस धरती की
उन्हे ऋतु के हिसाब से
धरती पर रहने का हुनर आता है
#########
कातिक आते ही
कुत्ते करने लगते हैं किलोल
बैठना मुश्किल कर देते हैं
लोगों का आसपास
नमालूम कहाँ से आ जाते हैं
ये निगोडे देसी कुत्ते
जब जाडा बढ जाता है
तो पूस की ठंड में
काँप जाता है मेरा मन
ठिठुर जाते हैं फूल
ओस और पाले की रात में
सबको कहाँ मिलती है छत
सबको कहाँ मिलती हैं टोपियाँ
सबको कहाँ मिलते हैं लिहाफ
#############                           लिली
बसंत आता है तो
सुर्ख सुकुमार किसलयों पर
भौंरे बीन बजाते हैं
तितलियाँ नाचती हैं
मधु उतर आता है चारो ओर
फूलों पर मधुमक्खियाँ मँडराती हैं
क्यारियाँ रंग-बिरंगे फूलों से सज जाती हैं
बसंत की घोषणा मे तन जाते हैं
भोंपू जैसे पीले कनेर
मगन हो फूलते हैं सभी
लिली-चमेली-गुडहल
लेकिन जब फूलती है नीम
तो मन मचलने लगता है
कोयल गाती है राग बसंत
बसंता गाता अविराम
गर्मी बढती है तो
जेठ में फूलता है अमलतास
फिर महक उठता है मेरा आँचल
सोनपरी उतर आती है
कानों में सोने के झुमके लटकाये
पाम है लतायें है-सदाबहार है
सब बैठे हैं मेरे आँगन में
क्यारियों में झूमती है लिली
जैसे सुन्दरियाँ डोलती हैं रैम्प पर
मेरे हृदय मे लहराता है सुन्दरवन
बिछा है कालीन हरी घास का
आओ तो सही मेरे पास
#########
ये कवि-लेखक मानते नही
कविता कहानी पर
करते हैं बात अधिकतर
गनीमत है कि यहाँ
अपनी सुनाने का रिवाज नही है
चर्चा में आती है कथादेश
समयांतर और हंस
तद्भव-आलोचना- वागर्थ
वसुधा-अलाव सर्वनाम
आजकलऔर नयाज्ञानोदय
जनसत्ता की होती है चर्चा विशेष
बात होती है रंगमंच की
कारंत-अल्काजी-हबीबतनवीर की
बात चलती है फिल्मों की
फिल्मी गानों की
राजकपूर-दिलीपसाहब
संजीवकुमार और अमिताभ की
नरगिस-मीनाकुमारी वैजंतीमाला
नूतन और रेखा की
नासिरुद्दीन-नानापाटेकर-पंकजकपूर
अनुपमखेर और परेशरावल के अभिनय की
बात होती है गीतकारों
संगीतकारों की हरिप्रसाद चौरसिया
और भीमसेनजोशी की
लता मन्ना डे-मुकेश और रफी की  
इसी बीच
मन की तरंग पर
नागदेव गाते हैं मराठी गीत 
मन मे भर जाती है अभंग की उमंग
बतकही का क्या है जिधर घूम गये
घूम गये
############
बहुत दिनों से नजर नही आया
वह पापडवाला
वो डलिया मे रखकर पान बेचनेवाला
वो बडे मिंयाँ जो सिलते थे कपडे
और पेश करते थे कलाम
वो ललवानी साहब
चटाई लेकर आते थे व्यायाम के लिए
वो मैदानीजी और वो शर्मासाहब
चले गये सब पता नही कहाँ
आता था एक तीतरवाला
पिंजरे में लेकर एक जोडा
चुग्गा चुगाने के लिए
दीमक की खोज में
छोडता था एक एक को बारी-बारी
उसे मालूम था कि
पिंजरे वाले की चाहत
दूसरे को खींच ही लायेगी
उसके सीटी बजाते ही
बाहरवाला लौट आता था उसकी कैद में                     बतकही
 ताहिरपुर का एक बच्चा
लाता था खरगोश थैले मे डालकर
टहलाने के लिए
फुदकते हुए खरगोश को देखकर
मेरे आँगन का अतीत
मेरी आँखों में नाचने लगता है
उडा ले गयी समय की आँधी
खुशबू की तरह बिखर न गये हों कहीं
लेकिन पेडों ने टेप कर लिए है
पंछियों के रुदन और गान
कबूतरों की गुटरगूँ
कौवों की काँय-काँय
कुत्तो का गुर्राना
कोयल की कूक
ट्यूबवेल की हूक
लोगों के सुख और लोगों के दुख
वह सब जो घट चुका है
मैने कर लिया है अंकित हृदय पर
मैं देखता हूँ पत्तियों की आँख से
सुनता हूँ फूलों के कान से
लिखता हूँ फुनगियों की कलम से
धरती पर अमिट लेख
मेरा क्या है
मैं चेतन होकर भी जड हूँ
बडा कठिन होता है
संग होकर भी निस्संग होना
##########
बडे चटोरे हैं ये लिखने पढने वाले
मिठाई का नाम सुनते ही
ये लटपटा जाते हैं
हीरा की बालूशाही-श्याम की लस्सी
नेतराम की जलेबी-
रामआसरे की मलाईगिलौरी
पंछी का पेठा
बृजवासी की रसमलाई
मथुरा का पेडा और नजाने कितनी
मिठाइयों पर होता है विमर्श
सत्तू-लिट्टी-चोखा-पोहा
पनेथी सकपहिता-रसावल
दहीबडे-सतपुतिया-
मछली-बिरियानी-कबाब
शबाब और शराब पर भी होती है बातचीत
स्वाद के आस्वाद पर होता है विमर्श
बतरस में होते हैं विविध रस
चलती है रसचर्या बहुविधि
बातों में घुलमिल जाते हैं षडरस
(तिक्त-मधुर-कटु-अम्ल-काषाय और लवण)
बहुत आत्मीय होती है बातचीत
सुनाते हैं यात्राप्रसंग
बाहर से लौटकर
दिलखोलकर करते हैं समीक्षा
सही और गलत की 
टकराते हैं विचार बार बार
लेकिन फिर चाय और फैन के साथ
हो जाती है सहमति
बीच में लपलपायी जबानवाला
एक सभ्य कुत्ता झाँकता है
उसकी पनियल आँखों में
चमकती है प्रणति
भूख की यह प्रणति देख याद हो आती हैं
राजकपूर की फिल्में
और उनके कुत्ते
ये मुफ्तखोर कुत्ता किसी काम का नही
यह जानकर भी
फेक ही देते हैं एक टुकडा
उसकी तरफ अक्सर
###########
ख्वाब न होते
तो दुनिया बेमानी हो जाती
बात होती है ख्वाबों की
बात बात में होती है कविता
बातचीत ही तो होती है कविता
दुरि बैठि बिराजति बात बनी
घनानंद ऐसे ही नही
बने प्रेम के कवि
बात बनने लगती है
तो होता है रसबोध
नवरसरुचिरा होती है बतकही
दूब हरियाती है यहाँ सर्जना की
हर बेंच कुछ कहना चाहती है
समय की हथेली पर
 रच रहा है कोई अनगिन सौन्दर्यबिम्ब
बात बिराजती है मेरे प्राणों में
बातों की दुनिया बसती है मेरे मन में
बस नही हैं मेरे पास
चिडिया को फुसलाने वाले शब्द
हरेपन की भाषा में जैसा कह पाता हूँ
सुन सकते हो तो सुनो
देखो किस तरह
जलता हूँ-जुडाता हूँ-भीगता हूँ
हरी भरी भाषा में लिखता हूँ
जीवन समग्र
मै केवल पार्क नही हूँ
######                                              पार्क की बेंच

*भारतेन्दु मिश्र (मैने कई बैठको अर्जित अनुभवो को जिया है इस  कविता मे तब यह इस रूप मे बन पडी)


रविवार, 3 अक्टूबर 2010


रंगभाषा से परिचय
 बहुत कठिन होता है रंगमंच पर चढना और रंग की भाषा मे रस की अभिव्यक्ति कराना। स्कूल कालेज और वि.वि. के दिनो मे जिन युवओ मे रंगमंच की रुचि विकसित होती है उनके व्यक्तित्व का अच्छा विकास होता है। वे कभी कभी उन्ही दिनो मे अपना रोल करते करते अपने लिए रोल माडल भी तैयार कर लेते हैं। विद्यार्थी जीवन मे मैने एक बार कविदरबार नाटक में महात्मा सूरदास का अभिनय किया। वह दृश्य इन्द्रसभा का था और उसमे दिवंगत कवियो का कवितापाठ होना था।

    चन्दबरदाई,अमीरखुसरो,कबीर,सूरदास,जायसी,तुलसी,मीराबाई आदि अनेक संतकवियो की प्रस्तुति इस नाटक मे होनी थी।यह नाटक लखनऊ के रिफाहेआम क्लबके हाल मे विधिवत मंच तैयार करके किया गया था। मुझे इसमे सूरदास की भूमिका दी गयी। निर्देशक ने दृश्य को वास्तविकता देने के लिए मुझे निर्देश किया कि मै आँखे बन्द करके सूर का अभिनय करूँ।मेरे लिए वह द्विभूमि मंच था अर्थात स्टेज की सीढियाँ चढकर सूरदास का आसन था। पैर मे खडाँऊ थे,हाथ मे तानपूरा सिरपर सूरदासी कंटोप अपने आपको सूरदास के वेष मे देखकर मै अचम्भित था। मेझे आँखे बन्दकरके उस द्विभूमि मंच पर खडाँऊ पहन कर चलने मे कोई आठ दिन लगे थे। लेकिन मंचन के बाद मे अगले दिन अखबारो मे सूरदास के गायन और अभिनय की तारीफ हुई। अब जब कभी अलबम के उस चित्र को देखता हूँ तो सिहर जाता हूँ। तभी रंगभाषा से मेरा वास्तविक परिचय हुआ था।  

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009



राष्ट्रीय संगोष्ठी:
नाट्यशास्त्रीय मौलिक तत्वो की विकास परम्परा (संगोष्ठी-रपट)

डाँ.हरि सिंह गौर वि.वि.सागर के संस्कृत विभाग द्वारा उक्त विषय पर दि.3-12-09से दि.5-12-09 तक एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया।
(दि.3-12-09)
उद्घाटन सत्र:
दीप प्रज्वलन के बाद भाई संजय द्विवेदी(शोध छात्र) द्वारा प्रस्तुत सुमधुर सरस्वती वन्दना से संगोष्ठी का शुभारम्भ हुआ। सागर वि.वि. संस्कृत विभाग की अध्यक्षा प्रो.कुसुम भूरिया ने विषय की सूक्ष्म प्रस्तावना रखते हुए अभ्यागतो का स्वागत किया। प्रो.के.एन.जोशी अध्यक्ष संस्कृत विभाग विक्रम वि.वि. उज्जैन ने इस अवसर पर नाट्यशास्त्र का परिचय दिया।
राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली के उपकुलपति ,संगोष्ठी के मुख्य अतिथि प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी ने इस अवसर पर बीज भाषण प्रस्तुत किया।विशेष बात यह रही कि प्रो. त्रिपाठी ने अपना वक्तव्य ओवरहेड प्रोजेक्टर तथा लेपटाप की सहायता से प्र्स्तुत किया। प्रो.त्रिपाठी सम्भवत:संस्कृत के पहले विद्वान है जो संस्कृत के क्षेत्र मे अधुनातन विज्ञान और तकनीकि का समुचित उपयोग करते हुए चलते है।इस अवसर पर प्रो.त्रिपाठी ने कहा-“नाट्यशास्त्र ऎसी विलक्षण पुस्तक है जो दुनिया मे अन्यत्र कही नही है।जैसे पाणिनि के समान विलक्षण दूसरा वैयाकरण दुनिया मे नही है।नाट्यशास्त्र और अष्टाध्यायी दोनो प्रयोग के शास्त्र है ,यहाँ हाँल मे बैठकर विवेचना की वस्तु नही है।जो चिंतन को प्रयोग से जोडता है वही मुनि है।अभिनवगुप्त के अनुसार भरत इसी आधार पर मुनि है।...नाट्यशास्त्र की परम्परा भरत से पहले भी हमारे देश मे रही होगी।भरत के अनुसार सात्विक अभिनय एक प्रकारसे परकाया प्रवेश विद्या की सिद्धि है-यथा देहांतरं गच्छन ..इत्यादि। कहा गया है –पश्य देवस्यकाव्यम न ममार न जीर्यते। नाट्यशास्त्र मे लोक है,वेद है और आध्यात्म है। नाट्यशास्त्र मे दर्शक चाक्षुष यज्ञ का प्रतिभागी है,बढई-माली-लुहार आदि सभी प्रतिभागी के रूप मे नाट्य प्रयोग का हिस्सा है।”
सत्र के अध्यक्ष सागर वि.वि के उपकुलपति प्रो.आर.एस.कसाना ने इस अवसर पर इस अध्यक्षीय भाषण मे प्रो.त्रिपाठी के साथ बिताये अपने अंतरंग क्षणो को याद किया तथा अभ्यागतो का इस संगोष्ठी मे स्वागत किया। अन्त मे प्रो.अच्युतानंद दाश के असमय निधन पर शोक व्यक्त करते हुए उद्घाटन सत्र का समापन हुआ।
प्रथम सत्र
इस सत्र मे संगीत गुन्देचा –भोपाल,इला घोष –कटनी,रमाकांत पाण्डेय-जयपुर,सुमनलता श्रीवास्तव-जबलपुर,पूर्ण चन्द्र उपाध्याय-भवानी मंडी आदि ने अपने आलेख प्रस्तुत किये। सत्र की अध्यक्षता डाँ. भारत रत्न भार्गव-दिल्ली ने की। डाँ.भार्गव ने अपने अध्यक्षीय मे सभी आलेखो की समीक्षा प्रस्तुत की। संगीता गुन्देचा का मत्तवारणी,सुमनलता श्रीवास्तव का संगीत ,इलाघोष का अर्थप्रकृति,और रमाकांत पाण्डेय का राधावल्लभ त्रिपाठी की रसदृष्टि विषयक आलेख इस सत्र के विशेष आकर्षण रहे। सत्र का संचालन डाँ.महेश द्विवेदी (सागर)ने किया।
दि.4-12-09
द्वितीय सत्र
इस सत्र मे डाँ.मनसुख के. मौलिया-राजकोट,प्रो.कुसुम भूरिया-सागर,प्रो.ओ.पी.राजपाली-अम्बा,डाँ.पुष्पा झा-जबलपुर,डाँ.एम.एस.चम्पक लाल-बडौदा,गणेशानन्द श्रीवस्तव –जालौन आदि ने अपने आलेख प्रस्तुत किये।इस सत्र मे प्रो.कुसुम भूरिया का-नाट्यशास्त्र मे प्रजातंत्र,मनसुख मौलिया का -नाट्यशास्त्र मे छन्द विवेचन,ओ.पी.राजपाली का- संस्कृत नाटको मे प्रस्तावना,पुष्पा झा का-रासक उपरूपक की लोक धर्मी परम्परा,और चम्पक लाला का-आकाशवचन और जनांतिक विषयक आलेख बहुत चर्चित हुए।सत्र की अध्यक्षता प्रो.प्रभुनाथ द्विवेदी (वाराणसी)ने की और संचालन डाँ.पूर्णचन्द्र उपाध्याय-(भवानी मंडी) ने किया।
तृतीय सत्र
इस सत्र मे डाँ. प्रीति श्रीवास्तव –गुना,डाँ.भारतेन्दु मिश्र-दिल्ली,डाँ.भारत रत्न भार्गव-दिल्ली,डाँ.कमला प्रसाद पाण्डेय-बिलासपुर,ऋषन् भारद्वाज-सागर आदि ने अपने आलेख पढे।इस सत्र मे ,डाँ.भार्गव का-नाट्यशास्त्र की लोकवादी परम्परा,प्रीति श्रीवास्तव का-नाट्यशास्त्र मे स्वास्थ्य विधान,भारतेन्दु मिश्र का-भरत की सौन्दर्य दृष्टि, कमला प्रसाद का-नाट्यशास्त्र मे व्याकरण की विशेष रूप से सराहना की गयी। सत्र की अध्यक्षता प्रो.भागचन्द्र जैन भागेन्दु(-दमोह) ने और संचालन डाँ.शीतंशु त्रिपाठी-(सागर) ने किया।

विक्रमोर्वशीयम की मनोहारी प्रस्तुति (सायं:7 बजे)
प्रसिद्ध रंगनिर्देशक प्रो.कमल वशिष्ठ(ग्वालियर),सह निर्देशक-ब्रजेश रिछरिया के निर्देशन मे कालिदास कृत विक्रमोर्वशीयम नाटक का मंचन सागर वि.वि.के स्वर्णजयंती सभागार मे हुआ।नाटक की अवधि एक घण्टा पचास मिनट रही ।विदूषक -ब्रजेश रिछरिया ने पहले सूत्रधार फिर विदूषक के रूप मे जो समा बाँधा तो नाटक उठता चला गया ।सुन्दर दृश्यबन्धो के साथ शीतांशु त्रिपाठी-पुरुरवा, ब्रजेश रिछरिया –विदूषक,श्वेता केशरवानी-उर्वशी,शमीनाज खान-निपुणिका,स्वाती पाठक-मेनका,धर्मेन्द्र चौबे-आयुष राजेश राय-छत्र धारक आदि का अभिनय विशेष रूप से बहुत सराहा गया।
नेपथ्य मे रवि टाँक का -तबला,आर.के.माणके का -संगीत,संजय द्विवेदी और आस्था त्रिपाठी का गायन,मनीष बोहरे की सज्जा व्यवस्था,संगीत श्रीवास्तव की प्रकाश व्यवस्था,तथा सत्यवती त्रिपाठी की भूमिका संगीत संयोजन मे विशेष उल्लेखनीय रही।
दि.5-12-09
चतुर्थ सत्र (समापन सत्र)
वाराणसी से पधारे प्रो.शिवजी उपाध्याय-अध्यक्ष साहित्य विभाग स.स.वि.वि की अध्यक्षता मे इस सत्र का समापन हुआ। इस अवसर पर डाँ.भारत रत्न भार्गव ने विस्तार से इस संगोष्ठी के महत्व तथा भारतीय रंगमंच के ऎतिहासिक क्रम पर प्रकाश डाला। डाँ.पुष्पा दीक्षित ने नाट्यशास्त्र से जोडकर पुरुषार्थ चतुष्टय की चर्चा की। अंत मे प्रो.कुसुम भूरिया ने सभी अभ्यागतो के प्रति धन्यवाद व्यक्त किया।