रविवार, 3 अक्तूबर 2010


रंगभाषा से परिचय
 बहुत कठिन होता है रंगमंच पर चढना और रंग की भाषा मे रस की अभिव्यक्ति कराना। स्कूल कालेज और वि.वि. के दिनो मे जिन युवओ मे रंगमंच की रुचि विकसित होती है उनके व्यक्तित्व का अच्छा विकास होता है। वे कभी कभी उन्ही दिनो मे अपना रोल करते करते अपने लिए रोल माडल भी तैयार कर लेते हैं। विद्यार्थी जीवन मे मैने एक बार कविदरबार नाटक में महात्मा सूरदास का अभिनय किया। वह दृश्य इन्द्रसभा का था और उसमे दिवंगत कवियो का कवितापाठ होना था।

    चन्दबरदाई,अमीरखुसरो,कबीर,सूरदास,जायसी,तुलसी,मीराबाई आदि अनेक संतकवियो की प्रस्तुति इस नाटक मे होनी थी।यह नाटक लखनऊ के रिफाहेआम क्लबके हाल मे विधिवत मंच तैयार करके किया गया था। मुझे इसमे सूरदास की भूमिका दी गयी। निर्देशक ने दृश्य को वास्तविकता देने के लिए मुझे निर्देश किया कि मै आँखे बन्द करके सूर का अभिनय करूँ।मेरे लिए वह द्विभूमि मंच था अर्थात स्टेज की सीढियाँ चढकर सूरदास का आसन था। पैर मे खडाँऊ थे,हाथ मे तानपूरा सिरपर सूरदासी कंटोप अपने आपको सूरदास के वेष मे देखकर मै अचम्भित था। मेझे आँखे बन्दकरके उस द्विभूमि मंच पर खडाँऊ पहन कर चलने मे कोई आठ दिन लगे थे। लेकिन मंचन के बाद मे अगले दिन अखबारो मे सूरदास के गायन और अभिनय की तारीफ हुई। अब जब कभी अलबम के उस चित्र को देखता हूँ तो सिहर जाता हूँ। तभी रंगभाषा से मेरा वास्तविक परिचय हुआ था।  

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