पुण्य स्मृति को नमन
भारतेंदु मिश्र
मुझे मेरे नाटक 'शास्त्रार्थ' की स्क्रिप्ट के लिए स्वयं फोन करके बधाई देने वाले महान रंगकर्मी और सहज मनुष्य पणिक्कर जी की पुण्यस्मृति को नमन |
आदरणीय प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी जी ने भोपाल में संस्कृत नाट्य महोत्सव का आयोजन किया था| भारत भवन भोपाल में अनेक महान रंगनिर्देशकों को सुनने चीन्हने का अवसर मिला|श्रद्धेय कावालम नारायण पणिक्कर जी से एक ही संवाद और तब एक ही मुलाक़ात हुई थी,उनके द्वारा निर्देशित शाकुंतल भी तभी देखा था|
अति उत्साहवश मैंने उन्हें हिन्दी में प्रकाशित 'शास्त्रार्थ' की प्रति भेंट की तो उन्होंने कहा -'मुझे हिन्दी में पढ़कर समझने में कठिनाई होती है|' दिल्ली लौटकर फिर मैंने उन्हें डॉ.प्रमोद कावलम द्वारा मलयालम भाषा में आनूदित स्क्रिप्ट की प्रति उनके पते पर भेज दी| ये प्रति मुझे आकाशवाणी के सौजन्य से मिली थी| इसके बाद उस बात को भूल गया क्योकि अक्सर बड़े लोग अपनी व्यस्तता में संवाद नही कर पाते| लगभग दो महीने बाद उनका फोन आया|तब मुझे पता लगा कि बड़े लोग सचमुच कैसे कितने बड़े होते हैं|देर तक उन्होंने नाटक के संवादों पर बात की|उसे नयी कथा के रूप में इसे मंचित कराने के लिए भी कहा| किन्तु वह सब संभव न हो सका| ऐसे ही हबीब तनवीर साहब से मिलने के दो तीन अवसर मिले किन्तु इन लोगों में मनुष्यता और इतनी सहजता देखने को मिली जो अन्यत्र दुर्लभ होती है| खासकर हिन्दी के तथाकथित महानों से यदि तुलना करें तो बहुत निराशा होती है| उनकी स्मृति को नमन |
आदरणीय प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी जी ने भोपाल में संस्कृत नाट्य महोत्सव का आयोजन किया था| भारत भवन भोपाल में अनेक महान रंगनिर्देशकों को सुनने चीन्हने का अवसर मिला|श्रद्धेय कावालम नारायण पणिक्कर जी से एक ही संवाद और तब एक ही मुलाक़ात हुई थी,उनके द्वारा निर्देशित शाकुंतल भी तभी देखा था|
अति उत्साहवश मैंने उन्हें हिन्दी में प्रकाशित 'शास्त्रार्थ' की प्रति भेंट की तो उन्होंने कहा -'मुझे हिन्दी में पढ़कर समझने में कठिनाई होती है|' दिल्ली लौटकर फिर मैंने उन्हें डॉ.प्रमोद कावलम द्वारा मलयालम भाषा में आनूदित स्क्रिप्ट की प्रति उनके पते पर भेज दी| ये प्रति मुझे आकाशवाणी के सौजन्य से मिली थी| इसके बाद उस बात को भूल गया क्योकि अक्सर बड़े लोग अपनी व्यस्तता में संवाद नही कर पाते| लगभग दो महीने बाद उनका फोन आया|तब मुझे पता लगा कि बड़े लोग सचमुच कैसे कितने बड़े होते हैं|देर तक उन्होंने नाटक के संवादों पर बात की|उसे नयी कथा के रूप में इसे मंचित कराने के लिए भी कहा| किन्तु वह सब संभव न हो सका| ऐसे ही हबीब तनवीर साहब से मिलने के दो तीन अवसर मिले किन्तु इन लोगों में मनुष्यता और इतनी सहजता देखने को मिली जो अन्यत्र दुर्लभ होती है| खासकर हिन्दी के तथाकथित महानों से यदि तुलना करें तो बहुत निराशा होती है| उनकी स्मृति को नमन |
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