शनिवार, 7 जनवरी 2017




कहानी-
                           गुलाबी रूमाल
# भारतेंदु मिश्र
   
वो आठ नवम्बर की शाम थी| टीवी पर खबर सुनके बैठके में नोटबंदी की खबर पर चर्चा होने लगी| रज्जो जादा पढी लिखी न थी लेकिन,इतना समझ गयी थी कि रात बारह बजे के बाद से हजार और पांच सौ के नोट बाजार में चलने बंद हो जायेंगे| प्रधान मंत्री जी जिस तरह हर चैनल पर हाँथ हिलाकर नोटबंदी की घोषणा करते दिखाई दे रहे थे -लोग हैरत में थे| रज्जो के मन में भी एक डर बैठ गया था| उसको लगा कि शायद कोई उसे ही लूटे ले रहा हो, या कि कोई उसका गला घोटे दे रहा हो और वह रो नहीं पा रही है| टीवी पर खबर सुनके रज्जो बुआ बैठक से भीतर वाले कमरे में आ गयीं | इस मर्माहत करने वाली खबर के बाद आज की अन्य किसी खबर में उसकी कोई दिलचस्पी न थी| लेकिन रज्जो बैठके से ऐसे उठी कि जैसे यह खबर उसके काम की ही नथी| खबर सुनके नरेंद्र ने अपनी पत्नी से कहा -‘सुनती हो,बारदाने के जो बीस हजार रुपये रखे है वो सब बदलने पड़ेंगे...ये एक नई मुसीबत आ गयी..’
‘ हमारा तो ठीक है लेकिन ... भगवानी दादा....,जो हराम कि कमाई आवत है..उनका का होई ?...जो चार साल में गाडी –कोठी सब खरीद लिए हैं |’
‘अरे ,वो सब विधायक जी के आदमी है | उनकी चिंता न करो वो सब नोट बदल लेंगे ..तुम आपन फिकिर करो| ..रज्जो जीजी से पूछ लेव उनके पास ..सायद ..कुछ नोट पड़े हो|’
‘उनके पास कहां?...पिछले महीना कमल को जब डेंगू हुआ रहा तब पूछा रहे  ...दीदी  के पास होता तो निकाल के देती ..वो कमल से बहुत प्यार करती है|’
‘तो ठीक है ,चलो हमको ज्यादा परेशानी नहीं है| अच्छा हुआ कुछ तो नकली नोट बंद होंगे ..’ रज्जो के कान दीवार में चिपक गए थे|उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी|उसका दुःख ऐसा था कि जिसे कोई समझ नही सकता था, समस्या ऐसी कि वो परिवार में किसी से कह भी न सकती थी| तीन साल पहले पति के स्वर्गवासी होने के बाद अपने मायके रुकंदीपुर में हमेशा के लिए आ गयी थी| धन्य है हमारा ग्रामीण और कस्बाई  समाज जो आज भी बहुत कुछ सदियों पुरानी रीति रिवाज से जकड़ा है,और रिश्तो की शर्म अभी बाकी है | नरेंद्र ने बहन रज्जो को घर में रहने का अभयदान दे रखा था| बेवा निपूती रज्जो रुकंदीपुर लौट के ना आती तो आखिर और कहाँ जाती? पति बहुत चाहता था रज्जो को लेकिन विधवा होने के बाद देवर और उसकी पत्नी ने एक महीने में ही रज्जो को बेघर कर दिया| परिवार में जायदात के नाम पर खेती भी न थी| ले दे कर एक परचून की दूकान थी वो अब देवर महेश ही चलाता था| बस वही उस परिवार के भरन पोषण का साधन था| रज्जो ने पति के इलाज के समय अपना धराऊ जेवर बेच दिया था| आदमी  तो नहीं बचा लेकिन इलाज और क्रिया से बचे हुए उसके पास हजार के दस नोट जरूर थे| वो उसने सबसे छिपाकर रखे थे|
रज्जो ने तभी से एक बक्से में अपनी धराऊ पुरानी साड़ियों के बीच में उन नोटों को छिपा रखा था,बक्से में सदा ताला लगाये  रहती, चाभी लाकेट की तरह अपने गले में पहने रहती| ताकि उसके अलावा कोई दूसरा उसे न खोले| भाभी ने एक दो बार पूछा भी कि इस बक्से में ऐसा क्या है ? तो रज्जो ने जवाब दिया था –‘अरे कोई संपदा तो है नहीं कुछ तुम्हारे जीजा के ख़त है| वो ख़ास हमारे लिए लिखे गए हैं |दो साड़ी है- जो वो हमारे लिए बड़े मन से लाये थे|उनकी दो तस्बीर हैं|सुबह नहा धो के हम उनका ध्यान करती है..बस| जेवर सब उनकी बीमारी में बिक गया था..’
लेकिन आज रज्जो को नीद न आयी| जब सब सो गए तो धीरे से रज्जो ने अपना बक्सा खोला रात की मद्धिम रोशनी में गुलाबी साडी के पल्लू के नीचे छिपाकर रखे हुए हजार वाले उन नोटो को आहिस्ता से निकाला फिर इधर उधर देखकर उन्हें दो बार गिना| इसके बाद फिर वही रखने लगी लेकिन मन न माना,कभी लाल और बैंजनी छवि वाले सब नोटों को नजदीक से निहारा फिर चूमा और तीसरी बार गिनकर उसी पल्लू के नीचे छिपाकर रख दिया| ये बात उसने किसी से न बतायी थी| डेंगू होने पर भतीजे कमल के इलाज के वक्त भी उसने नोट नही निकाले हालांकि उसके स्वस्थ होने के लिए माता का व्रत पूजा करने में वो पीछे न थी| समय पर इलाज हो गया तो कमल बच भी गया|लेकिन रज्जो बुआ के नोटों का राज किसी को जाहिर न हो पाया| अपने प्यारे भाई –भौजी और कमल के साथ उसने जो छल किया था वह उसे आज बेचैन किये जा रहा था| उसने उठकर पानी पिया|कुछ बेचैनी कम हुई फिर उसे याद आया ,मरते वक्त पतिदेव ने उसे समझाया था-‘रज्जो ! हम रहै न रहै,इस जमाने में पैसा दबा के रखना आखिर में वही काम आयेगा|’ अब जब पति परमेश्वर चले गए तो उनकी बात का पालन उसने नियम से किया ...इसमे धोखा कैसे..हुआ?| फिर भी आज उसकी हिम्मत डोल गयी थी| ऐसा कुदिन आयेगा उसने सोचा ही न था|अब उसके नोट बेकार हो गए थे|..मुसीबत ये थी कि वो नोट बदले कैसे ? रात भर पति की हिदायत याद करती रही| भाई के निस्वार्थ प्रेम और रिश्ते को लेकर मन ही मन शर्मसार होती रही | कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था| अपने भाई भाभी की नजरो में गिर जाने की आशंका अलग से उसे खाए जा रही थी|अगर कमल की बीमारी में वो ये रुपये भाई को दे ही देती तो ठीक होता,लेकिन अब क्या हो सकता है ?..उस वक्त का झूठ अब उसे छिपाने के लिए क्या बहाना बनाए..सब साफ़ बता देने से भाई, भाभी और बेटे जैसे भतीजे कमल का विश्वास खो जाएगा|..पता नहीं बहन की इस धोखेबाजी को नरेंद्र क्या समझेगा ? समझेगा भी कि नहीं? क्या किया जाए इसी ऊहापोह में वह डूबी थी,तभी उसे बक्से में वो गुलाबी रूमाल नजर आया| ये उसी धराऊ साडी के साथ उसके पति ने दिलवाया था| रज्जो की आखें चमक गयीं |उसने सभी नोट उस रूमाल में बांधे और अपने सीने में ब्लाउज में छिपाकर रख लिए| सुबह होने वाली थी| जल्दी तैयार होकर मंदिर के लिए निकल पडी|
दिमाग में उधेड़बुन चलती रही उसने सोचा कि मंदिर में दान कर दूँ-पति परमेसुर के नाम से,लेकिन भगवान ने हमारी कौन सी सुन ली है- फिर विचार आया कि पंडित जी को देकर नोट बदलवा लिया जाए..लेकिन उसको भी कहानी बतानी पड़ेगी- वो कौन हमारा सगा है,ये बेईमानी कर लेगा तब ?गाँव में सबको हमारे झूठ का पता चल जाएगा..सब हमारे नाम को थूकेंगे| ..अब इस उम्र में लगी झूठ की कालिख कैसे पुछेगी ?...पैसा कोई चोरी का तो है नही ...कालाधन थोड़े है| मंदिर में काली की मूर्ति के सामने वो देर तक देवी की स्तुति करती रही|आखें बंद करते ही सब काला नजर आने लगा| उसने जल्दी से आखें खोल ली| मंदिर का एक चक्कर लगाया|घंटा बजाया ... इस बार फिर उसने ध्यान के लिए आखें बंद की तो भाई भाभी और कमल का चेहरा नजर आने लगा- अब उसने देखा कि भाभी के हाथ में खप्पर है,भाई के हाथ में त्रिशूल है और कमल के हाथ में तलवार है|तीनो उसके गुलाबी रूमाल में बंधे रूपये छीनने को आगे आ रहे है| ..उसने फिर आँख खोली और बुदबुदाने लगी-कालाधन नहीं है ..कालाधन नहीं है..|
पंडित ने पूछ लिया-‘का हुआ रज्जो बुआ?’
कुछ नहीं पंडित जी सब ठीक है| रज्जो ने सोचा चलो बैंक की तरफ देख के आते हैं| वह स्टेशन के पास कस्बे के एक मात्र पंजाब नेशनल बैंक के निकट पहुँच गयी | वहां हजारो की भीड़ लगी थी|पुलिस वाले लाठी भांज रहे थे| उसने औरतो की लाइन के पास जाकर देखा वहां भी लम्बी लाइन थी|तभी लाइन में लगी एक गर्भवती औरत गश खाकर गिरी उसे जोर का लेबरपेन हो रहा था| आसपास की औरतो ने उसे संभाला उसने वही बच्चे को जन्म दिया | थोड़ी देर में उस औरत के घर वाले आ गये थे|रज्जो यह सब देखकर और घबरा गयी| मगर वो अपना काम नहीं कर पायी...रुपये बदलने की उसकी चाहत मन में ही धरी रह गयी| उसने सोचा कि गाँव का कोई देख लेगा तब भी हमारी पोल खुल जायेगी| इतनी भीड़ न होती तो शायद चुपचाप कोशिश कर लेती|
बैंक से वापस घर आयी और रुमाल से सारे नोट निकाले उन्हें गिना फिर उन्हें माथे से लगाकर गुलाबी पल्लू वाली साडी की परत में उसी तरह छिपा दिए| अक्सर हारने के बाद हिम्मत आ जाती है| अब रज्जो के पास कोई विकल्प नहीं था| दूसरे दिन रज्जो ने हिम्मत करके अपनी भाभी से सब सच्चाई बता दी|
‘अरे दीदी,कमल कि बीमारी में भी तुमने....मदत नहीं की..ये मलाल तो हमको जिन्दगी भर रहेगा|..ये तो कहो कि वो माता की कृपा से ठीक हो गया|’
‘भौजी..गलती तो बहुत बड़ी है..लेकिन अब हमारी इज्जत तुम्हारे हाथ में है|..दूसरोँ से जादा हमे भैया औ कमल कि चिंता है|..उनकी नजरो में हमें न गिराना हाथ जोड़ के बस यही बिनती है| तुम जो चाहो हमको सजा दे दो|’ इसके बाद रज्जो अपना मुह पीटने लगी|
‘अरे रुको दीदी,..अब बस करो ..हम मान भी जाए तो ये कैसे होगा दीदी! या तो इज्जत जायेगी या फिर पैसा हाथ से..’
‘....काहे भौजी?
‘अरे हम अपना पैसा बताएँगे तो तुम्हारे भैया नोट बदल के अपने धंधे में लगा लेंगे| बदलने जाओगी तब राज खुल जाएगा | नहीं बताएँगे तो ये नोट कूड़ा हो जायेंगें..|’    
‘तो अब क्या किया जाए ?.. तुम्ही बताओ ?’
‘दीदी! अगर पैसा औ इज्जत दोनों बचाना है तो एक रास्ता है..अगर आप तैयार हो..मगर ..उसमे खर्चा है |’
‘बताओ..कोई तो रास्ता बताओ ?..’
‘अरे अपने गाँव का मंगलुआ,दस के आठ दे रहा है..आठ हजार चाहिए तो बताओ. ?’
‘ठीक है भौजी!..,नासपीटे को दो हजार दे देंगे|यही सही रहेगा..दो हजार का नुक्सान होगा ..मगर बात छिपी रहेगी ... इज्जत बची रहेगी |...ये लो चाभी बक्सा खोलो |’
भौजी चकित होकर रज्जो को देखती रही फिर चाभी लेकर उस बक्से की ओर  बढ़ी  जिसका रहस्य जानने की उत्सुकता उसके मन में तीन साल से बनी हुई थी| वह बक्सा खोलने के लिए उसने लपक कर चाभी पकड़ ली थी |रज्जो ने कहा-‘गुलाबी साड़ी के पल्लू में देखो दस नोट मिलेंगे|’
नोट गिनते हुए भौजी ने कहा-‘ हाँ दीदी! पूरे दस हैं...ये साड़ी भी बहुत सुंदर है दीदी!..लेकिन..’
‘लेकिन अब हमारे काम कि नहीं रही ..गुलाबी रंग वाले चार नोट मंगलुआ से ले आना ..बस ध्यान रखना ये बात हमारे तुम्हारे बीच रहे|..साड़ी तुम्हारा इनाम है ..रख लो| हमने एक ही दफा पहनी है ..’
रज्जो ने गुलाबी रूमाल से अपनी भरी हुई आँखे पोछ लीं|
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