शुक्रवार, 16 जून 2017

                      भारतीय कला एवं राष्ट्रीयता
                     (व्याख्यान/दिनांक -16/6/2017)
                            #भारतेंदु मिश्र :

कला चेतना का संबंध हमारी सभ्यता के उद्गम से ही जुडा हुआ है| इसमें स्त्री और पुरुष की सामान रूप से भागीदारी की कल्पना की गयी है| कलाएं हमारी संस्कृति का अंग हैं-जिसमें आदिदेव महादेव की कल्पना की गयी है वह कश्मीर से कन्याकुमारी तक और पूरब से सुदूर पश्चिमी तट तक फ़ैली हुई है|ये शिवालय,जो कि हर एक गाँव –कस्बा या कि शहर में पाए जाते हैं ये हमारी भारतीय कलाओं की चेतना का मूल प्रतीक चिन्ह है|इन शिवालयो में  वास्तु है, मूर्ति है, चित्र है,संगीत और नृत्य है|ये शिवालय ही शिव आराधन की परंपरा में हमारी कलाओं के आदि केंद्र के रूप में विक्सित हुए| कालिदास की चेतना में शिव और पार्वती-‘वागार्थ इव संपृक्तौ’ –अर्थात वाणी और अर्थ के सामान जुड़े हुए हैं| वही तो अर्धनारीश्वर हैं जिनकी कल्पना दुनिया की किसी अन्य सभ्यता में शायद ही की गयी हो | यहाँ स्त्री और पुरुष मिलकर सामान भागीदारी से नई मनुष्यता का ही सृजन नहीं करते बल्कि अपने जीवन निर्वाह के साथ ही नवोन्मेषशालिनी कलाओं का भी सृजन करते है|जब शिव तांडव करते है तब पार्वती लास्य करती हैं|-
नृत्यावसाने नटराज राजा ननाद ढक्कां नवपंचाबारं
उद्धर्तुकामा सनाकादिसिद्धे:एतद्विमर्शे शिवसूत्र जालम|
अर्थात जब शिव का तांडव नृत्य हुआ तो शिव के डमरू का स्वर ब्रम्हांड के चौदहों भुवनो में व्याप्त हुआ और उसी परिवर्तन के क्षण में 14 माहेश्वर सूत्र निकले जिन्हें लेकर पाणिनि ने ‘अष्टाध्यायी’ जैसे व्याकरण के ग्रन्थ की रचना की,जो कालान्तर में  व्याकरण भाषा और काव्य नाट्य आदि कलाओं का उद्गम बने| इसी प्रकार जब देवी पार्वती का लास्य हुआ तो सरगम निकले जिससे संगीत और नृत्य जैसी कलाओं की चेतना विकसित हुई|ऐसा हमारे पारंपरिक चिंतको का मानना है| परा वैदिक युग में कलाओं और कलाकारों को पूर्ण स्वतंत्रता थी ,कालान्तर में बौद्ध दर्शन के प्रभाव स्वरूप मूर्तिकला,वास्तुकला और चित्र कला –स्वास्तिक,शंख,मंगल कलश आदि के रूप में जहां विक्सित हुई, वहीं संगीत,नृत्य,नाटक आदि का ह्रास हुआ|संगीत ,नृत्य, नाटक आदि का विकास विक्रमादित्य और कालिदास के समय से पुन: आरम्भ हुआ|भारतीय कला चेतना वस्तुत: प्रकृति रूपा है|सूर्य निकलता है तो उसकी रश्मियों से इन्द्रधनुष निर्मित हो जाता है|आदिम काल से ऐसा ही होता आ रहा है|उस इन्द्रधनुष की लय-लोच और रंगों के अनुपात का संयोजन प्रकृति ही करती है|पुरुष और प्रकृति दो ही तो मूल तत्व हैं-इस धरती के|वे ही तो आदि कारण है –इस सृष्टि के| समुद्र का अनहद राग,पर्वतो से फिसलकर निकलने वाली नदियों की कलकल ध्वनि ,स्त्री पुरुषो के नाना रूपाकार उनके विविध आचार व्यवहार आदि सब मूलत: प्रकृति का ही पर्याय है|यह सब



समानांतर सृजन सूक्षम पुरुष और मूल प्रकृति के आनंद का हेतु है| वह आनंद ही भारतीय कला चेतना का उत्स है| वही जो सत्य के रूप में प्रतिष्ठित है ,वही जो शिव है -वही जो सुन्दर है| हम सबका जीवन सौन्दर्य की यात्रा भर है|इस जीवन यात्रा में कौन किस पद्धति से जाता है ,किस माध्यम को चुनता है,कितना समय लगाता है,किस दिशा में जाता है, यह कलाओ के रूपाकारो और कलाकारों की रुचियों पर निर्भर करता है| कला का उद्देश्य ही आनंद प्रदान करना है-‘कम लाति या सा कला’ कला शब्द की निरुक्ति से हमे अर्थ प्राप्त होता है कि-‘जो आनंद प्रदान करे वही कला है’| आनंद या आत्मिक सुख का ही एक स्वरूप है किन्तु कला चेतना के आधार पर सहृदयो ने काव्यकला  के आनंद को काव्यानंद कहा और संगीत और नृत्य के आनंद को नादानंद कहा| तुलनात्मक सौन्दर्य दर्शन की बात करें तो कला समीक्षकों ने – संगीत और नृत्य के लिए -नाद ब्रम्ह,काव्य और अभिनय के लिए-रस ब्रम्ह ,स्थापत्य  वास्तु आदि के लिए -वास्तु ब्रम्ह जैसी कल्पना की है|अर्थात विभिन्न कलाओं के प्रयोजन को ब्रम्हानंद से जोड़ा गया है|यह अनिर्वचनीय आनंद ही हम कलाओं से गृहण करते हैं|ये कलाए ही हमारे जीवन की अभिरुचियो को संस्कारित भी करती है| ये रस तो ब्रम्हानंद सहोदर है| अग्निपुराण में कहा गया-‘रसो वै स:’ अर्थात वो रस ही ब्रम्ह  है|इसीलिए हमारी प्राचीन शिक्षा को इस आनंद के मार्ग से जोड़ा गया है|कलाए मनुष्य को संस्कारित करती है|कुछ तो ललित कलाए है जैसे –अभिनय,काव्य,संगीत,नृत्य,वास्तु,चित्र और मूर्तिकला|दूसरी  अन्य उपयोगी कलाए-और शिल्प जैसे –काष्ठ शिल्प,लौह शिल्प,माली,मुकुटकार ,स्वर्णकार,वस्त्रकार ,कारूक (रथ बनाने वाले)आदि|सहस्रों वर्षो से ये कलाएं हमारे बृहत्तर भारतीय समाज में व्यवसाय के रूप में व्याप्त रही हैं|जन रूचि के आधार पर उनके रूप और उपयोगिता में बदलाव आता रहा | परन्तु ललित कलाए राज्याश्रय के कारण अपने मूल स्वरूप के निकट ही रहीं| इतिहास में अनेक ऐसे अवसर आये जब कलाओं को राजसत्ता से उपेक्षा और तिरस्कार भी मिला |लेकिन कलाकारों ने सत्ता की उपेक्षा के कारण कष्ट सह कर भी अपनी जीवन शैली नहीं बदली|दूसरी ओर राज्याश्रय स्वीकार करने वाले -कवि ,वास्तुकार,रंगकर्मी/नृत्यांगना ,चित्रकार, संगीतकार आदि के बारे में हम जानते है कि इन कलाकारों की उपस्थिति ज्यादातर  राजाओं /सामंतो और नवाबो के यहाँ हमें इतिहास में देखने को मिलती है|उन पर सत्ता का अंकुश भी रहा|भारत में जब कभी शासन की निरंकुशता का वातावरण समाज में बना तो –काव्य,नाट्य,संगीत,वास्तु,मूर्ति,चित्र स्थापत्य जैसी  कलाओं को एक समय में मंदिरों और शिवालयों मे स्थान मिला |दूसरी ओर स्तूपों ,गिरिजाघरो, मस्जिदों और मकबरों जैसी जगहों में संगीत के अलावा वास्तु,स्थापत्य,चित्र जैसी कलाओं को स्थान मिला|इसके अलावा हमारे समाज में उपयोगी कलाओं और शिल्पों को जनता ने अपनी जीवनचर्या का हिस्सा बना लिया, इस कारण ये कलाएं लोक व्यापी हुई और कलाकार की जातियों में बदलती चली गयीं|अर्थात किसी कला व्यवसाय को लगातार अपनाने के कारण ही बढ़ई,लुहार,सुनार,जुलाहा,कुम्हार जैसी जातियां बनती चली गयी|आज भी हम अपने भारतीय समाज में इन विभिन्न कलाकारों की जातियों को देख रहे हैं लेकिन आज उनकी स्थिति पहले से भिन्न है|आज कई स्तरों पर ये कलाकारों की जातियां समाज की मुख्यधारा से कट गयीं हैं और पिछड़ गयीं हैं |हमें इनके जातीय कौशल को पहचानकर इन्हें अपनी कलात्मकता को जीवित रखने के समुचित अवसर प्रदान करने होंगे| हमारा देश ललित कला और उपयोगी कला दोनों कला रूपों से संपन्न रहा है| ‘नाट्यशास्त्र,मानसारवास्तुशास्त्र तथा शुक्रनीतिशास्त्र’  जैसे ग्रंथों में प्राचीन कलाओं की लम्बी सूची दी गयी है|जिनके भेदोपभेद मिलाकर कलाओं की संख्या सहस्रों में पहुँच जाती है|प्राचीन काल में कला को पुरुषार्थ का साधन भी माना गया अर्थात कला साधना द्वारा-धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष जैसे पुरुषार्थ को भी अर्जित किया जा सकता है| यद्यपि चाणक्य जैसे चिन्तक की राय इससे भिन्न है|उधर यूनानी विचारक प्लेटो ने भी कला को भ्रम ही माना है| हमारे प्राचीन विचारको ने कभी भोगवाद को बढाने वाली कलाओं को कला नहीं माना|उनकी मान्यता थी कि वही कला श्रेष्ठ है जिसके माध्यम से आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है –
विश्रान्तिर्यस्या संभोगे सा कला न कला मता
लीयते परमानंदे ययात्मा सा परा कला|
कालिदास अपने नाटक मालविकाग्निमित्रम (1/4 ) में नाटक को चाक्षुषक्रतु कहते हैं|  
नाटक प्रेक्षकवर्ग को आह्लादित करनेवाला मनोरम अनुसंधान है| यह जातिभेद ,वर्गभेद, वयोभेद,लिंगभेद  आदि नैसर्गिक एवं सामाजिक विभेदों से निरपेक्षभिन्न रुचि की जनता का सामान्य रूप से समाराधन करनेवाला एक कांत, 'चाक्षुषक्रतुहै।क्योकि नाटक समस्त कलाओं के समावेश और समायोजन से ही खेला जाता है|इसी लिए ‘नाट्यशास्त्र’ को समस्त कलाओं का कोश और पंचम वेद कहा गया है|सभी कलाओं में रस की चेतना ही आनंद का मूल है|
जहां तक हमारी राष्ट्रीयता का प्रश्न है तो हमारे वैदिक ऋषियों ने हमे केवल भारत के भूभाग ही नहीं वरन पूरे विश्व की नागरिकता दी है| पृथ्वी सूक्त का ऋषि कहता है-‘माता भूमि: पुत्रोडहम पृथिव्या:’ अर्थात ये समस्त धरती हमारी है और हम इसके पुत्र हैं| स्वतंत्रता के बाद देश का भूगोल बदला है,इतिहास  नहीं,आजादी के बाद से राष्ट्रीयता का प्रश्न जोर शोर से उठाया जाने लगा| बाद में हमारी राष्ट्रीयता का निर्धारण –भूभाग ,जनता और संस्कृति से किया जाने लगा | इस देश विभाजन के बावजूद हमारी सनातन संस्कृति अविच्छिन्न रही| भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रखने वाले जो 6 प्रमुख कारक हैं वे क्रमश:-धर्म,दर्शन,इतिहास,कला,ज्योतिष और साहित्य हैं| धर्म का अर्थ-सनातन धर्म जिसमे किसी पंथ की बात नहीं की गयी --धृति;क्षमा दमो अस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रह:
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं |
दर्शन का अर्थ-आस्तिक और नास्तिक भारतीय दर्शन परंपरा जिसमे-चार्वाक,जैन,बौद्ध,को नास्तिक माना गया जबकि-योग,सांख्य,न्याय,वैशेषिक,वेदान्त आदि को आस्तिक दर्शन माना गया|वेदान्त और सांख्य दर्शन की ही एक विकसित परंपरा में कश्मीर के दार्शनिको ने कश्मीर शैव दर्शन की परंपरा को विक्सित किया जिसे दसवी शताब्दी में आचार्य अभिनवगुप्तपाद ने भारतीय सौन्दर्य चेतना और स्वतन्त्रकालाशास्त्र के रूप में विक्सित किया| गत वर्ष ही हमने  आचार्य अभिनवगुप्त की जन्म सहस्राब्दी भी मनायी है| किसी समूह या समाज की दार्शनिक पृष्ठ भूमि कोई भी हो मतभेदों के बावजूद हम सह अस्तित्व में ही विश्वास करते हैं|
इतिहास का अर्थ है-रामायण,महाभारत,पुराण आदि|
ज्योतिष का अर्थ है-गणित,मौसम विज्ञान,पंचांग आदि|
साहित्य में –कालिदास आदि से लेकर आज तक जो कुछ उल्लेखनीय लिखा पढ़ा गया|
अत: जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते हैं तो हमें संस्कृति के इन सभी आयामों पर विचार करना होता है|अर्थात हमारी कलाए हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग हैं| आज भी ये कलाकार ही संपूर्ण जातीयता के साथ हमारी राष्ट्रीयता में शामिल हैं और ये कलाए ही हमारी राष्ट्रीय चेतना का मुख भी हैं|वो संगीत के क्षेत्र में मोहिउद्दीन डागर,बड़े गुलाम अली खा,भीमसेन जोशी,हरिप्रसाद चौरसिया,गिरिजादेवी,भूपेन हजारिका, लतामंगेशकर जी या लोक गायन में तीजनबाई  और आदरणीया मालिनी जी ही क्यों न हो-सभी कलाकार मानवीय सुख की व्याख्या करते आये हैं| चित्रकला और पेंटिंग के क्षेत्र में देखते हैं तो टैगोर बंधुओ के अलावा अमृता शेरगिल,राजा रविवर्मा,जतिन दास,शुभा मुद्गल जैसे अनेक नाम उल्लेखनीय है|वास्तु के क्षेत्र में बात करें तो हम ताजमहल की सुन्दरता को अपनी राष्ट्रीय चेतना से जोड़े बिना कैसे रह सकते हैं|दक्षिण के मंदिरों का वास्तु हमारी राष्ट्रीय चेतना का ही प्रतीक है|आज हम जिस दिल्ली में बैठे हैं उसमें  हर्बर्ट बेकर जैसे वास्तुकार की भावना निर्माण कला को कैसे भूल सकते है जिसने संसद भवन,राष्ट्रपति भवन जैसे भवन हमारे लिए निर्मित किये|मूर्तिकला के क्षेत्र मे अजन्ता एलोरा की गुफाओं की कृतियों से लेकर खजुराहो आदि की मूर्तियों के सौन्दर्य और उनके राष्ट्रीय महत्त्व को कैसे विस्मृत कर सकते हैं| कर्नाटक के जनकाचार्य जैसे अमर शिल्पी की कथा आज दक्षिण में किंवदंती के रूप में प्रचलित है|इसी सन्दर्भ में रामकिंकर वैज ,देवीप्रसाद राय चौधरी, शंखो चौधरी,धनराज भगत,मीरा मुखर्जी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं| उड़ीसा के सुदर्शन पटनायक जिन्होंने समुद्र की रेत को अपना माध्यम बनाया|उनकी राष्ट्रीय चेतना पर प्रश्नचिन्ह कौन लगा सकता है| इसी प्रकार नृत्य के क्षेत्र में मल्लिका साराभाई,प.बिरजू महाराज,शोभना नारायण,उदयशंकर जी,सोनल मानसिंह आदि का नाम उल्लेखनीय है|इनके जैसे विभिन्न  कलाकार अन्यान्य कला क्षेत्रो में काम करते हुए हमारी राष्ट्रीयता के गौरव को ही नहीं अपितु  भारतीय कला वैभव को विश्वव्यापी बना कर हमारी सामासिकता को समृद्ध करने में लगे हैं|ये सभी कलाकार किसी एक जाति या पंथ के लिए काम नहीं करते वरन इनका लक्ष्य अकुंठ भाव से संपूर्ण मानवता को आह्लादित करना है|इनकी राष्ट्रीयता समग्र मानवता को समर्पित है|इनका लक्ष्य-संगच्छध्वं संवदध्वं संवोमनांसि जानताम- है| सत्ता की भाषा और विपक्ष की भाषा से ऊपर उठकर ये कलाकार संवेदनाओं की भाषा जानते है|सच्चा कलाकार समावेशी होता है,वह अपनी साधना को एकांगी नहीं रख सकता| इसके अलावा जो एक पक्ष या एक विचार लेकर चलते हैं,उनकी कुंठित मानसिकता से उपजी रचनाओं या कलाकृतियों का न तो समाज हित में कोई उपयोग होता है न राष्ट्र हित में|सच्चे साधक कलाकार समष्टि की संवेदनाओं की चिंता करते हैं, वैचारिक स्तर पर वैश्विक होते है| मुझे लगता है इन कलाओं का स्वरूप पहले से ही अंतर्राष्ट्रीय है इनमे राष्ट्रीयता खोजना इन्हें संकुचित करना होगा|शिव का अर्थ है कल्याण की भावना भारतीय कलाकार सत्यं शिवं सुन्दरम का लक्ष्य लेकर जीवन और जगत की अनंत यात्रा पर निकलता है| यश,अर्थ और परमार्थ के साथ ही ये कलाकार अपने कलाकर्म से भारतीय राष्ट्रीय गौरव को सदैव बढाते रहे हैं|आधुनिक समावेशी जीवन शैली के कारण अब तकनीकि के रथ पर सवार होकर हमारी कलाए विश्व भ्रमण कर रही हैं| आज हमारे समाज में पारंपरिक लोक कलाओं का महत्व बढ़ा है| रंगोली हो या फुलकारी कला सब हमारे जीवन का अंग बन गयी हैं- डा.वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार-“‘कांगड़ा के लोटे,बुंदेलखंड के चम्मू,गुजरात के रामणदीप,घरेलू झूले,पूजा के पंचपात्र,बिच्छू,मछली,सिह,आदि आकृतियों के ताले,नर नारी मिलन के आकार वाले सरौते,पंजाब की फुलकारी,कच्छ के वस्त्रो पर कांच के चांदो की टंकाई,चंदेरी साड़ियो के दिपदिपाते झलाबोर के चौड़े पल्ले ,गुजराती पटोले,राजस्थानी बांधनू,बंगाल के बलूचर की रेशमी साड़ियाँ –इस प्रकार की अनगिनत वस्तुए युग युग से कला क्षेत्र में विक्सित होकर मानवीय जीवन को सुन्दरता प्रदान करती रही हैं|” (पृष्ठ-228- कला और संस्कृति ) आज के कलाकारों को उनकी कला का समुचित मूल्य मिले ऐसी व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए| जैसे जैसे हमारे कलाकारों का विकास होगा हमारी राष्ट्रीयता और हमारी संस्कृति दुनिया में आगे बढ़ती रहेगी| हालांकि कुछ प्रगतिशील कलाकारों को अपने कौशल का उचित यश और मूल्य भी मिल रहा है|फिर भी अभी बहुत से साधक यथोचित अवसरों से वंचित हैं| कलाओं के विकास से ही हमारे देश की समावेशी जीवन शैली का विकास संभव है| अंतत: हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि हम अपने कलाकारों को सम्मान सहित कला साधना के अवसर प्रदान करें|जहां आवश्यक हो उन्हें अपेक्षित संरक्षण भी दें, क्योकि हमारी कलाएं हमारी राष्ट्रीयता की पहचान हैं| आपने हमें अपने विचार रखने के लिए यहाँ आमंत्रित किया इसके लिए'इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र' एवं 'शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास' का  बहुत आभार|
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