पुस्तक चर्चा:
भारतीय सौन्दर्य दर्शन की चर्चा हमारे विद्वत समाज में बहुत समय से की जा रही है| भरत मुनि का ग्रन्थ ‘नाट्यशास्त्र’ भारतीय सौन्दर्य चेतना का आकर ग्रन्थ है| इस दिशा में संस्कृत नाट्य के अतिरिक्त भरतकालीन कलाओं की चर्चा भी अक्सर की जाती है|आदरणीय कमलेश दत्त त्रिपाठी और राधावल्लभ त्रिपाठी जैसे नाट्यशास्त्र के बड़े विद्वानों ने भरत मुनि के अवदान को बहुविध परिभाषित और व्याख्यायित भी किया है| लेखक को इन विद्वानों का स्नेह भी मिला| इसी भारतीय सौन्दर्य चेतना को आगे बढाते हुए गत दिनों भारतेंदु मिश्र की पुस्तक ‘भरतकालीन कलाएं ’ का प्रकाशन संगीत नाटक अकादमी ,नई दिल्ली से हुआ है| हालांकि भारतेंदु जी की साहित्य की अनेक विधाओं में दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, परन्तु इस पुस्तक की बात और है| इस पुस्तक की रचना के समय लेखक को प्रख्यात रंग निदेशक-स्व.हबीब तनवीर और पणिक्कर साहब जैसे विद्वानों का भी आशीर्वाद मिला|इस पुस्तक में भरत मुनि की रचना ‘नाट्यशास्त्र’ को लेखक ने समस्त भारतीय कलाओं का उद्गम माना है| प्रस्तुत है इसी पुस्तक पर केन्द्रित भारतेंदु मिश्र जी से बातचीत-
भरतकालीन कलाएं : भारतेंदु मिश्र
रश्मिशील- भारतीय सौन्दर्य दर्शन को आप किस रूप में चिन्हित करते हैं?
भारतेंदु मिश्र- रश्मिशील जी, ये बहुत व्यापक प्रश्न है और इसकी अवधारणा हमें वैदिक वांग्मय से नैसर्गिक रूप में मिलती है जहां ऋग्वेद में संवाद हैं और सामवेद में संगीत है | हालांकि भारतीय सौन्दर्य चेतना ईसा पूर्व चौथी सदी के लगभग से हमारे समाज में व्याप्त रही है,इसके प्रमाण मिलते हैं| इसी समय में नाट्यशास्त्र जैसे आकर ग्रन्थ की रचना हुई होगी| भरत की दृष्टि मूलत: लोकवादी है,उसमें स्त्री सहित दलित आदि सभी प्रकार के आम जन का सामान रूप से स्वागत है| वह आदिदेव शिव और पार्वती के नृत्य से उत्पन्न हुआ है| शिव आदि देव हैं और उनके दरबार में सुर असुर सभी का सामान रूप से स्थान है| वहां ब्राह्मणवाद या मनुवाद की धर्मशास्त्रीय अवधारणाओं का वैसा अनुप्रयोग नहीं किया गया है| रस की अवधारणा मानवीय मनोविज्ञान से जुडी है न कि धार्मिक और नैतिक आचरण आदि से| इस लिए भारतीय सौन्दर्य की अवधारणा रस मूला है| आनंद ही उसका अंतिम प्रयोजन है| नाट्यशास्त्र में आनंद की जो लोकवादी सौन्दर्य चेतना दिखाई देती है वह कदाचित विश्व साहित्य में अन्यत्र नहीं है| यूनानी सभ्यता में भी भारतीय रस की अवधारणा जैसा उपादान नहीं है| इसलिए भारतीय सौन्दर्य दर्शन सदियों से लेकर आज तक नैसर्गिक लोकरंजन से जुडी हमारी कलाओं में व्याप्त है|
रश्मिशील- अर्थात हमारी समकालीन लोककलाओं में जो सौन्दर्य चेतना है वह प्राचीन भारतीय परंपरा से जुडी है?
भारतेंदु मिश्र- जी यही तो मैं कह रहा हूँ| समय के प्रवाह में उनके रूपाकारों में परिवर्तन आये हैं| तकनीकि में ,माध्यम में ,स्थान आदि में परिवर्तन आया है लेकिन आधार तो बहरहाल वही है|
रश्मिशील- अभिनय,नृत्य,संगीत आदि में तो बहुत परिवर्तन हो गया है?
भारतेंदु मिश्र- जी, एक दृष्टि से आप कह सकती हैं कि बहुत परिवर्तन हुआ है किन्तु आज भी रंगमंच के आधार भूत सिद्धांत तो वही हैं| नृत्य के शास्त्रीय और उपशास्त्रीय तरीके भरतमुनि के अनुसार ही चलते हैं| ध्रुवागान आदि में तो कोई परिवर्तन नहीं हुआ| रंगमंड़प का विधान सूत्रधार आदि का प्रयोग तो वैसा ही होता है| प्रेक्षागारों का रूप भी बहुत हद तक वैसा ही है जैसा भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में समझाया है| उस समय भी ‘तौरिप’ होता था जिसे संगीत निर्देशक के रूप में समझा जा सकता है| अभिनेताओं के अलावा आभरणकार ,मुकुटकार,वेषकार,मालाकार,रंगरे ज,कारूक (काष्ठ्शिल्पी) आदि होते थे आज भी ये सब प्रकार के कलाकार नाटक खेलने के समय जुटते हैं| न वीणा में परिवर्तन हुआ न वंशी में बदलाव हुआ, न सात स्वरों में बदलाव हुआ,न मृदंगम में परिवर्तन हुआ,न पखावज में | अब टीवी देखने वाले लोगों को नहीं समझ में आयेगा किन्तु कलाओं की साधना करने वाले आपके देश में आज भी भरतमुनि के द्वारा सुझाए गए सिद्धांतों और कला व्यापारों का उपयोग जाने अनजाने करते हैं|
रश्मिशील- क्या प्राचीन नाटकों में स्त्रियों का अभिनय स्त्रियाँ ही करती थीं?
भारतेंदु मिश्र- जी बिलकुल स्त्रियाँ ही नाटकों में अपना पात्र निभाती थीं| बल्कि कुछ नाटक के रूप तो केवल स्त्रियों के द्वारा ही अभिनीत किये जाते थे| लगभग १२०० वर्ष पहले हमारे समाज में मंदिर नहीं थे ,केवल शिवालय थे जिनमें आज जैसे देवी देवताओं की मूर्तियाँ नहीं थीं| किन्तु अधिकाँश राज्यों नगरों में रंगशालाएं होने के प्रमाण मिलते हैं| स्थानीय समाजों में रंगमंडली होती थी|केरल में कोडियाट्टम ,दक्षिण में भरतनाट्यम,कथकली आदि की जीवंत परंपरा में आप आज भी देख सकती हैं| भरतमुनि के रंगमंच पर स्त्रियों के लिए कोई स्थान वर्जित क्षेत्र नहीं है| ये मध्यकाल में आक्रान्ताओं के आक्रमण के बाद विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के टकराव में स्त्री अस्मिता को और निम्न जातियों को मनुवाद की मार झेलनी पड़ी|
रश्मिशील- आप मानते हैं कि ‘नाट्यशास्त्र’ पर मनुवाद का प्रभाव नहीं है?
भारतेंदु मिश्र- जी बिलकुल नहीं है , भरतमुनि के बहुत बाद मध्यकाल में मनुस्मृति की रचना हुई,और धर्मशास्त्र के जातीय व्यवस्था वाले अधिकतर नियम भी दसवीं सदी के आसपास लागू हुए| भरतमुनि का समय उनसे बहुत पहले का है| इसी मध्यकाल में हमारी कलाओंपर धार्मिकता का आवरण चढ़ा |धर्म के नाम पर देवदासी जैसी प्रथा को कुप्रथा के रूप में विक्सित किया गया स्त्रियों और दलित जनों पर धर्म-पाखण्ड और पुरोहितवाद के चलते राजाओं ने अत्याचार किये जाने लगे|इसी एक हजार वर्ष के समय में हमारी लोकवादी संस्कृति छिन्न हुई| कालान्तर में हमारी कलाओं पर भी कहीं न कहीं पुरोहितवाद का प्रभाव पड़ा| कलाओं को धार्मिक-नैतिक मूल्यों का संवाहक समझा जाने लगा| निर्गुनिया,सूफी,संतों आदि ने काव्य और संगीत जैसी कलाओं के माध्यम से समाज को मानवीय प्रगति के मार्ग पर आगे बढाया|
रश्मिशील- भरतमुनि ने किन कलाओं को अपने ग्रन्थ में विवेचित किया है?
भारतेंदु मिश्र- भरतमुनि नाट्यशास्त्र के पहले ही अध्याय में स्पष्ट कर देते हैं कि इस नाटक में समस्त कलाएं समाविष्ट हो जाती हैं|इसीलिए हजारों वर्षों के अंतराल के बावजूद आम जन के मन में नाटक के प्रति आकर्षण समाप्त नहीं हुआ-
न तज्ज्ञानं न तत्छिल्पं न सा विद्या न सा कला|नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येSस्मिन यन्न दृश्यते ||(ना.शा.1/116) अर्थात संसार में ऐसा कोई- ज्ञान,शिल्प,विद्या ,कला, योग ,कर्म आदि नहीं है जिसका समावेश नाटक में न हो| मैंने इस तथ्य को तर्कों के आधार पर भी देखा परखा है| ‘भरतकालीन कलाएं ’में शोध और विश्लेषण करते समय मैंने – अभिनय,काव्य,संगीत,नृत्य,वास्तु ,चित्र,मूर्तिकला जैसी ललित कलाओं का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है| भरतमुनि ने इन कलाओं के अतिरिक्त तौरिप,मुकुटकार,वेषकार, रजक, काष्ठशिल्पी,आभरण बनाने वाले सहित अन्य शिल्प कलाओं का भी यथा अवसर उल्लेख किया है|
रश्मिशील –भरतमुनि के समय में वास्तुकला का क्या रूप रहा होगा?
भारतेंदु मिश्र- रश्मिशील जी, भरतमुनि के समय में वास्तुकला बहुत प्रगति पर थी| उन्होंने वर्गाकार,आयताकार,त्रिभुजाकार और वृत्ताकार भवनों के निर्माण का उल्लेख किया है| भरतमुनि ने रंगमंडप के लिए विविध आकार के भवन बनाए जाने की आवश्यकता पर बल दिया है| मंच कितना हो प्रेक्षकों के लिए बैठने के लिए कितना स्थान हो यह भी समझाया है| ये भवन जिन चार स्तंभों पर खडा किया जाए उन्हें ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र सभी के द्वारा स्थापित किया जाए| भित्तियों पर प्लास्टर आदि करने तथा उनकी सजावट आदि किये जाने का भी व्यापक उल्लेख भरतमुनि ने किया है|
रश्मिशील- जी यह सब तो ठीक है किन्तु अब मार्क्सवादी वैचारिकता वाली इक्कीसवीं सदी में हजारों वर्षो बाद क्या कोई भरतमुनि की सौन्दर्य दृष्टि आप देख पाते हैं,अथवा उसकी प्रासंगिकता अनुभव करते हैं?
भारतेंदु मिश्र- जी आपकी चिंता सही है कि हजारों वर्षों के अंतराल में प्राचीन साहित्य दर्शन कलाओं आदि का रूप नष्ट हो चुका है या परिवर्तित हो चुका है तो अब उसे क्यों पढ़ा जाए? देखिए हम अपना इतिहास पढ़ते हैं,और अपनी शाश्वत परंपराओं पर गर्व करते हैं| दुनिया के किसी भी देश या समाज ने अपने अतीत के गौरव को नष्ट नहीं किया| कुछ उत्तर आधुनिकतावादी नए मार्क्सवादी विचारक इतिहास को शवसाधना से जोड़कर देखते हैं ,इतिहास और संस्कृति में सबकुछ वैसा त्याज्य नहीं है| यह उनका अज्ञान है|हमारा समाज केवल यथार्थ जीवी कभी नहीं रहा,परपराएं बनती बिगड़ती हैं बदलाव से हमेशा प्रगति नहीं होती है –विनाश भी होता है | सार्थक बदलाव हमारे समाज को प्रगतिशील बनाते हैं| जबतक ध्रुवा रहेगा,कथक रहेगा ,भरत नाट्यम है,रंगमंच और नाटक रहेगा,नृत्य रहेगा,संगीत रहेगा,रस सिद्धांत रहेगा–लोककलाएँ-नाचा,विदेसिया, गरबा,बिहू,नौटंकी, के अतिरिक्त मधुबनी पेंटिंग्स,फुलकारी,काष्ठशिल्प, मंदिरों की मूर्तियाँ,वास्तु आदि जीवंत हैं-भरतमुनि प्रासंगिक रहेंगे| मुझे लगता है कि आज इक्कीसवीं सदी में भी भरतमुनि की स्वतन्त्र कला चेतना का अपना महत्त्व है वे प्रस्थान बिंदु हैं ,उनका स्थान कोई और नहीं ले सकता|
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