वैदिक और भरतकालीन स्त्रियाँ : कलाओं में भागीदारी
# भारतेंदु
मिश्र
भरत मुनि के समय में
और उसके बहुत समय बाद तक अभिनय आदि ललित कलाओं और प्रदर्शनकारी कलाओं में समाज की
सभी स्त्रियों की भागीदारी पुरुषों के ही सामान थी| साहचर्य की अविरल व्यवस्था में
वहां कोई अंतर नहीं था,महाभारत और रामायण काल तक स्त्री पुरुष दोनों को साथ साथ
काम करते हुए हम देख सकते हैं| कैकेयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध पर जाती हैं और
युद्ध में उनकी सहयोगी बनकर उनकी सहायता करती हैं|सीता राम के साथ वनगमन करती
हैं|इसीप्रकार संगीत समारोहों में, शरादोत्सवों,वसंतोत्सवों और स्वयंवरों में भी
उनकी सामान भागीदारी होती थी| उस समय भी सौन्दर्य,वैभव और शक्ति का प्रदर्शन राजा
किया करते थे| ऋग्वेद में अनेक
मंत्रदृष्टा महिला ऋषियों का उल्लेख मिलता है|
प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी के अनुसार - ‘ऋग्वेद तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में कतिपय स्त्रियों का ऋषि के रूप में उल्लेख
है। स्त्री के ऋषि होने का अर्थ है कि वह मंत्रों का साक्षात्कार कर लेती है।
हरिपद चक्रवर्ती(1981: 54) ने लोपामुद्रा, अपाला तथा घोषा को महिला ऋषि माना है। मांधात्री, अगस्त्य की अज्ञातनाम बहिन, वसुक्र की पत्नी, शाश्वती, गोधा विश्ववारा भी ऐसी ही महिला ऋषि हैं। मंत्रों की
रचनाकार कवि के रूप में घोषा का उल्लेख ऋग्वेद (1.117.7,
10.40.5, 10.39.3.6) में आता है। ‘(संस्कृत साहित्य में स्वाधीन स्त्रियाँ)
हमारी परंपरा में
वैदिक साहित्य से ही स्त्री पुरुष के संवाद यज्ञ आदि कर्मकांडों के अवसर पर नाटक
के रूप में प्रयुक्त किए जाते रहे हैं| स्त्रियाँ पुरुषों के सामान और समकक्ष
हैं,वहां कोई भेद या असामनता नहीं है|ऋग्वेद के दशम मंडल में संवाद सूक्तों की
प्रमुखता इस बात का प्रतीक है| पुरुरवा -उर्वशी संवाद,यम -यमी संवाद,अगस्त्य
-लोपामुद्रा संवाद,सरमा- पणि संवाद आदि को पढ़ने से यह सहज रूप में ज्ञात होता है
कि ये संवाद ही बाद में नाट्य के रूप में प्रकट हुए| इन संवादों में उत्तर
प्रत्युत्तर की शैली है और इनमें संवेगात्मक नाटकीयता भी विद्यमान है| सरमा -पणि
सूक्त में तो सरमा अपनी पैने संवादों से पणियों को हतप्रभ और निरुत्तर कर देती है|
यम -यमी संवाद में यमी के प्रत्येक आरोप का यम त्वरित उत्तर देते हैं| --विवस्वान
के पुत्र यम की बहिन यमी अपने ही जुडुआ भाई से प्रेम एवं संतति की याचना करती हैं|
परन्तु यम यह कहते हुए उसके प्रस्ताव को अस्वीकृत कर देता हैं कि हम दोनों एक ही
एक ही साथ एक ही माता के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं,इसलिए यह उचित नहीं है-यमी कहती
है-जब हम दोनों एक साथ माता के गर्भ रूपी महासागर में एक दूसरे की नौका बन चुके
हैं तो अब क्या अनुचित है? यम कहता है-देवताओं के श्रेष्ठ पहरेदार वरुण देख लेंगे
एवं क्रुद्ध हो जायेंगे तुम किसी अन्य को अपना पति बनाओ| इसके विपरीत यमी कहती हैं
- वे इसके लिए अपना आशीर्वाद देंगे| इस संवाद का आगे अंत कैसे हुआ, यह प्रसंग तो ऋग्वेद में नहीं हैं|इसी प्रकार सरमा
-पणि संवाद है- जब देवराज इन्द्र के बार
बार कहने के बाद भी पणियों ने उनकी गायों को नहीं छोड़ा और जिससे प्रजा व्याकुल होने लगी,
तब इन्द्र ने देवाशुनी सरमा को (कुतिया) दूती के रूप में भेजा । सरमा अर्थात ‘सरति गच्छति सर्वत्र इति
सरमा, देवानां सुनी सूचिका दूती वा देवशुनी सरमा’- कही
गई है। इस प्रकार देवशुनी बादल की गड़गड़ाहट रूपी ध्वनि के साथ पणियों से संवाद
करती है और कहती है कि हमारे राजा की गौओं को छोड़ दो, नहीं तो हमारा बलवान राजा दण्ड देगा। पणियों ने देवशुनी की बात नहीं मानी,
तब इन्द्र ने वज्र प्रहार कर अर्थात् वायु के प्रहार के
माध्यम से पणियों को मारकर धरती पर सुला दिया और अपनी गायों को मुक्त करा लिया।
सारा संसार वृष्टि से सुखी हुआ और सूर्य की किरणें चारों ओर फैल गईं।
इसी प्रकार शापित उर्वशी स्वर्ग से धरती पर आकर
पुरुरवा से प्रेम करती है पुत्र का जन्म भी होता है और फिर वह पुरुरवा की प्रत्येक
अनुनय भरी उक्ति को नकारती हुई इन्द्रलोक चली जाती है| कालिदास ने बाद में इसी
संवाद को लेकर संभवत: ‘विक्रमोर्वशीयम’ नाटक की रचना की थी| तात्पर्य यह कि वैदिक
काल से ही स्त्री अकुंठ भाव से जीवन में सहचरी है और रंगमंच पर भी विद्यमान है| इस
प्रकार के उदाहरणों से यह तो साफ़ होता है कि वैदिक काल की स्त्रियाँ अकुंठ और
वर्जनाओं से मुक्त थीं| उन्हें जो अपने लिए उचित लगता है वह स्पष्ट कह लेती हैं| अपनी स्वेच्छा ही उनके लिए
महत्वपूर्ण होती थी,वे पराधीन तो बिलकुल ही नहीं थीं| प्राचीन काल के यज्ञों के
आयोजनों में अनुष्ठान के अंश के रूप में पुंश्चली अर्थात अनेक पुरुषों के संपर्क
में रहने वाली स्त्री का ब्रम्हाचारियों से संवाद होता था | आज के समाज में हम इसे
अश्लील कह सकते हैं| इसका उद्देश्य संभवत: ब्रम्हचारी के ब्रम्हचर्य की दृढ़ता से
परीक्षा करना होता था| इसके मूल में ये संवाद धर्मिता ही कालान्तर में नाटक के रूप
में विक्सित होती गयी| ये वैदिक कर्मकांड मनुष्य जीवन की गहरी संलिप्तता के प्रतीक
होते थे| हमारे षोडस संस्कारों में विवाह,यज्ञोपवीत संस्कार आदि के अवसर पर भी
भाभियों,पत्नी की सहेलियों,बहनों आदि के
द्वारा वर से और ब्रम्हचारी से हंसी मजाक आदि को उत्सव के रूप में शामिल कर
लिया गया|ये सब स्त्रियाँ स्वतन्त्र भाव से किसी न किसी रूप में अपनी वाचिक चतुराई
और कौशल का ही प्रदर्शन करती हैं|
माना जाता है कि
भारत में रंगमंच की परंपरा बहुत पुरानी है|
भरत मुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में ही यह माना है कि वो जो नाट्यशास्त्र की चर्चा
करने जा रहे हैं वह पहले से ही लोक में व्याप्त है|भरतमुनि का समय ईसा से लगभग 400 वर्ष पूर्व माना जाता
है| पाणिनि ने भी भरत से पूर्व नट सूत्रों की चर्चा की है| भरतमुनि नाटक में स्त्री पात्रों की विस्तार से
अभिनय,नृत्य ,संगीत आदि के क्षेत्र में चर्चा करते हैं| पूर्वरंग की परंपरा नट और नटी के द्वारा ही संपन्न की जाती थी|
अर्थात नट और नटी दोनों मिलकर ही नाटक का शुभारंभ करते थे|
महाभारत कालमें
रंगमंच का और अधिक विस्तार हुआ|
धृतराष्ट्र ने भी प्रेक्षागृहों का निर्माण करवाया| स्वयंबर आदि जैसे आयोजन भी
विशाल रंगशालाओं में ही संपन्न होते थे| हमारी परंपरा में प्राचीन काल में स्त्री
को अपना वर चुनने का अधिकार था| संस्कृत नाटकों में अंत:पुर का उल्लेख अवश्य मिलता
है किन्तु स्त्रियों के लिए कहीं किसी प्रकार का पर्दा या घूघट आदि का प्राविधान
नहीं किया गया था|
उर्वशी अप्सरा इंद्र के दरबार में नृत्यांगना है|एक बार गंगा
यमुना संगम स्थल प्रयाग के निकट प्रतिष्ठानपुर के राजा पुरुरवा को आकाशमार्ग से
स्त्रियों के रोने चीखने का स्वर सुनाई देता है तो वो उस स्त्री के निकट जाकर कारण
का पता करते हैं तो मालूम होता है कि केशी नामक राक्षस ने उसकी प्रिय सखी उर्वशी
का अपहरण कर लिया है | केशी का वध कर सम्राट उर्वशी की रक्षा करते हैं लेकिन पहली
बार में ही उर्वशी को देखते ही वे उससे
अपना हृदय हार जाते हैं| उर्वशी भी इस अप्रतिम शक्तिशाली तेजस्वी राजा को देखर उस
पर मुग्ध हो जाती है परन्तु उस समय उर्वशी अपने परिजनों अर्थात मेनका,रम्भा और सखी चित्रलेखा के साथ देवलोक वापस चली जाती है|दोनों एक दूसरे
से प्रेम में करने लगते हैं|पुरुरवा की पत्नी औशीनरी जो महारानी है उसको भी अपने
पति का यह प्रेम प्रसंग ज्ञात हो जाता है लेकिन वह प्रकट रूप से उसका विरोध नहीं
करती|उर्वशी की विह्वलता बढ़ती जाती है एक दिन इन्द्रसभा में नृत्य करते समय गायन
के अवसर पर वह देवराज इंद्र के बजाय पुरु का नाम ले लेती है तो यह सुनकर रंग
निर्देशक मुनि क्रोधित होकर उसे श्राप देते हैं| फिर देवसभा में श्राप पर
पुनर्विचार किया जाता है और तय होता है कि ये धरती पर जाकर पुरुरवा के साथ रहे और
पुत्र जन्म के पश्चात इसका शापमोचन संभव है|राजा बार बार अनेक तरह से उर्वशी से उसे
अपनालेने के लिए आग्रह करता है किन्तु उर्वशी अपने निर्णय पर अटल रहती है और पुत्र
जन्म के बाद इंद्र की सेवा में पुन: चली जाती है | ऐसे ही शची,गार्गी,मैत्रेयी आदि
नारी पात्र वैदिक और पौराणिक काल में देवियों के अनेकानेक रूप स्त्री के
स्वातंत्र्य और उनके विवेकवती होने के उदाहरण हैं|
वाल्मीकि रामायण में
चित्रित पात्र यथार्थवादी सामाजिक जीवन के बहुत अधिक निकट हैं| रामायण में कैकेयी
जैसी पात्र है जो दशरथ को अपने सौन्दर्य ,युद्ध कौशल और प्रतिभा से इतना प्रभावित
करती है कि वे उसे कभी भी दो वरदान माँगने के लिए वचन देते हैं| और उन्ही दो वचनों
पर रामायण की कथा आगे चलती है| तारा अपने महाबली पति बालि का विरोध करती है|
मंदोदरी रावण से सीताहरण को लेकर असहमति ही नहीं व्यक्त करती बल्कि रावण का स्पष्ट
विरोध भी करती है| रावण से सीता कहती हैं- ‘तू गीदड़ है और मुझ सिंहिनी की कामना
करता है|’ सीता से रावण भयभीत ही प्रतीत होता है| महाभारत काल में तो कुंती
गांधारी,दौपदी जैसे और ऐसे पात्र हैं जो अपनी स्वतंत्रता और अपने निर्णयों के लिए
जाने जाते हैं| सूर्य से कुंती के प्रेम की कथा,शांतनु और मत्स्यगंधा की प्रेम
कथा,स्वयंबर की अनेक शर्तों के बीच
स्त्री की अस्मिता और उसकी तेजस्विता को महत्त्व भी मिला| महाभारत के पुरुष पात्र
स्त्रियों की अपेक्षा कम तेजस्वी लगते हैं| शांतनु की पहली पत्नी गंगा अपना वचन
निभाकर चली जाती है,गंगापुत्र भीष्म कभी विवाह न करने की प्रतीज्ञा लेकर पिता के
राज्य की सेवा में अपने को खपा देता है| इस अतुलित बलशाली का अंत भी एक किन्नर
शिखंडी के तीर से होता है|दौपदी के चीरहरण की रोमहर्षक कथा दरबार के सभी दरबारियों
के सामने हुए अत्याचार की घ्रणित कहानी अभी तक हमें स्त्री विमर्श के बारे में गंभीर
होने के लिए प्रेरित करती है|उसके पांच पतियों के साथ रहने और द्रोपदी से पांचाली
बनाये जाने अथवा स्वयं बन जाने की लोक परंपरा को भी संवेदना के गहरे आलोक में
समझने की आवश्यकता है| सहस्राब्दियों बाद भी कुंती और दौपदी का नाम बहुत आदर से
लिया जाता है ,जबकि आज के युग में किसी स्त्री का विवाहेतर संबंध कोई पुरुष
स्वीकार नहीं करता| ये जो पुरुष सतात्म्क सामाजिक अनुशासन है इसने सदैव ऐसी
स्त्रियों को न केवल प्रताड़ित किया बल्कि अधिकतर उन्हें मृत्युदंड ही दिया है|
प्राचीन काल की
स्त्रियाँ स्वाधीन हैं| विभिन्न सांस्कृतिक समाजों में वे देवी रूप में मातृसत्ता
का प्रतीक भी हैं|नयी अभिनेत्री आज भी जब
हमारे प्राचीन भारतीय रंगमंच की स्थापित नायिकाओं को नए समय के नए सन्दर्भ में
प्रस्तुत करती है और जब कैकेयी,राधा,सीता,अहिल्या,सावित्री,मत्स्यगंधा,गांधारी,कुंती
दौपदी,सुभद्रा,वसंतसेना,यशोधरा,आम्रपाली
जैसे पात्र के रूप को सही ढंग से प्रकट कर पाती है तो
उसकी सभी ओर प्रशंसा
होती है| संस्कृत नाटकों में भी अनेक सीता,देवकी,यशोदा,शकुन्तला,दमयंती,
यशोधरा,कुंती,द्रोपदी,गांधारी
आदि पौराणिक स्त्री पात्रों के अलावा वसंतसेना,मालविका,वासवदत्ता रत्नावली शारदा
आदि ऐसी स्त्री पात्र उपस्थित हुई हैं जो हमारी संस्कृति को गहरे तक प्रभावित करती
हैं| ये स्त्री पात्र अपने रूढ़ हो चुके चरित्र के कारण सदा के लिए विख्यात हो चुकी
हैं|विश्वविख्यात आचार्य मंडन मिश्र और शंकराचार्य के शास्त्रार्थ का निर्णय करने के
लिए विद्वत मंडली मंडन मिश्र की पत्नी शारदा को नियुक्त करती है और उसी के निर्णय
से मंडन मिश्र शास्त्रार्थ में पराजित हो जाते हैं|शारदा के निर्णय की बहुत सराहना
की जाती है| इसी प्रकार नगर सुन्दरी चुने जाने के बाद वसंतसेना को आदरपूर्वक चार
मल्लों की डोली पर बैठा कर पूरी उज्जयिनी में घुमाया जाता है|किसी दशा में ये सब
प्राचीन स्त्रियाँ पराधीन नहीं है|
अभिनय के क्षेत्र
में नायिका भेद करते समय भरत ने नाट्यशास्त्र के बाइसवें अध्याय में श्लोक-213 से
220 तक नायिकाओं के आठ प्रकार बताएं हैं| जो क्रमश: 1. वासकसज्जा(अपने घर को सजा
कर अपने पति की प्रणय कामना
से प्रतीक्षा करती है|)2.विराहोत्कंठिता (जो अपने प्रिय के विरह में उत्कंठित या
व्याकुल है|)3.स्वाधीनभतृका (जो सौभाग्य स्वाभिमान से परिपूर्ण अपने पति अथवा
प्रेमी को अपने आधीन रखती है|)4.कलहान्तरिता(जो ईर्ष्यावश हुए कलह के कारण छोड़ करे
चले गए प्रिय के प्रति क्रोध से भरी है|)5.खंडिता (जिसका प्रिय किसी अन्य के साथ
आसक्त होकर चला गया है उसके दुख से जो दुखी है|)6.विप्रलब्धा (जिसका प्रिय केवल
सन्देश भेजता है और मिलने नहीं आता )7.प्रोषितपतिका (जिसका पति किसी कार्य से बाहर
चला गया है|)8.अभिसारिका (जो लोकलाज छोड़कर प्रिय से मिलन हेतु अभिसार करती है |)
इसके अलावा सामाजिक
स्थिति के अनुरूप चौबीसवें अध्याय में भरत मुनि नायिकाओं के चार रूपों की चर्चा
करते हैं,जो इस प्रकार है-1.दिव्या, अर्थात दिव्य स्त्री,योगिनी अथवा सिद्ध स्त्री
| 2.नृपपत्नी ,अर्थात –महारानी आदि|3.कुलस्त्री अर्थात अभिजन सामाजिक परिवार की
कुलीन स्त्री|4.गणिका,अर्थात नर्तकी पुरुषो के आमोद प्रमोद का उपादान बनने वाली|
साथ ही स्त्रियों के स्वभाव आदि के अनुसार
भरत कहते है कि ये उत्तमा,मध्यमा,अधमा तीन कोटियों में विभाजित की जा सकती हैं|
‘उत्तमा’ अर्थात जो –मृदु ,चंचलतारहित,
स्मितभाषिणी,अनिष्ठुर ,गुरुजनों की सेवा करने वाली,सलज्जा ,विनम्र,संस्कारी कुल की
हो , तथा जो माधुर्य,गाम्भीर्य और धैर्य आदि गुणों से युक्त हो| जिसमें उक्त गुणों
में से कुछ कम गुण हो वह ‘मध्यमा’ और जिसमें ये सब गुणा न हों वह ‘अधमा’ नायिका
समझी जाती है| इन्हें ही नायकों की भाँति - धीरा,ललिता,उदात्ता,और शांता आदि कर्म
से भी अभिनय हेतु चुना जा सकता है| इस प्रकार नायिकाओं के भेदोपभेद करते हुए अनंत
भेद किये जा सकते हैं| हम देखते है कि स्त्रियाँ पुरुषों के सामान ही आदिकाल से
सामाजिक जीवन में सहभागी रही हैं|
प्रदर्शनकारी कलाओं
और ललित कलाओं के क्षेत्र में भी स्त्रियों की लगातार सामान भागीदारी रही
है|यद्यपि ललित कलाओं और प्रदर्शनकारी कलाओं
में अंतर होता है| जिन्हें हम ललित
कलाएं कहते हैं उन सभी कला क्षेत्रों में भी स्त्रियों के सहभाग की सदैव आवश्यकता
रही है| हमारी सभ्यता में अभिनय,नृत्य और संगीत आदि की उत्पत्ति तो शिव और पार्वती
से ही हुई है| महागौरी को लास्य और स्त्रियों के सभी नृत्य रूप की अधिष्ठात्री के
रूप में स्वीकार किया जाता है| भरत मुनि का ‘नाट्यशास्त्र ’ तो समस्त
कलाओं,विद्याओं,शिल्पों,कौशलों,योग आदि का कोश है|प्राचीन भारत में जो सांस्कृतिक
परंपराएं हमें देखने को मिलाती हैं उन पर भरतमुनि
के नाट्यशास्त्र की अमिट छाप है-
न तज्ज्ञानं न
तत्छिल्पं न सा विद्या न सा कला|
नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येSस्मिन यन्न दृश्यते ||(ना.शा.1/116) भरतमुनि के और उनके टीकाकारों के अनुसार
यह ग्रन्थ पंचम वेद के रूप में विख्यात है और इसकी रचना स्त्री और दलित समाज
सहित सभी वर्णों के लिए की गयी है| इसे पढ़ने जानने और कलाओं को सीखने के लिए किसी व्यक्ति को वर्जित नहीं किया
गया है| भरतमुनि जिन ललित कलाओं का उल्लेख करते हैं वे –वास्तु,चित्र,स्थापत्य,संगीत,काव्य,नृत्य
और अभिनय हैं| तात्पर्य यह कि नाट्यशास्त्र हमारी संस्कृति का ऐसा महाकोश है
जिसमें स्त्रियों के कौशल आदि पर भी सर्वप्रथम गंभीरता से विचार किया गया है|कलाओं
के क्षेत्र में न कोई शुद्धतावादी दृष्टिकोण है न कोई वर्जना ही है,ये कलाएं और
कलाकार स्वभावत: स्वतन्त्र हैं| इससे ही आगे चलकर अभिनवगुप्त ने –स्वतन्त्रकालाशास्त्र
की विवेचना की है| स्त्रियों के अभिनय के
क्षेत्र में उनका वेश कैसा हो उनका केश विन्यास कैसा हो,उनका
अंग-हस्त,पाद,कटि,अक्षि आदि का संचालन कैसा हो इन सब विषयों पर विस्तार से
नाट्यशास्त्र में विचार किया गया है|तात्पर्य यह कि स्त्रियाँ स्वेच्छा से प्राचीन
काल से प्रदर्शनकारी कलाओं के क्षेत्र में भागीदार होती रही हैं|
बाइसवें अध्याय में
भरत कहते हैं –‘संसार में सभी लोग सुख चाहते हैं|सुख का मूल स्त्री है|स्त्रियाँ
विभिन्न शीलों वाली होती हैं| ’ (नाशा.22/90) इसी अवसर पर भरतमुनि
‘स्त्रीजनकृतप्रयोग’ अर्थात स्त्रीप्रेक्षा- की चर्चा करते हैं जिसमें स्त्रियाँ
ही पुरुषों का भी अभिनय करती हैं| आदि कवि वाल्मीकि के अनुसार महाराज दशरथ के समय
अयोध्या में स्त्रियों के अनेक नाटक दल थे-
‘वधूनाटकसंघैश्च
संयुक्तां सर्वत:पुरीम ’ (वा.रा.5/12-बालकाण्ड) अर्थात रामायण काल में स्त्रियाँ
अपने नाट्यसंघों की मालकिन होती थीं| तात्पर्य यह कि दशरथ के समय में अयोध्या में
उनके लिए कहीं कोई वर्जना नहीं रही होगी| स्त्रियों को लेकर किसी प्रकार की वर्जना
या कुंठा आदि का भाव हमारे प्राचीन समाज में नहीं दिखाई देता| भरतमुनि
अभिनय,नृत्य,संगीत,आदि ललित कलाओं के अलावा उपयोगी कलाओं पर भी विचार करते हैं
जैसे-तौरिप का उल्लेख भरतमुनि करते हैं
,तौरिप नाट्यमंडली के संगीत का मुखिया
होता था जिसे आज संगीत निदेशक कहा जाता है| सभी प्रकार के वादक,गायक और नर्तक उसके
आधीन होते थे|इसके अलावा मुकुटकार,रंगरेज,वेषकार,आभरणकार,माली
,कारूक(काष्ठ्शिल्पी) आदि का भी उपयोग इन प्रदर्शनकारी कलाओं में किया जाता था| इन
सभी कलाओं में स्त्रियों की भी सामान भागीदारी होती थी|
नाटक के अनेक भेदोपभेद
के साथ ही कथक,भरतनाट्यम,रामलीला,रासलीला ,डांडिया,
विदेसिया,गरबा,नाचा,कथकली,कठपुतली- जैसी
अनेक लोक काव्य नाट्य की परंपराओं में भी स्त्रियों की भागीदारी सदैव बनी
रही|
स्त्रियों के सहयोग और उनके नृत्य,गायन और सक्रिय
भागीदारी के बिना ये परंपराएं और उत्सव संभव ही न थे| आज जो प्रदर्शनकारी कलाओं का
रूप है वह अधिकाँश तकनीकि और विज्ञान के
आधीन है| आज कला साधना के क्षेत्र में वैसी साधना नहीं दिखाई देती जितनी प्राचीन
काल में थी| तकनीकि की सहायता से स्वर को
कटु से मधुर बनाया जा सकता है| नौसिखिया गायक भी नए वाद्यों की सहायता से कुशल
प्रस्तुति देने लगे हैं| तकनीकि के प्रभाव से ही फिल्मों में नृत्य न कर सकने वाले
कलाकार भी नाचते हुए दिखाई देने लगते हैं|लेकिन संगीत की साधना करने वाले ध्रुवपद
गायकी वाले,कथक और कथकली नृत्य वाले, रंगमंच वाले कलाकार आज भी अपनी साधना में
तल्लीन हैं| जहां एक ओर शास्त्रीय कलाओं और रंगमंच का पराभव हुआ है वहीं दूसरी ओर
नुक्कड़ नाटक करना या फिल्म बनाना आसान हो गया है|
संपर्क: सी-45/वाई-4
,दिलशाद गार्डन,दिल्ली-110095
b.mishra59@gmail.com
------------
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें