उलझनें फोटो:भारतेन्दु मिश्र |
आओ संवाद करें- बतकही ही जीवन है। डियरपार्क का संवाद सुने।
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मैं डियरपार्क हूँ
मैं डियरपार्क हूँ
आओ मेरे पास बैठो
और चक्कर लगाओ
दो–चार
सुरमई सुबह में सुनो
चिडियों का अनहद अनंतराग
और देखो कभी उषा की छवि
करती हैं किरणबालाएँ पेडों पर
रचती हैं रँगोली आँगन मे
रोज सुबह
पूर्वी दिल्ली के दिलशाद गार्डन में
बनाया गया था मुझे
जंतुशाला की तरह
तैरती थीं–यहाँ सैकडों बतखें
बगुलों के साथ
छोटी सी नहर में
करती थीं अठ्खेलियाँ
सफेद गुलाबी बतखें
फुदकते थे खरगोश
अपने जोडों के साथ
बाडे में रहता था गैंडा भी
मोर-कठफोडवा-तोते रहते थे एक साथ
सुनाती थी मैना हाले दिल हौले से
हिरन कूदते थे अपने झुंड मे मस्त होकर
बिखर गये सब साथी एक एक कर
अब वह वैभव नही रहा
पिछले बीस वर्षों में बुढा गया हूँ
मर गये कुछ साथी
मार दिये गये
कुछ कर दिये गये स्थानांतरित
अन्य जंतुशालाओं में
विकास और विनाश की
अकथ कथा गुनता हूँ
जितना बचा हूँ पसरा हूँ आज भी
परिसर की लौहजालियाँ
उखाड ले जाते हैं स्मैकिये
लोग नोच रहे हैं मेरे आभूषण
मै चुप देखता हूँ
अपने घावों को
और मुस्तैद चौकीदारों को
माली बनाते हैं क्यारियाँ
सिरजते हैं आलवाल
फूलों को देते हैं पानी
काटते हैं घास
खडे हैं सैकडों वृक्ष
काले कीकर और गोरे सफेदों के बीच
कुछ और घनी छाया वाले साथी भी हैं
यूँ तो बुराँस है-चीड है-नीम है
उग आया है पीपल भी
झाड है झुरमुट है कटीली घास है
मेरे आँगन में खिले हैं फूल
और हरेपन से रिश्ता अभी टूटा नही है
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कौए हैं-कबूतर हैं
पेड पर कसरत करती गिलहरियाँ हैं
मैना है-पिढकुलिया है
गौरैया और लाल दिखती हैं कभी-कभी
पूँछ ऊपर नीचे करती आती है श्यामा
दाना-पानी की खोज में
आते हैं सब मेरे आँगन में
दिल्ली का ताप जो सह नही पाते
वो दूर हो जाते हैं दिल्ली से
किसान हो या गौरैया
सब दूर हो रहे हैं यहाँ से
बाज और चील आते हैं अक्सर
उल्लू और चमगादड बैठते है छिपकर
छिपकर आती हैं लडकियाँ भी
अँधेरे में अपने दोस्तों के साथ
और बाडे खाली हैं
किसी पुराने किले की मानिन्द
लुटे हुए खण्डहर सा
पसरा हूँ बस
सब आजाद हैं-आदमी -औरतें -बच्चे
बडे-बूढे सब आजाद हैं
लोग आते हैं यहाँ समय निकालकर
पालतू कुत्ते भी होते है साथ
विरेचन के लिए
नागार्जुन ने इन्हे ही देखकर लिखा होगा
देखो भाई कुत्तों ने भी कुत्ते पाले
सुबह शाम दोपहर मनमाफिक
लगाते हैं चक्कर पगवीथी पर
करते हैं कसरत
बैठते हैं घास पर
खेलते हैं-वालीबाल-बैडमिंटन
गाते हैं भजन
करते हैं योग
बतियाते हैं लोग अपने सुख दुख
बिछी हैं तमाम लोहे की बेंचें
किसी पर सो रहता है
रात भर काम करके थका हुआ मजदूर
क्रिकेट की बाल से टूट जाती है उसकी नींद
जिद्दी बच्चे खेलते हैं क्रिकेट
उडाते हैं पतंग
चलाते हैं साइकल
और मोटर साइकल मेरी पगवीथी पर
लोग नोच ले जाते हैं
मेरे आभूषण पूजा के लिए
कोई उन्हे रोक नही पाता
यही तो प्रजातंत्र हैं
मेरे आँगन का
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मेरी पगवीथी पर बैठकर
जब कोई करता है प्रेमालाप
मैं धन्य हो जाता हूँ
आते हैं कई युवा जोडे
पाठशाला से भागकर आते हैं
कई किशोर अपनी प्रेयसियों के साथ
मेरी इस खुली पाठशाला में
सफेदों के तनों पर
लिख जाते हैं अपना नाम
सफेदे उनके प्रेम के साक्षीबन
मुस्कराते हैं कष्ट सहकर भी
खडे रहते हैं चुपचाप
नमालूम कहाँ कहाँ से आते हैं लोग
यहाँ बना ली है लोगों ने पगडंडियाँ
मेरी छाती पर उगी
हरी रोमावलि को रौंदकर
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अपने कामकाज के लिए
उग आये हैं फुटपाथिये खोखे
मेरी बाहरी परिधि पर
चाय भी है-पान भी है
बैद भी है जडीबूटी वाला
हजामतवाला फिराता है उस्तरा
और बैठता है वजन की मशीन लेकर एक बूढा
वर्दीवाले को मिलता है हफ्ता
कमायी के हिसाब से
अनियंत्रित ढंग से विकसित होरहा है
लोगों का मोटापा
मेरा पडोस और मैं
सब आजाद हैं
अमलतास |
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हरबार के बजट में
आते हैं कुछ नए आभूषण
नए झूले -नए बल्व
पगवीथी की होती है मरम्मत
सजता हूँ दो चार दिन
और फिर सब गायब होने लगता है
आँधियों से जूझकर झुके हुए
कई पेड सुस्ता रहे हैं
उनके ठूँठों पर बच्चे
चढते उतरते हैं
खींचते हैं उनके कान
अपनी नरम हथेलियों से
ये शैतान बच्चे
मानो उडा रहे हों किसी बूढे का मजाक
कई पेड सुस्ता रहे हैं/उनके ठूँठों पर बच्चे/चढते उतरते हैं/ खींचते हैं उनके कान |
वह मेरे ही मन की आशंका है
सफेदे गिरते जा रहे हैं
जरा सी हवा में
या गिराये जा रहे हैं जानबूझ कर
ये जडें जमा ही नही पाये
पानी के अभाव में
अब इतना पानी कहाँ से लाऊँ
यहाँ यमुना से दूर
यमुना जो सूख गयी है
दिल्ली की प्यास से
देखो तनिक इन कीकरों को
उलझे हैं अपने आप में
गुथी हैं इनकी शाखाएँ
जैसे अपने ही परिजनों के बीच
झगड रहे हो घर के सदस्य
देखना भर ही तो है मेरी नियति
मेरा क्या है मैं मौन हूँ
बस देखता हूँ
सुनता हूँ सबकी
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बच्चों से खेलते हैं अंकल जी
बरसों से देखता हूँ
उन्हे खेलते हुए बच्चों से
हर सुबह आते हैं वो
अंकुरित अनाज भी लाते हैं वो
हर दिन देखता हूँ
उनका खिला हुआ चेहरा
अध्यापक नही हैं वो
शायद इसीलिए आते हैं
तमाम बच्चे उनके पास
खेलते हैं खो-खो
पकडम पकडाई और सीखते हैं
जीवन का पाठ बिना किताब के
इस खुली पाठशाला में
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आते हैं काकबन्धु जी
थैले मे लाते हैं दाने और आँटे की गोलियाँ
कौए उन्हे देखकर आ जाते हैं
अपने बाइट के लिए
वो किसी से बतियाते नही
बस अपना काम करते हैं
एक जगह चुन ली है उन्होने
हमेशा के लिए
गिलहरियाँ भी ले जाती हैं अपना भाग
चीटियों के बिलों के पास
वो बिखराते हैं चुटकी भर आँटा
पास की बेंच पर बैठकर
लगाते हैं एक सिगरेट
सुस्ताने के लिए
और फिर चले जाते हैं घर
अपने इस कर्म को धर्म समझकर
लेखक मंडली ने
दिया है उन्हे यह नाम
बाएँ से:भारतेन्दु मिश्र, हरिनारायण, विभांशु दिव्याल, त्रिपाठी जी, राजेन्द्र नागदेव चित्र बलराम अग्रवाल |
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नंगातलाई का गाँव बिस्कोहर
नंगातलाई का गाँव बिस्कोहर
बिस्कोहर के बिसनाथ जी
आते हैं रोज मेरे इस आँगन में
लगाते हैं चक्कर
भाँजते हैं हाथ पाँव
करते हैं उत्तानपाद आसन
लेखक मंडली के मुखिया हैं वो
कब बिसनाथ से डाँ विश्वनाथ त्रिपाठी
और डाँ विश्वनाथ त्रिपाठी से
बिसनाथ बन जाते हैं
कहना कठिन है
मेरे आँगन में
ऐसे ही होती है जन से अभिजन
और अभिजन से जन के बीच आवाजाही
इस खुली अकादमी के हैं कई सदस्य
हरिनारायण-रमेश-विभांशु-
राजेन्द्रनागदेव-बलराम-राकेशतिवारी
हेमंत और मैं
अशोक गुजराती जुडे हैं
अभी कुछ दिन हुए
कभी आते थे यहाँ नियमित विजय जी-
अरुणप्रकाश-आलोकपुराणिक-
शमशेरआलम-रवीन्द्रपाण्डेय
और वो चौबे जी
जो करवाते थे कविगोष्ठी
पिछले साल चला गया रामलखन
हमेशा के लिए दूर
उसकी चाल का दूसरा
आदमी नही मिला तबसे
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बाएँ से:कथाकार शिवमूर्ति, डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी, हरिनारायण जी(संपादक 'कथादेश') चित्र:बलराम अग्रवाल |
रविवासरीय बैठकी चलती है लम्बी
बतरस लूटते हैं सब अपने ढंग से
झाँकते हैं समस्याओं में अपनी तरंग से
डूबकर नहाते हैं निन्दा के ताल में
सभी मगन रहते हैं लेकिन हर हाल में
अक्सर प्रकट होते हैं-
टालस्टाय-गालिब-निराला
कबीर-तुलसी –शेक्सपीयर
तो कभी उतर आते हैं-कालिदास-बाँणभट्ट
और शूद्रक इस बतकही मे
बिखर जाती है पुनर्नवा घास
पुनर्नवा के साथ जी उठते हैं
आचार्य प्रवर हजारी प्रसाद द्विवेदी
गुरुवर जो ठहरे बिसनाथ के
रामविलासशर्मा-केदारनाथअग्रवाल-त्रिलोचन
सभी प्रकट होते हैं प्रसंगवश
लगता है पान खाये बैठे हैं
पास में नामवर
और पाइप सुलगा रहे हैं
काला चश्मा चढाये राजेन्द्र यादव
बतकही के बीच आते हैं
मित्रों के मित्र भी कभी-कभार
कभीकभार की चर्चा भी होती है
साहित्य की धडकन गुनते हैं रोज
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जब कोई लचर लबार
पुरस्कार के पीछे भागता है
तो यहाँ चर्चा होती है
कफन सम्मान की
कि अमुक को दे ही दिया जाये
दबोचकर यह सम्मान
सिर पर फोडकर नारियल
ओढा ही दी जाय सफेद शाल
और दे ही दिया जाय मानपत्र
आत्मा की शांति के लिए
बात होती है
साहित्य के दलालों की
किताबों की और साहित्यिक बवालों की
जब घास बढ जाती है
तो स्वत: आ जाती हैं
झोली और हँसिया लहराती घसियारनें
मालियों की अनुमति से
काटती हैं वो घास
ये करते हैं श्रम सौन्दर्य पर बातचीत
कटी हुई घास की गंध
सदियों पुराने आदिम गंधवाले
संस्कार से मेल खाती है
बिसनाथ जी सूँघते हैं
घास को-फूल को-पत्ती को और करते हैं
आलिंगन वृक्ष का
लोटते हैं घास पर
उनका धरती के हरेपन से
जुडे रहने का यह क्रम लुभाता है मुझे
मै तो पार्क हूँ
बहसें होती हैं देरतक
दूरतक जाकर फिर लौट आते हैं
सब अपने आप में
अपने आप में रहने का फन
सीख रहे हैं लोग यहाँ
जो नही सीख पाते
वो छटककर चले जाते हैं अपनी राह
कठिन है
साँझे हो रहना विचारों मे
उससे भी ज्यादा कठिन है
साँझी हँसी
हँसना खुद पर तो मानो पहाड तोडने जैसा है
ये हँसते हैं बिन्दास
पीते हैं चाय रस्क के साथ
आलोचना करते हुए
दीन दुनिया की और अपनी
शैतान बच्चों की तरह
सबने बिगाड रखे हैं
मित्रों के नाम
किसी को तेन्दुआ,किसी को हरिया
किसी को बैलराम किसी को नागराज
किसी को लट्ठ किसी को पतझड
किसी को विभासानन्द
कहकर हँसते हैं
इनके जीवन के दिन
कुछ ऐसे ही सरसते हैं
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यहाँ जो कभी नही आये उनके
डुप्लीकेट चुन लिए हैं सबने
एक सज्जन हैं जो कदकाठी से लगते हैं
आलोचक परमानन्द से
रामदरसमिश्र-उदयप्रकाश-मैनेजरपाण्डे
और न जाने कौन कौन से
साहित्यकार प्रकट होते हैं
अपनी चाल-ढाल से
ये दूर से उन्हे देखकर बतियाते हैं
और बतरस में खो जाते हैं
कविता की तरह
मनुष्यों मे भी होता है भावसाम्य
कुछ ऐसी ही लयमें
चलती है यहाँ रसचर्या
परस्पर सहभाव से
बतरस का होता नही कोई छोर
पकाते हैं खयाली पुलाव
आँखें चमक आती हैं ठहाकों में
खुली पाठशाला में
होते हैं सहज व्याख्यान
कैण्टरबरीटेल्स
और हितोपदेश की शैली में
टकराते हैं गाँधी और मार्क्स
आचार्य की संवेदना सजल हो आती है
लाल हो आता है
उनका चेहरा प्रसंगवश
वो सजग हैं
वो सधे हुए हैं
उनकी मुद्रा का अर्थ होता है
##########
विचलित हो जाता हूँ
नाले में कूदकर
पन्नी और बोतल बीनते बच्चे को देख
नाला जो मेरे आँगन के बीचसे गुजरता है
नाले पर बनी हैं छतें
जिनमें से टूट गयी हैं कई
समय की धार से
कलन्दर कालोनी के बच्चे
उतर जाते हैं इनमें
रोटियों की खोज में
रोटियाँ जो बोतलों की शक्ल में तैरती हैं
नाला गहरा और बदबूदार है
ये खेलते हैं वहीं
लोग समझाते हैं लेकिन वो मानते नही
उनका रोज का काम है
प्लास्टिक बीनना
###########
मेरे आँगन में
आते हैं सीमापुरी के बच्चे
करते हैं करतब
खाते हैं हवाई गोता
लगाते हैं गुलाटियाँ
चलते हैं हाँथों के बल
सीखते हैं मलख्म्भ
अपने सपने को
साकार करना चाहते हैं
किसी शो की प्रतियोगिता में जुटे हैं लगातार
मन मोह लेते हैं
सबका अपने अभ्यास से
इनका कोई उस्ताद नही है
ये बन रहे हैं अपने आप मे उस्ताद
अच्छे लगते हैं मुझे
इनके सपने और इनकी कलाबाजियाँ
प्रतियोगिता में नही चुने जायेंगे
तो भी बहुत काम आयेंगी ये कलाबाजियाँ
कुछ न कुछ कर ही गुजरेंगे जिन्दगी में
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पगवीथी पर टहलते हैं
तमाम आम लोग
जिनके चेहरे सब जानते हैं
सबसे होती है राम-राम
अधेड मोटी औरतें और मर्द
लगाते हैं कई चक्कर
मोटापा घटाने के लिए
आती है एक गर्भिणी
अपने पति के साथ
मेरा हर तिनका रोमांचित होता है
देखकर उनका साहचर्य
वो आठ दस चक्कर लगाने वाली
लडकी अब नही आती
शायद हो गया होगा उसका फिटनेस टेस्ट
घूमती हैं मोटापा घटाने के लिए
दो लडकियाँ हिलमिल
बतियाती हैं अपनी ही धुन में
एक कीकर जैसी साँवली
दूसरी सफेदे जैसी गोरी
ये जान गयी हैं जीरो फिगर का मर्म
वो रस्सी कूदनेवाली लडकी
आती है माँ के साथ
दोनो कूदती हैं रस्सी
उन्हे उछलता हुआ देखते हैं
मनचले लोग
रस्सी के वृत्त में
उछलते हैं उनके अंग
लहराते हैं दुपट्टे पतंग से
लेकिन उन पर
किसी हवा का असर नही होता
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मन बतकही में रमता है
थोडी कसरत-थोडा टहलना
और देखना लोगों के आरपार
बस यहीं होता है
खुला है यहाँ आसमान
पुरवा पछुआ
और बसंती का सुख यहीं मिलता है
गुनगुनी धूप सहलाती है जोडों का दर्द
सर्दियों में देरतक बैठते हैं लोग-
धूप के लिहाफ में
रहता है यहीं कहीं
एक नकुल परिवार
अपने किसी दुर्ग में
छोटे बडे मिलाकर हैं कई सदस्य
उछलते हैं धूसर नकुल शिशु
धूप की आँच में
दिल्ली में सन्युक्त परिवार
अब देखने को नही मिलते
###########
गर्मी में जुडाते हैं लोग
थके हुए कामगर सो जाते हैं
मेरी बेंच पर बेरोक टोक
आषाढ आते ही गिलहरी
बनाने लगती है अपना घर
प्रजनन से पहले
वो बिछा ही लेना चाहती है
अपना नरम होलडाल
गोल गोल घुमाकर
वह चढती है उल्टे पाँव
कीकर की फुनगी पर
कौओं से आँख बचा
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मेरा रोम रोम भीगता है
बरसात में
भीगने से बचते हैं लोग
उनके लिए हरी छतरियों वाले पेड
खडे है मेरे आगन में
रजस्वला धरती पर बरसता है बादल
तो हरा हो जाता है मेरा मन
माटी की सोंधी महक
भर जाती हैं रोम रोम में
कुलबुलाते हैं तमाम जीव
केचुए-घिनौरी और वीरवधूटियाँ
रेंगने लगते हैं देखते देखते
उग आते हैं केचुओं के घर
नरमायी धरती पर
चमकते हैं एक रूप
योजनाबद्ध ढंग से बनायी गयी
बस्ती की तरह
चीटियाँ चली जाती हैं सुरंग में इन्हीदिनों
बहुत प्राचीन निवासी हैं
वो इस धरती की
उन्हे ऋतु के हिसाब से
धरती पर रहने का हुनर आता है
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कातिक आते ही
कुत्ते करने लगते हैं किलोल
बैठना मुश्किल कर देते हैं
लोगों का आसपास
नमालूम कहाँ से आ जाते हैं
ये निगोडे देसी कुत्ते
जब जाडा बढ जाता है
तो पूस की ठंड में
काँप जाता है मेरा मन
ठिठुर जाते हैं फूल
ओस और पाले की रात में
सबको कहाँ मिलती है छत
सबको कहाँ मिलती हैं टोपियाँ
सबको कहाँ मिलते हैं लिहाफ
############# लिली
बसंत आता है तो
सुर्ख सुकुमार किसलयों पर
भौंरे बीन बजाते हैं
तितलियाँ नाचती हैं
मधु उतर आता है चारो ओर
फूलों पर मधुमक्खियाँ मँडराती हैं
क्यारियाँ रंग-बिरंगे फूलों से सज जाती हैं
बसंत की घोषणा मे तन जाते हैं
भोंपू जैसे पीले कनेर
मगन हो फूलते हैं सभी
लिली-चमेली-गुडहल
लेकिन जब फूलती है नीम
तो मन मचलने लगता है
कोयल गाती है राग बसंत
बसंता गाता अविराम
गर्मी बढती है तो
जेठ में फूलता है अमलतास
फिर महक उठता है मेरा आँचल
सोनपरी उतर आती है
कानों में सोने के झुमके लटकाये
पाम है –लतायें है-सदाबहार है
सब बैठे हैं मेरे आँगन में
क्यारियों में झूमती है लिली
जैसे सुन्दरियाँ डोलती हैं रैम्प पर
मेरे हृदय मे लहराता है सुन्दरवन
बिछा है कालीन हरी घास का
आओ तो सही मेरे पास
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ये कवि-लेखक मानते नही
कविता कहानी पर
करते हैं बात अधिकतर
गनीमत है कि यहाँ
अपनी सुनाने का रिवाज नही है
चर्चा में आती है कथादेश
समयांतर और हंस
तद्भव-आलोचना- वागर्थ
वसुधा-अलाव –सर्वनाम
आजकलऔर नयाज्ञानोदय
जनसत्ता की होती है चर्चा विशेष
बात होती है रंगमंच की
कारंत-अल्काजी-हबीबतनवीर की
बात चलती है फिल्मों की
फिल्मी गानों की
राजकपूर-दिलीपसाहब
संजीवकुमार और अमिताभ की
नरगिस-मीनाकुमारी –वैजंतीमाला
नूतन और रेखा की
नासिरुद्दीन-नानापाटेकर-पंकजकपूर
अनुपमखेर और परेशरावल के अभिनय की
बात होती है गीतकारों
संगीतकारों की हरिप्रसाद चौरसिया
और भीमसेनजोशी की
लता –मन्ना डे-मुकेश और रफी की
इसी बीच
मन की तरंग पर
नागदेव गाते हैं मराठी गीत
मन मे भर जाती है अभंग की उमंग
बतकही का क्या है जिधर घूम गये
घूम गये
############
बहुत दिनों से नजर नही आया
वह पापडवाला
वो डलिया मे रखकर पान बेचनेवाला
वो बडे मिंयाँ जो सिलते थे कपडे
और पेश करते थे कलाम
वो ललवानी साहब
चटाई लेकर आते थे व्यायाम के लिए
वो मैदानीजी और वो शर्मासाहब
चले गये सब पता नही कहाँ
आता था एक तीतरवाला
पिंजरे में लेकर एक जोडा
चुग्गा चुगाने के लिए
दीमक की खोज में
छोडता था एक एक को बारी-बारी
उसे मालूम था कि
पिंजरे वाले की चाहत
दूसरे को खींच ही लायेगी
उसके सीटी बजाते ही
बाहरवाला लौट आता था उसकी कैद में बतकही
लाता था खरगोश थैले मे डालकर
टहलाने के लिए
फुदकते हुए खरगोश को देखकर
मेरे आँगन का अतीत
मेरी आँखों में नाचने लगता है
उडा ले गयी समय की आँधी
खुशबू की तरह बिखर न गये हों कहीं
लेकिन पेडों ने टेप कर लिए है
पंछियों के रुदन और गान
कबूतरों की गुटरगूँ
कौवों की काँय-काँय
कुत्तो का गुर्राना
कोयल की कूक
ट्यूबवेल की हूक
लोगों के सुख और लोगों के दुख
वह सब जो घट चुका है
मैने कर लिया है अंकित हृदय पर
मैं देखता हूँ पत्तियों की आँख से
सुनता हूँ फूलों के कान से
लिखता हूँ फुनगियों की कलम से
धरती पर अमिट लेख
मेरा क्या है
मैं चेतन होकर भी जड हूँ
बडा कठिन होता है
संग होकर भी निस्संग होना
##########
बडे चटोरे हैं ये लिखने पढने वाले
मिठाई का नाम सुनते ही
ये लटपटा जाते हैं
हीरा की बालूशाही-श्याम की लस्सी
नेतराम की जलेबी-
रामआसरे की मलाईगिलौरी
पंछी का पेठा
बृजवासी की रसमलाई
मथुरा का पेडा और नजाने कितनी
मिठाइयों पर होता है विमर्श
सत्तू-लिट्टी-चोखा-पोहा
पनेथी –सकपहिता-रसावल
दहीबडे-सतपुतिया-
मछली-बिरियानी-कबाब
शबाब और शराब पर भी होती है बातचीत
स्वाद के आस्वाद पर होता है विमर्श
बतरस में होते हैं विविध रस
चलती है रसचर्या बहुविधि
बातों में घुलमिल जाते हैं षडरस
(तिक्त-मधुर-कटु-अम्ल-काषाय और लवण)
बहुत आत्मीय होती है बातचीत
सुनाते हैं यात्राप्रसंग
बाहर से लौटकर
दिलखोलकर करते हैं समीक्षा
सही और गलत की
टकराते हैं विचार बार बार
लेकिन फिर चाय और फैन के साथ
हो जाती है सहमति
बीच में लपलपायी जबानवाला
एक सभ्य कुत्ता झाँकता है
उसकी पनियल आँखों में
चमकती है प्रणति
भूख की यह प्रणति देख याद हो आती हैं
राजकपूर की फिल्में
और उनके कुत्ते
ये मुफ्तखोर कुत्ता किसी काम का नही
यह जानकर भी
फेक ही देते हैं एक टुकडा
उसकी तरफ अक्सर
###########
ख्वाब न होते
तो दुनिया बेमानी हो जाती
बात होती है ख्वाबों की
बात बात में होती है कविता
बातचीत ही तो होती है कविता
दुरि बैठि बिराजति बात बनी
घनानंद ऐसे ही नही
बने प्रेम के कवि
बात बनने लगती है
तो होता है रसबोध
नवरसरुचिरा होती है बतकही
दूब हरियाती है यहाँ सर्जना की
हर बेंच कुछ कहना चाहती है
समय की हथेली पर
बात बिराजती है मेरे प्राणों में
बातों की दुनिया बसती है मेरे मन में
बस नही हैं मेरे पास
चिडिया को फुसलाने वाले शब्द
हरेपन की भाषा में जैसा कह पाता हूँ
सुन सकते हो तो सुनो
देखो किस तरह
जलता हूँ-जुडाता हूँ-भीगता हूँ
हरी भरी भाषा में लिखता हूँ
जीवन समग्र
मै केवल पार्क नही हूँ
###### पार्क की बेंच
*भारतेन्दु मिश्र (मैने कई बैठको अर्जित अनुभवो को जिया है इस कविता मे तब यह इस रूप मे बन पडी)
भारतेंदु जी, आपका ब्लॉग देखा। लम्बी कविता, वह भी नेट पर ! बहुत कठिन होता है पढ़ना। पर सच माने, पढ़ने बैठा तो छोड़ नहीं पाया। पढ़ता चला गया निरंतर, बिन बाधा,बेरोकटोक या यूँ कहूँ तो ज्यादा सही होगा कि कविता खुद को पढ़वाती चली गई। किसी भी रचना की- चाहे वह गद्य हो या पद्य- यही एक खासियत होनी चाहिए कि वह खुद को पढ़वा ले जाए। आरंभ में एक पॉर्क की व्यथा-कथा लगने वाली यह कविता धीरे-धीर कैसे अपने आसपास को अपने में समेटने लगती है, जीव-जन्तुओं से, लोगों से, गरीब-निर्धन बच्चों से, मौसमों से, बारिश से, हवा से, धूप से गहन संवेदना के स्तर पर जुड़ती चली गई है, यह अपने आप में एक खास और प्रभावकारी बात है। बीच-बीच में बहुत सी पंक्तियाँ इतनी सुन्दर और कवितामयी हैं कि अभिभूत हो जाना पड़ा, जैसे -
जवाब देंहटाएंहरेपन से रिश्ता अभी टूटा नही है
00
आँधियों से जूझकर झुके हुए
कई पेड़ सुस्ता रहे हैं
उनके ठूँठों पर बच्चेअ
चढ़ते – उतरते है
खींचते है उनके कान
अपनी नरम हथेलियों से
ये शैतान बच्चे
मानो उड़ा रहे हों किसी बूढ़े का मजाक…
00
कठिन है
साँझे हो रहना विचारों में
उससे भी ज्यादा कठिन है
साँझी हँसी
हँसना खुद पर तो मानो पहाड़ तोड़ने जैसा है…
00
रजस्वला धरती पर बरसता है बादल
तो हरा हो जाता है मेरा मन
00
चींटियाँ चली जाती हैं सुरंग में इन्हीं दिनों
बहुत प्राचीन निवासी हैं
वो इस धरती की
उन्हें ॠतु के हिसाब से
धरती पर रहने का हुनर आता है…
00
जब बढ़ जाता है जाड़ा
तो पूस की ठंड में
काँप जाता है मेरा मन
ठिठुर जाते हैं फूल
ओस और पाले की रात में
सबको कहाँ मिलती है छत
सबको कहाँ मिलती हैं टोपियाँ
सबको कहाँ मिलते है लिहाफ़…
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ख्याब न होते
तो दुनिया बेमानी हो जाती…
और कविता की ये अन्तिम पंक्तियाँ मन पर अपनी छाप छोड़ गईं-
बस नहीं हैं मेरे पास
चिड़िया को फुसलाने वाले शब्द
हरेपन की भाषा में जैसा कह पाता हूँ
सुन सकत हो तो सुनो
देखो किस तरह
जलता हूँ, जुड़ाता हूँ, भीगता हूँ
हरी-भरी भाषा में लिखता हूँ
जीवन समग्र
मैं केवल पार्क नहीं हूँ…
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सचमुच, पॉर्क केवल पॉर्क नहीं है।
कविता के साथ सभी चित्र भी जीवंत हैं।
बहुत ही सुन्दर, मन को बाँधने वाली इस कविता के रचयिता का नाम भी दे देते तो बहुत भला होता। वैसे आपका ब्लॉग है, आप स्वयं एक संवेदनशील कवि हैं, अत: इसे मैं आपकी कविता ही मान रहा हूँ।
आपके इस ब्लॉग की इस पोस्टिंग को अन्य पाठक भी पढ़ने से वंचित न रह जाएँ, अत: मैं इसे अलग से अपने मित्रों को फारवर्ड कर रहा हूँ।
पुन: ऐसी सुन्दर पोस्टिंग के लिए बधाई !
सुभाष नीरव
9810534373
HAREPAN SE LABAREZ KAVITA K LIYE BADHAIYAAN...
जवाब देंहटाएंऔर पाइप सुलगा रहे हैं
जवाब देंहटाएंकाला चश्मा चढाये राजेन्द्र यादव
बतकही के बीच आते हैं
क्या बात है ....
बहुत खूब .....
राजेन्द्र जी का कला चश्मा काफी प्रसिद्ध हो चूका है ....
पिछले दो एक सालों में हिंद युग्म वालों ने भी खूब चर्चा की थी इस चश्मे की ....
जब कोई लचर लबार
पुरस्कार के पीछे भागता है
तो यहाँ चर्चा होती है
कफन सम्मान की
कि अमुक को दे ही दिया जाये
दबोचकर यह सम्मान
सिर पर फोडकर नारियल
ओढा ही दी जाय सफेद शाल
अधेड मोटी औरतें और मर्द
लगाते हैं कई चक्कर
मोटापा घटाने के लिए
आती है एक गर्भिणी
अपने पति के साथ
मेरा हर तिनका रोमांचित होता है
देखकर उनका साहचर्य
जलता हूँ-जुडाता हूँ-भीगता हूँ
हरी भरी भाषा में लिखता हूँ
जीवन समग्र
मै केवल पार्क नही हूँ
सुभानाल्लाह .....
ये डियरपार्क का संवाद बरसों याद किया जायेगा .....
भारतेन्दु मिश्र जी को पढ़ता रहता हूँ , लेकिन इनकी ये कविताएँ लीक से हटकर हैं और आत्म मंथन के लिए बाध्य करती हैं । अखबारों ने जिस कविता को देश निकाला दे दिया था , उसे इतने सशक्त रूप में पाकर रोमांचित हूँ ।
जवाब देंहटाएंरामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
बतकही का रोचक रेखाचित्र
जवाब देंहटाएंदिनोदिन के जीवन को
साझा कर रहे हैं मित्र
बहुत जीवंत कविता है। इतनी सुंदर कविता पढ़वाने केलिए शुक्रिया !
जवाब देंहटाएंरवीन्द्र कात्यायनः बेहद शानदार अनुभव बिंब हैं इस कविता में. डियर पार्क जैसे एक ओर दिल्ली के साहित्यिक जगत का झरोखा है तो दूसरी तरफ समाज की टूटती, बदलती, लड़खड़ाती, सँभलती संस्कृति और व्यवस्था का साधारणीकरण भी है. दिल्ली में भी जैसे एक अदृश्य दिल्ली का रूप साकार हो उठा है. बधाई स्वीकार करें !!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ...
जवाब देंहटाएंसुभाष जी के सौजन्य से यहाँ तक पहुंचना आसान हुआ.Thanks
डियर पार्क के कुछ क्षणों को जिया है मैंने भी......कभी कभी जाड़ों में मित्रों की बैठक लगती थी वहाँ पर ....
जब उत्तराखंड दिवस मनाने जाते थी वहाँ
क्या से क्या होते देखा है इसे ..
आभार share करने का...
Yaadon ko sakaar karne kaa
अद्भुत.....बस ....!कविता पढ्त्ते समय उसका एक एक शब्द उसके अर्थ का खुद ब खुद बिम्ब बनता चला जाये,शब्द की गूंज को भीतर तक प्रतिध्वनित करता रहे देर तक ,और वो भी ओरिजनल चित्रों की खूबसूरती के साथ...पहली बार कविता,फोटोग्राफी,और नाटक एक साथ एक एक धरातल पर देखने पढने को मिले !''कान खींच रहे...''फोटो अद्भुत है !सच कहूँ ,अब लम्बी फ़िल्में,उपन्यास,लम्बे नाटक देखने की आदत सी छूट गई है (या सप्रयास छुड़ा दी गई है)तो एक बार तो एक नज़र में कविता की लम्बाई देखकर कुछ घबरा सी गई थी (क्षमा प्रार्थना सहित)पर जब पढना शुरू किया तो चलचित्र की तरह देखती चली गई...!शब्द नहीं हैं कुछ प्रसंशा के लिए.वैसे भी नए प्रयोग आकर्षित करते हैं जब पुरानों से उकताहट होने लगे
जवाब देंहटाएंबधाई
वंदना
बहुत खूब, इसकी नाट्य प्रस्तुति होनी चाहिये। इस नाट्य प्रस्तुति के लिये बिलकुल उपयुक्त कविता।
जवाब देंहटाएंसभी मित्रो का हृदय से आभारी हूँ जिन्होने मेरी कविता मैं डियरपार्क हूँ को पढा और अपनी बहुमूल्य राय भी दी। जिन दस मित्रो की टिप्पणियाँ मिली उनमे-सुभाष नीरव,हरकीरत हीर,रामेश्वर कम्बोज हिमांशु,गिरीश पंकज,देवमणि पाण्डेय,रवीन्द्र कात्यायन,एम.ए.शर्मा सेहर,वन्दना शुक्ला और पूर्णिमा वर्मन सहित सभी को धन्यवाद। खासकर सुभाषनीरव,हरकीरत हीर,वन्दना शुक्ल, जी ने तो पूरी समीक्षा ही कर दी।
जवाब देंहटाएंAtyant jeevant kavita! badhai!
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता। आपने इस कविता में अच्छे बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग बखूबी किया है। भूमंडलीकरण के इस विकट दौर में प्रकृति से दूर होते मनुष्य की रागात्मकता को बचाए रखने पर जोर दिया है। दूभर होते इस समय में जीवन को अनेक पहलूओं से देखते हुए डीयर पार्क का सुन्दर एवं सटीक चित्र इस कविता को जीवन्त बनाता है। साथ ही दिलशाद गार्डन के साहित्य मित्रों की चर्चाओं को खुले दिल से बड़ी ही सागर्भिता के साथ यहाँ उपस्थित किया है। आपको बधाई।
जवाब देंहटाएं... ab kyaa kahen ... bahut sundar ... prasanshaneey lekhan ... behatreen post ... bahut bahut badhaai !!!
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
जवाब देंहटाएंनव वर्ष कि आप का बहुत बहुत बधाई ,
सुन्दर कविता। आपने इस कविता में अच्छे बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग बखूबी किया है।
saadar