शुक्रवार, 27 मार्च 2009

संस्कृत नाटक:परम्परा तथा संभावनाएँ


संस्कृत रंगमंच की परंपरा सहस्रों वर्ष पुरानी है। वैदिक यज्ञों तथा वैदिक समाज के अनुष्ठानों से ही इस परंपरा के बीज हमे दिखाई देते हैं।ऋग्वेद में आये अनेक –पुरुरवा-उर्वशी,यम-यमी,इन्द्र-अदिति-वामदेव,इन्द्र-मरुत,अगस्त्य-लोपामुद्रा आदि संवाद सूक्त प्राचीन नाट्य का ही रूप हैं। भरत ने ब्रह्मा को नाट्यशास्त्र का रचयिता कहा है। भरत जिनका समय ईसा पूर्व चौथी सदी से लेकर ईसा पूर्व पहली सदी तक माना जाता है उनके समय में भी लोक में नाटक प्रतिष्ठित रहा होगा ऐसा संकेत स्वयं भरत देते हैं। कैशिकी वृत्ति को भरत शिव परिवार से और विष्णु भगवान से उपलब्ध मानते हैं। इसी प्रकार संगीत के प्रवर्तकों में नारद तथा स्वाति आदि का नाम भरत आदर से लेते हैं। अर्थात् भरत से पूर्व भी लोक में नाटक खेलने की परंपरा किसी न किसी रूप में अवश्य प्रचलित रही होगी। यही कारण है कि भरत अनेक स्थलों पर कहते चलते हैं-नानाशीला:प्रकृतय:शीले नाट्यं प्रतिष्ठितम्
तस्माल्लोकप्रमाणं हिविज्ञेयंनाट्ययोक्तृभि:।

बाद में ग्रंथ की परिसमाप्ति पर भरतवाक्य में भी वे कहते हैं—न प्रोक्तं यच्च लोकादनुकृतिकरणं तच्च कार्यं विधिज्ञै:।
अर्थात् लोक परंपरा ही रंगमंच के लिए प्रबल प्रमाण है। भरत का मानना है कि जो कुछ इस ग्रंथ में न आ सका हो उसे लोक प्रयोग परंपरा के अनुसार क्रिया विधि को जानने वाले नट ,सूत्रधार आदि को लोक परंपरा से ग्रहण कर लेना चाहिए। संस्कृत रंगमंच की यह परंपरा निश्चित रूप से पाणिनि जैसे वैयाकरण से भी पूर्व प्रचलित रही होगी।
पाराशर्यशिलालिभ्यां भिक्षुनटसूत्रयो: इत्यादि सूत्र से यही प्रमाणित होता है।
भरत केवल शास्त्रकार नहीं है अपितु वे संस्कृत रंगमंच के प्रथम प्रयोक्ता भी हैं।
खुले आकाश के नीचे सर्व प्रथम अमृतमंथन नामक नाटक भरत के ही निर्देशन में उनके शिष्यों द्वारा खेला गया। कुछ असुरों द्वारा व्यवधान उत्पन्न किये जाने पर भरत ने पहली बार प्रेक्षागृह का निर्माण कराया और फिर समुद्रमंथन नामक नाटक का सफल मंचन हुआ।इसी प्रकार त्रिपुरदाह नामक नाटक के मंचन का भी उल्लेख मिलता है। संस्कृत प्रयोग परंपरा की दृष्टि से देखें तो ये सब आदिम नाट्यप्रयोग कहे जा सकते हैं। प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी नाट्यशास्त्र विश्वकोश की भूमिका में कहते हैं-'ईसा पूर्व की शताब्दियों में नाटक राजमहल से लेकर गाँवों तक फैल चुका था।..इसी वातावरण में भास सौमिल्ल कविपुत्र तथा अश्वघोष जैसे बड़े नाटककार जनमे तथा लौकिक संस्कृत नाटक(क्लासिकल संस्कृत ड्रामा)के युग का सूत्रपात हुआ।'
कहा जाता है कि भरत के सौ पुत्रों को शूद्र होने का शाप देकर ऋषियों नें समाज से बहिष्कृत कर दिया था। तब नहुष जैसे कुछ राजाओं ने उन्हे शरण दी और नाट्य प्रयोग परंपरा को दरबारों में बचाकर रखा।
संस्कृत नाटकों की प्रयोग परंपरा कालिदास के समय में बहुत आगे बढ़ चुकी थी। मालविकाग्निमित्र में कालिदास सूत्रधार के माध्यम से कहते हैं-पूर्वेषां कवीनां दृष्टा:प्रयोगबन्धा:। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि ये प्रयोग राजदरबारों में ही होते रहे होंगे। राजदरबारों में ही कवियों कलाकारों की विद्वत सभा होती थी। संस्कृत रंगमंच की प्रयोग परंपरा के इतिहास की द्रष्टि से भास के नाटक स्वप्नवासवदत्तम् ,प्रतिज्ञायौगंधरायणम् आदि तथा कालिदास के मालविकाग्निमित्र और विक्रमोर्वशीयम् आदि नाटकों की प्रस्तावना बहुत महत्त्वपूर्ण है। मालविकाग्निमित्र नाटक संस्कृत नाट्ययुग की कलात्मक परिपक्वता का प्रतीक है।
शूद्रक का मृच्छकटिकम् संस्कृत रंगपरंपरा का दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रस्थान बिन्दु है। यहाँ राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियाँ लोकधर्मी परंपरा के रूप में प्रकट हुई हैं। इस नाटक की प्रस्तावना से ही प्रकट होता है कि इस नाटक का रचनाकार कोई चक्रवर्ती सम्राट शूद्रक था। जो दिवंगत हो चुका है। यह छद्म नामवाला शूद्रक कौन था कहना कठिन है। यहाँ आर्यक नामक जिस लचर राजा और उसकी बेहद लचर राज्यव्यवस्था का उल्लेख मिलता है वह यथार्थवादी समाज का प्रतिनिधि रूप है।तथा शकार जैसे खलनायक का जो रूप नाटक मे उभरता है वह भी अद्भुत है। परंतु लोकधर्मी इस नाटक की तुलना में दूसरा कोई नाटक कदाचित ही विश्व साहित्य में मिले।
विशाखदत्त का नाटक मुद्राराक्षस अपने आप में अनोखी नीति परंपरा राजनीति और कूटनीति की मिसाल प्रस्तुत करता है। पूरे नाटक में नारी पात्र नहीं है। इसी प्रकार भट्टनारायण का वेणीसंहार नाटक भारतीय रंगमंच पर दुखांत नाटकों की परंपरा में ओज और वीभत्स का प्रतिनिधित्व करता है।
जहाँ तक संस्कृत नाटकों के मंच प्रयोग की बात है तो ये अधिकांश नाटक वसंतोत्सव में खेले जाते थे। कुछ नाटकों के ग्रीष्म में भी खेले जाने की सूचना मिलती है। श्रीहर्ष संस्कृत नाटकों की प्रयोग परंपरा को और आगे बढाते हैं। रत्नावली तथा प्रियदर्शिका नाटिकाओं की प्रस्तावना से ज्ञात होता है कि ये नाटक हर्ष के समय में ही अनेक बार खेले गये होंगे। बोधायन का प्रहसन भगवदज्जुकम् अपने ढंग की अनूठी प्रस्तुति है। सामाजिक विसंगतियों का विरूप रंगमंच पर हास्य के माध्यम से पहली बार भगवदज्जुकम् में प्रस्तुत हुआ।इसीप्रकार महेन्र्दविक्रम का प्रहसन मत्तविलास भी अपनी हास्य व्यंग्य शैली के लिए प्रसिद्ध हुआ। दक्षिण भारतीय मंदिरों में इन दोनो नाटकों का बहुत बार मंचन हुआ।
भवभूति के नाटकों मालतीमाधव,तथा उत्तररामचरित की प्रयोग परंपरा अलग श्रंगार तथा करुण प्रसंग की द्रष्टि से अप्रतिम है।
शकुंतला-दुष्यंत, वासवदत्ता-उदयन-सागरिका, मालविका-अग्निमित्र, वसंतसेना-चारुदत्त, सीता-राम, द्रौपदी-भीम-दुर्योधन-युधिष्ठिर-शकुनि-श्रीकृष्ण, चाणक्य-चन्द्रगुप्त जैसे अनेक जीवंत पात्र संस्कृत रंगमंच से ही निकल कर लोक में आये हैं। आज हमारे सामने इन पात्रों की विभिन्न छवियाँ उभरती हैं। इन पात्रों का नाम लेते ही भारतीय सौंदर्यशास्त्र की लोकवादी परंपरा का सहज रूप में ही आभास होने लगता है, क्योंकि ये सभी पात्र कहीं न कहीं अपनी मूल छवि के साथ रंगमंच पर रूढ़ हो चुके हैं। क्लासिकल संस्कृत नाटक का परिदृश्य इन्ही रूढ हो चुके पात्रों की पहचान के रूप में आज भी सुरक्षित है।
संस्कृत रंगमंच और मंचीय कलाओं का विकास दक्षिण में अधिक योजनाबद्ध ढंग से हुआ। चिदंबरम का नटराज मंदिर भरत के नाट्यशास्त्र की प्रयोग परंपरा का मूर्त रूप है।जहाँ 108 करणों की मूर्तियाँ बनायी गयी हैं। दक्षिण भारत के मंदिरों में संस्कृत रंगमंच की परंपरा बहुत समय तक यथावत जीवित रही उसके बाद यही परंपरा कुडियाट्टम् यक्षगान और अन्य रंगमंचीय लोक परंपराओं - भरतनाट्यम् कथकली कुचिपुड़ी गरबा आदि लोक नृत्यों से जुड़कर नये रूपों में विकसित होती रही। उत्तर भारत में भी लोकनाट्य की अनेक परंपराऍ नौटंकी रास साँग बिहू नटुआ नाच रामलीला हुड़ुक किरतनिञा आदि का प्रयोग कहीं न कहीं संस्कृत रंगमंच की प्रयोग परंपरा का लोक रूप है।
पूर्वोत्तर भारत के अनेक राज्यों खासकर बिहार में ज्योतिरीश्वर ठाकुर का धूर्तसमागम, उमापति का पारिजातहरण,
तथा विद्यापति का गोरक्षविजय आदि नाटकों के मंचन की परंपरा का उल्लेख मिलता है। ये सभी नाटक संस्कृत नाटकों की परंपरा में ही खेले जाते थे।बिहार नाट्यशास्त्र के प्रसिद्ध टीकाकार नान्यदेव की धरती रही है।
जहाँ तक नाट्यशास्त्र सम्मत प्रयोग परंपरा का प्रश्न है तो भरत की रंगचर्या के अनुसार संस्कृत नाटकों का प्रयोग भी आधुनिक युग में किया जाने लगा है।विशेषत:भरत के अनुसार आंगिक अभिनय की पद्धतियों का प्रयोग इब्राहिम अलकाजी, ब.व.कारंत, गोवर्धन पांचाल, वेंकटराम राघवन, विजय मेहता, हबीब तनवीर, कावलम नारायण पणिक्कर, कमलेशदत्त त्रिपाठी, राधावल्लभ त्रिपाठी, राजेन्द्र मिश्र, शेखर वैष्णवी, सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ जैसे कुछ रंगकर्मियों और संस्कृतज्ञों ने किया है और आज भी कर रहे हैं।
जैसा भरत नाटक की प्रयोग परंपरा को नाट्यधर्मी और लोकधर्मी दो रूपों में व्याख्यायित करते चलते हैं वैसा आज के समय में प्राय: कम ही देखने को मिलता है। संस्कृत और विशेषकर नाट्यशास्त्र के विद्यार्थी ही नाट्यधर्मी प्रयोग करने मे सफल हो पाते हैं। पात्र के अनुसार वेश-भाषा-वय-वर्ण-विधि-प्रकृति–मंच आदि का नियोजन नाट्यधर्मी कहलाता है जहाँ भरतोक्त नाट्यशैलियों का विधिपूर्वक प्रयोग किया जाता है, जबकि लोकधर्मी में लोकस्वभाव के अनुसार पात्रों की अभिनय परंपरा तथा मंच सामग्री का चयन किया जा सकता है। यही कारण है कि लोकधर्मी में अपनी लोक परंपराओं तथा लोकशैली के अनुष्ठानों के अनुसार नाटक लगातार खेले जाते रहे हैं जो आज भी खेले जा रहे हैं। इब्राहिम अलकाजी, हबीब तनवीर और कावलम नारायण पणिक्कर के नाट्य-प्रयोग लोकधर्मी परंपरा का ही प्रतिनिधित्व करते हैं।
आधुनिक भाषाओं में नाट्य प्रयोग की यह परंपरा विभिन्न भाषाओं और विभिन्न नाट्य शैलियों के साहचर्य में विकसित हुई और आगे भी विकासमान है। संस्कृत रंगंमंच पर भी दुनिया भर की तकनीकि विज्ञान का प्रभाव पड रहा है,वह कितना महत्त्वपूर्ण है यह अलग प्रश्न है। आजकल कथा-मंचन और उपन्यास-मंचन की नई रंगचर्या हिन्दी भाषा में चल पड़ी है। संस्कृत भाषा में नए नाटकों का अभाव नहीं है। फिर भी आधुनिकता के अनुरूप संस्कृत रंगमंच को राष्ट्रीय स्तर पर विकसित करने की आवश्यकता है। संस्कृत रंगमंच के विकास द्वारा ही संस्कृत भाषा का विकास संभव है। समतावादी मानवीय-धर्म और दर्शन आज हमारे समाज की आवश्यकता है। भरत का सच्चा शिष्य रंगमंच पर या कि जीवन में भी जाति–धर्म-लिंग-भाषा-वेश आदि के आधार पर किसी मनुष्य के साथ भेदभाव नहीं कर सकता। यदि कोई ऐसा करता है तो वह भरत–नाट्यशास्त्र का विद्यार्थी नहीं हो सकता। भरत के रंगमंच और उस विशाल परंपरा में जिस लोकोन्मुख समाज की कल्पना की गयी है वह दुनिया के किसी भी समाज के लिए आदर्श है।
संस्कृत में लोकधर्मी और नाट्यधर्मी दोनो प्रकार के नाटक और उनकी रंगपरंपराएँ उपलब्ध हैं। कालिदास अकादमी, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, केन्दीय संस्कृत विद्यापीठ जैसे अनेक मंच भी हैं। हमारे देश के संस्कृतज्ञ लगातार संस्कृत रंगमंच को अपनी तरह से आगे बढ़ा रहे हैं। कथा मंचन की जो परंपरा विकसित हुई है और जो अब उपन्यास पर आधारित नाटक खेले जा रहे हैं। इन सब नए प्रयोगों द्वारा भी नए लोकोन्मुख पात्रों को स्थापित किया जा रहा है। संस्कृत नाटकों में भी पात्रानुसार आवश्यकतानुसार संस्कृत के साथ-साथ संस्कृतेतर भाषाओं का प्रयोग कराना चाहिए यही भरत का मत था। स्थानीय बोलियों का भी प्रयोग यदि किया जाये तो संस्कृत नाटक प्रयोग परंपरा में और निखार आ सकेगा। मुख्य पात्र नायक–नायिका आदि मंच पर संस्कृत में संवाद करें किन्तु अन्य सहायक पात्र प्राकृत के स्थान पर हिन्दी, मराठी, बांग्ला,मलयालम,पंजाबी,गुजराती आदि भाषाओं अथवा अवधी,ब्रज,छत्तीसगढी,बुंदेली,हरियाणवी जैसी बोलियों का प्रयोग करें तो इससे संस्कृत नाटक और संस्कृत रंगमंच का और अधिक विस्तार हो सकता है। हमारे पूर्वज नाट्यकारों ने दासी, सैनिकों, स्त्रियों, सेवकों जैसे अकुलीन पात्रों के लिए स्थानीय प्राकृत भाषा का प्रयोग किया था। आज भारत जैसे विभिन्न भाषाओं वाले समाज में बहुभाषिक संवादोंवाले या मिश्रित संवादोंवाले नाटकों की प्रयोग परंपरा को और आगे बढाया जा सकता है।
संस्कृत भाषा में रचनात्मक लेखन जैसा कोई पाठ्यक्रम नही है। संस्कृत रंगकर्मी जैसा भी कोई पाठ्यक्रम शुरू किया जा सकता है। हमारे क्लासिकल नाटकों की डी.वी.डी. या सी.डी. निर्मित की जा सकती है। बच्चों को आकर्षित करने के लिए पंचतंत्र की कहानियौ का भी मंचन किया जा सकता है। कुछ प्रगतिशील अध्यापक लगातार इस प्रकार के प्रयोग करते रहे हैं। हिन्दी में यदि अनामदास का पोथा, बूँद और समुद्र, गोदान आदि का मंचन हो सकता है तो संस्कृत के रंगकर्मी कादंबरी, दशकुमारचरित विक्रमादित्य कथा आदि का मंचन क्यो नही कर सकते?
आवश्यक यह भी है कि वह सूची भी बनायी जाये जिन नाटको का मंचन अभी नही हो पाया है। आकाशवाणी के लिए श्रव्यनाटक का एक नया रूप भी हमारे सामने है। कलानाथ शास्त्री, श्रीराम वेलणकर, रमाकान्त शुक्ल आदि इस रेडियो- नाटक की दिशा में लगातार प्रयत्न करते रहे हैं। आधुनिक विषयात्मक तथा नए समय में लिखे गये अनेक नाटक नव्य चेतना से परिपूर्ण हैं। हरिनारायण दीक्षित का मेनकाविश्वमित्र सातवें दशक में लिखा गया अच्छा नाटक है। राघवन कृत अनारकली,मिथिलेश कुमारी मिश्र कृत आम्रपाली, राजेन्द्र मिश्र कृत विद्योत्तमा तथा राधावल्लभ त्रिपाठी कृत सुशीला आदि कुछ ऐसे नाटक हैं जो विविध नारी पात्रों के मनोभावों को प्रकट करने वाले हैं। नए रंगप्रयोग और नवीन रससिद्धि की दृष्टि से इन नाटकों का मंचन बहुत आवशयक है। मंचन के बाद ही किसी नाटक की उपयोगिता का आकलन किया जा सकता है। लिखने भर से कुछ नही हो जाता। संस्कृत भाषा में लिख डालने भर से कुछ नही होता।ऐसे रंगमंच की दृष्टि से अनुपयोगी नाटकों का किसी भी भाषा में कोई अर्थ नही है। रंगमंच पर तो देह की भाषा चलती है, जो अभिनय से प्रकट होकर सहृदय को जोड़ती है। भाषा को लेकर भरत का कहीं कोई आग्रह नही है। संस्कृत रंगमंच और नाट्यशास्त्रीय रंगपरंपरा के बृहदाकाश और रस के अगाध समुद्र की भरत सम्मत व्यापक अवधारणा को हमें और अधिक विस्तार से समझना होगा।हमारा लक्ष्य सहृदय है। वह जिस भाषा को जानता है वही भाषा भरत को भी स्वीकार है। आंगिक अभिनय की भाषा, संगीत की भाषा से जब एकाकार होती है तभी रस की सिद्धि होती है।
यही रंगमंच का व्याकरण है। नाट्यास्वाद प्राप्त करते हुए जिस रस-रूपी ब्रह्म की प्रतीति होने लगती है वह अनिर्वचनीय होती है। अत: संस्कृत रंगकर्मियों को शास्त्राभ्यासजड़ नही होना चाहिए। हर एक रंगप्रयोग अपनी दृष्टि से अनूठा होता है। कालिदास अकादमी, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान आदि मंचों से संस्कृत रंगमंच की जो प्रयोग परंपरा शुरू हुई है वह निश्चित रूप से स्वागत योग्य है।

13 टिप्‍पणियां:

  1. संस्कृत नाटकों पर यह जानकारी बहुत ज्ञानवर्धक लगी।

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  2. significant content regarding drama.It provides very important knowledge about sanskrit dramas.

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  4. Kya mai iska sandrbh de sakti hu apne shodh me..........reply please

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  5. Bhartiya natya parampara logo vyapti Manch hai,jo kuch samajh me nhi aaye to lok se prapt kare

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  6. can i use your content as reference for my research.

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