गुरुवार, 9 मार्च 2017

चंदावती :धारावाहिक (उपन्यास ) ---किश्त-एक-
#भारतेंदु मिश्र
 
 दादा की तेरहवीं

 पूरे तेरह ब्राह्मण पधार चुके थे। उनके लिए अलग चौका लगवाया गया था, नई तेरह धोती अंगौछा, जनेऊ, थालियां ,लोटे, नये पाटे, तेरह तुलसीकृत रामायण के गुटके और तेरह शंख बाजार से मंगवाए गए थे।आस-पास के क्षेत्रों से चुने हुए तेरह ब्राम्हणों को निमंत्रित किया गया था ।उनकी शक्ल तो देखते बन रही थी गोरे सुंदर चुटिया धारी पंडित चंदन टीका लगाए इस प्रकार सजे संवरे लग रहे थे कि मानो अभी सीधे सीधे स्वर्ग से ही उतर कर आए हैं ।गांव के भकुआ लोग उनको आंखें फाड़-फाड़कर देख रहे थे। छोटकऊ महाराज ने पीतल के थाल में उन सभी लोगों के चरण पखारे शिव प्रसाद व चंदावती ने नये अंगौछे से सबके पैर पोछे। मोलहे ने उनको देखकर सकटू से कहा भाई – ‘देखो तो ये कितने सुघड़ पंडित आये हैं।वाह,मन करता है इनको देखते ही रहें’ ‘ हाँ मोहले भाई, भाग्य अच्छा था हनुमान दादा का यह सब सुघड़ पंडित उनके लिए स्वर्ग की सीढ़ी बनाएंगे।‘ ‘ठीक कहते हो भाई, उनको स्वर्ग अवश्य मिलेगा , देवता थे हनुमान दादा, यह सब उनके कर्मों का ही प्रताप है - बहुत बड़े आदमी थे वो। अब ब्राम्हणों के टोले में कोई उतना प्रतिष्ठित आदमी नहीं रह गया है ।‘ हम तो यह भी कहते हैं कि दो-चार-दस गांवो में उनके जैसा आदमी खोजने पर नहीं मिलेगा।  हवन का धुआँ चारों तरफ फैल गया था। पूर्णाहुति होने के बाद शंख -घंटे बजने लगे। लिपे-पुते आंगन में तेरहों ब्राह्मणों की चौकियां सजा दी गई थी। सभी देवता नवग्रह ,कुत्ता, कौआ, गाय और पंचतत्वों का भोग लगा दिया गया था। अब सभी ब्राह्मण खाने लगे थे। वाह चन्दावती दाई इतना अच्छा प्रबंध, इतना बढ़िया भोजन बहुत वर्षो बाद मिला है। हनुमान दादा की आत्मा तो तुम्हें स्वर्ग से निरख रही होगी, और तुम्हे बहुत आशीष दे रही होंगी।--- -ब्राम्हणों के मुखिया ने कहा। चन्दावती की आंखें भर आयी। अपने आंचल में मुंह छुपा लिया। अब वहां पर उपस्थित सभी स्त्री-पुरुष तरह-तरह की बातें बनाने में लगेथे । रामफल दादा दूर बरामदे में बैठे थे। वो भी मौक़ा देखकर शुरू हो गए थे और गांव के लोग उनकी बतकही सुनने लगे-- पं. रामदीन शुक्ल और हनुमान दादा तो दौलतपुर की नाक थे। उनका बड़ा पौरुष था। दस पाँच कोस तक के गांव - क्षेत्र में उनका रुतबा था। दौलतपुर के सबसे बड़े किसान थे। गांव में बस उनके घर के दरवाजे पर ही ट्रैक्टर खड़ा है।‘ दौलतपुर में लगभग पचास घर थे जिनमे -तेली , कहार , धोबी , पासी , चमार , मुराऊ ,ठाकुर , मुसलमान , सभी जातियों के घर थे। गांव में ब्राम्हणों के कुल जमा तीन घर थे। किसी ने पूछा कितनी आयु थी हनुमान दादा की? रामफल ने फिर बताना चालू किया – ‘अभी तो मुश्किल से पैंसठ की उम्र हुई होगी , हमसे तो पाँच साल छोटे रहे , बस उनका समय पूरा हो चुका था, सो चल बसे। नामी पहलवान थे हनुमान भाई। अपनी जवानी में जब वो कुश्ती लड़ने जाते थे तो हमेशा विजेता बनकर लौटते थे। दौलतपुर की असली दौलत तो हनुमान भाई ही थे। जैसे-जैसे उनका पुरुषार्थ घटता गया वैसे-वैसे उनको गठिया,बाई परेशान करने लगी थी । बहुत दिनों से बिचारे दरवाजे वाले अखाड़े पर भी नही जा पाते थे , इस बात का उन्हें बहुत अफसोस था। बेचारे तैतीस वर्ष की उम्र  में ही विधुर हो गए थे। फिर दो वर्ष बाद उन्हें चन्दावती से प्यार हो गया, साहसी थे वो , नीच जाति की होने पर भी उन्होंने चन्दावती से शादी की और फिर पत्नी का स्थान दिया और इसी प्रकार चन्दावती हर पल उनके साथ रही।यद्यपि चन्दावती उनकी जाति बिरादरी की नहीं थी, उनकी अपनी बिरादरी में बहुत बदनामी भी हुई लेकिन जब उनको प्यार हो गया था तो उन्होंने अपने जीते जी हर प्रकार से निभाया । कहाँ बीस-बिसुआ के कनौजिया पंडित और कहा चन्दावती जाति की तेलिन। उस समय चन्दावती का गौना भी नहीं हुआ था ,जब उसके पति के मौत की खबर आयी थी। चन्दावती वास्तव में चंदा ही थी। उसकी उम्र बीस से अधिक नहीं थी उस समय। जो कोई भी उसको एक बार देख लेता वो देखता ही रह जाता। गांव की रामलीला में वो सीता बनती थी। वो ज़माना ऐसा था जब ब्राम्हणो , ठाकुरों की नजर नीच जाति की बहू बेटी पर पड़ जाती तो वो जब चाहे तब उसे अपनी हवस का शिकार बना लेते थे। उस समय गरीबो के घर की स्त्रियों की कोई इज्जत नही थी , क्योकि दबंगो के उपर कोई कानून नही लागू था। चन्दावती के घर वाले चन्दावती के प्रेम से अत्यधिक प्रसन्न हुए थे। ‘देखो दादा, सौ-सौ रूपये दक्षिणा में दिए जा रहे हैं’- मोलहे ने बीच में इशारा किया। ‘रामफल ने समझाया - ये तेरहवी वाले ब्राम्हण हैं इनको दूर से ही प्रणाम करना ।उनकी नजरों से बचकर ही रहना चाहिए'सकटू पूछने लगे - क्यों दादा ?' 'तुम तो यार यकदम बौडम हो .., यहाँ आये हो तेरही खाने , सवालो की बौछार कर रहे हो. ' 'सकटू भइया तुम जरा तम्बाकू तो बनाओ - लो चुनौटी पकड़ो । अब तम्बाकू ? ...अरे अब भोजन के बाद ही तम्बाकू खाना ।‘ ' अरे तम्बाकू की महिमा तुम्हे नहीं मालूम है, तो सुनो— .
 कृष्ण चले बैकुंठ को , राधा पकड़ी बांह
यहाँ तमाखू खायलो, वहाँ तमाखू नाहि
कुछ समझ मे आया , अभी बहुत समय है तब तक तमाखू बन सकती है जब तक खानदान के मान्य लोग नही खायेंगे तब तक हमारा नम्बर कैसे आयेगा ‘ ठीक कहते हो दादा l’ कहते तो हम हमेशा ही ठीक है, पर तुम सुनते तो हो नही बस मोबाइल कान में चिपकाये रहते हो , बहरे तो हो ही जाओगे ,बनाओ ...तमाखू बनाओ l तेरहो ब्राम्हण दक्षिणा लेकर चलने लगे| महाब्राम्हण के पैर छूकर चन्दावती ने उसको पाँच सौ रुपये अलग से दक्षिणा में दिए l प्रसन्नता से उसकी आंखों में चमक आ गई और उसने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर आशीर्वाद दिया फिर उसके बाद अन्य तेरहो ब्राह्मणों ने भी उसी प्रकार आशीर्वाद दिए l छोटकऊ महाराज चांदी की तश्तरी में तंबाकू, पान, इलायची, लौंग लेकर आए और आगे बढ़कर सबको देकर प्रणाम करके विदा किया | दो तांगे उन सबको ले जाने के लिये पहले से तैयार खड़े थे। उन दोनों साईसों ने भी भोजन कर लिया था। उनको किराया दिया जा चुका था और घर ले जाने के लिए परुसा भी बांध दिया गया था। जब सारे ब्राह्मण तांगे पर बैठ गए महाबाभन के इशारे पर तांगे हाँक दिए गए। हनुमान दादा की तेरहवी के समय पर आये दोनों घोड़ों की भी खूब दाना - पानी -मेवा आदि से सेवा की गयी थी । वह भी खा - पीकर खूब मस्त हो गए थे। अब तो कार वाला जमाना आ गया है, परंतु ये महाबाभनों के घोड़े तो अभी तक सौ साल पुरानी परंपरा को निभा रहे है। सकटू ने पूछा , दादा! ये ससुरे महाबाभन कार , जीप में न बैठकर ताँगे में क्यों चलते है। अरे ससुरे ढकोसला बनाए है, और तो कुछ नहीं हैl इनको कोई सुख के समय नहीं बुलाता है| अब जाने भी दो यह लोग जितनी जल्दी टले वही अच्छा l महाबाँभनो की विदाई के बाद मान्य लोगों के पैर धोए गए और फिर उनको भी पाटा पर बिठाया गयाl भोजन के पत्तल में सबसे पहले कद्दू की सब्जी परोसी गई जिसमें से पुदीने की सुगंध फैल रही थीl सोठवाले आलू की भुजिया , छुहारे वाला गलका , उड़द की दाल भरी कचौड़ी -पूड़ी और इन सबके साथ किशमिश चिरौजी वाली खीर , ये सारे व्यंजन भली - भाँति पुरानी रीति के हिसाब से ही बनाये गए थे। गांव के रिवाज के हिसाब से महाबाभनों के बाद घर के मान्यो को खिलाया जाता था, इसीलिए उनके लिए पत्तले सजा दी गई थीl रामफल, सकटू , मोहले के साथ बैठे थे। गांव व् आस -पास के क्षेत्र के तमाम लोग भोजन के इंतज़ार में तख्तो पर विराजमान थे। रामफल ने चंदावती की प्रेम कहानी फिर से शुरू कर दी थी। भोजन के इंतज़ार में बैठे हुए लोगो को इस सामयिक गाथा में बड़ा आनंद आने लगा था। रामफल की आयु सत्तर वर्ष से काम नहीं रही होगी , उन्होंने अपनी आंखों से सब कुछ देखा सुना था l पुराने सरपंच थे, किसी से डरते दबते नहीं थे l गांव में उनका सम्मान था l सकटू ने तमाखू बनायीऔर रामफल की तरफ बढ़ा दी- ‘लो दादा’ रामफल ने एक मोटी चुटकी रामफल के हाथ से भर ली और उसको गदेली पर रखकर अंगूठे से घिसा | तीन बार फटकार कर झाड़ कर फिर बाएं हाथ से ओठ खोलकर दाएं हाथ की छुटकी से ओठ के नीचे रख ली- अर्थात अब पूरी गाथा सुनाने के लिए उनको पूरी खुराक मिल गई थी l फिर सकटू के मोबाइल की घंटी बजने लगी l वो अपना फोन लेकर अखाड़े की तरफ चले गये l इनका प्रेम कैसे हुआ था दादा? मोलहे ने पूछा- किसको किससे कब मोहब्बत हो जाए इसका तो कुछ पता नहीं, यह तो दिल लगे का सौदा है। क्या पता कहाँ किस समय कौन मन को भा जाए , अच्छा लगने का कोई एक कारण नहीं होता बौड़मदास! कहां बीस बिसुआ के कनौजिया हनुमान महाराज और कहां तेलिन की विधवा बेटी चंदो- मोहब्बत हो गई l.. रावण और सीता के प्रेम की चर्चा बहुत दिनों तक होती रही l ‘यह सब किस प्रकार से हुआ l गांव में तो हम इनके तरह - तरह के किस्से सुनते रहे है – लेकिन आपने तो सबकुछ अपनी आँखों से देखा होगा l...’ ‘क्यों नहीं हमीं ने तो फैसला किया था l’ ‘किस बात का फैसला?’ अरे कई महीनों तक तो चोरी छिपे ये मोहब्बत चलती रही l जब ब्राम्हणों के मोहल्ले में खुसर - फुसुर बहुत होने लगी तो एक दिन छोटकऊ महाराज हमारे पास आए और कहने लगे - दादा अब तो आप ही कुछ कीजिए क्योंकि अब पानी सिर के ऊपर निकल गया है l हमने पूछा – ‘क्या हुआ?’ आप से क्या छुपा है सरपंच दादा,.... उस समय भी मैं ही सरपंच था| छोटकऊ बोले—‘ दद्दू उस तेलिनया चंदावती पर फिदा हो गए हैं l जाति- बिरादरी में सब मान- मर्यादा मिट चुकी है l अब तो घर और खेत के बँटवारे का समय आ गया है l अब आप ही हमको बचा सकते है दादा ------ हम पंचायत बुलाना चाहते हैl’ छोटकऊ! आखिर तुम चाहते क्या हो यह तो बताओ’ ‘ हम चाहते हैं कि हमारे परिवार पर उनकी इस निगोड़ी मुहब्बत का बेजा असर न पड़े। खेती न बटे, दद्दु के आगे पीछे तो कोई है नहीं l कहीं उस तेलिनिया के चक्कर में हमारा घर -खेत सब कुछ न बंट जाए l ठीक कहते हो भैया! , कोशिश किया जाए कि ऐसी नौबत न आवे l  फिर क्या हुआ? फिर हमने ही फैसला किया कि हनुमान और चंद्रावती ब्याह करके इसी घर में रहें l चंद्रावती के घरवाले चाहते थे कि हनुमान और चंद्रावती अलग उनके मोहल्ले में रहे l ब्राम्हणों के मोहल्ले के कुछ बदतमीज़ लोग भी यही चाहते थे कि इन लोगों का आपस में बटवारा हो तो उनकी ताकत कुछ कम हो जाएl हमने यह सब हाल देख सुनकर समय के अनुसार सही सही फैसला किया कि हनुमान दादा और चंदावती व्याह करके इसी घर में एक ही साथ रहेंगे ,बस अपनी रसोई अलग कर लेंगे l छोटकऊ या उनके बेटे या पत्नी को किसी प्रकार का ऐतराज नहीं होना चाहिए , यदि कोई एतराज होगा तो घर का बटवारा होगा और जब घर का बटवारा होगा तो फिर खेती का भी बंटवारा हो सकता है l हांलाकि उनके पिताजी ने पहले से ही खेती दोनों भाइयों के नाम करा दी थी जिससे कि दोनों मे लड़ाई - झगड़ा न हो l हनुमान और छोटकऊ दोनों ने उस समय इस फैसले को स्वीकार कर लिया था । ब्राम्हणटोला के बहुत लोग इनसे नाराज थे ख़ास कर इस शादी के कारण। क्षेत्र के ब्राम्हणों में आज भी इनके खानदान का कोई सम्मान नहीं रह गया है। इनके पास अच्छा ख़ासा पैसा है,रुतबा है लेकिन इस घटना के बाद बीस बिसुआ वाले ब्राम्हणों के यहाँ से इनकी रिश्तेदारी नहीं हो पायी। अब तो बात बहुत पुरानी हो गयी है । तभी सकटू ने संकेत किया की देखो मान्य लोग भोजन कर चुके है। इसी समय छोटकऊ महाराज ने रामफल दादा के पास आकर कहा दादा , चलिए आप भी भोजन कर लीजिये !, ‘चलो सकटू भाई तुम भी चलो।‘ ‘चलो भाई, चलो भूख तो बड़ी जोर की लगी है। सकटू , मोलहे ,रामफल ,शंकर , गनी मियां सब भोजन करने के लिए आगे बढ़ गए ।भोजन बहुत ही स्वादिष्ट बना था इसलिए सब लोगों ने भरपेट अच्छे मन से खाया। खाने के बाद पान सुपारी का प्रबंध किया गया था।
गांव में ठाकुर रामफल का सभी लोग सम्मान करते थे । चौसठ - भोला छाप तम्बाकू वाला पान खाकर जब ठाकुर साहब चलने लगे तब छोटकऊ ने कहा – प्रधान दादा , अब दद्दू तो चले गए,उनके साथ ही इस तेलिनिया का सम्बन्ध ख़त्म हो गया। किसी ज़माने में आपने ही यह ब्याह करवाया था , अब जब दद्दू नहीं रहे तो इस तेलिन को हम अपने घर में कैसे रहने दे सकते है ? 'भाई जो तुम्हारी समझ में आये वही करो लेकिन अब जमाना बहुत बदल गया है। इस ज़माने में औरतो , लड़कियों की बातो को थाने में बड़े ध्यान से सुना जाता है। बहन जी का शासन है कही लेने के देने न पड जाय| नेता , ऑफिसर सब नीची जाति के है। कही जेल की हवा न खानी पड़ जाय।' ' अब जो होगा वो देख लेंगे। पहले तो दादा की शर्म थी, अब जब वही नहीं है तो इस ससुरी को घर में कौन रखेगा। अब तेरहवी के साथ - साथ सारे कार्य निपट गए। बस कल इस तेलिन को घर से भगाएंगे तभी घर पवित्र होगा बाकि तुम लोगो का सहयोग तो मिलेगा ही.... ? ‘भईया ! हम सहयोग का वादा तो नहीं कर पाएंगे। पहले अपने मोहल्ले में आस पड़ोस में सबकी राय- सलाह कर लीजिए। हम तो लखनऊ जा रहे हैं। चार दिन डी एम साहब के साथ एक सम्मलेन में रहना है। हम इस काम में तुम्हारे साथ नहीं है। ' ‘क्यों दादा ?’ ‘भाई! बात यह है कि हमने ही तो यह फैसला किया था कि चन्दावती हनुमान भईया के साथ उसी घर में रहेंगी। अब जब हनुमान भाई नहीं रहे तो किस मुँह से हम यह बात कहे की चन्दावती को घर से निकाल दिया जाए। गांव की औरते आदमी सब उसके साथ खड़े हो जायेंगे। सबके साथ उसका व्यवहार बहुत अच्छा है। पहले खुद भली - भाँति  सोच - विचार लो फिर जो समझ में आये जैसा मन हो करना। अब हम जा रहे है। कल सबेरे हमें लखनऊ जाना है। 'ठीक है दादा राम - राम ‘ रामफल चले गए। धीरे - धीरे खास रिश्तेदार के अलावा सब अपने - अपने घर चले गए। फतेहपुर वाले जीजा , कानपूर वाले मामा , सकटू और मोलहे वही छप्पर के नीचे कोटपीस (ताश)खेलने लगे। नाती - पोते बहुएँ बेटियो से सारा घर भर गया था। आसपास के सब लोग चले गए थे लेकिन तब भी घर में चहल - पहल थी। चन्दावती रिश्तेदारो से दूर ही रहती थी , क्योकि सब लोगो को जाति बिरादरी के मामले में चन्दावती की जाति के अलावा उसका रूप - गुण व सद्व्यवहार आदि कुछ भी नजर नहीं आता था।सब उसके व्यवहार को नीच जाति के हिसाब से ही जांचते परखते थे| अब तो चन्दावती ने अपने अकेलेपन के कारण दुःख से निढ़ाल होकर चारपाई पकड़ ली थी। अपने समय की सुंदरी चन्दावती ने अपने बाल कटवा डाले थे; उसकी कलाइयां सूनी हो गई थी, उसकी मांग का सिंदूर उजड़ गया था। उसके माथे पर चमचम चमकती बिंदी गायब हो गई थी। हालांकि उसके सूने माथे पर बिंदी की जगह साफ़ अब भी झलक रही थी। आखिर इस घर में उसका था ही कौन? अब तो उस घर में चन्दावती का हाल पूछने वाला कोई भी नहीं था। चन्दावती अब अपने भाई - भाभी के साथ भी नहीं रहना चाहती थी। लेकिन उसका और कहीं ठिकाना भी नहीं था। हनुमान दादा जब से बीमार हुए थे तब से चन्दावती सबके व्यंगबाण सुनते-सुनते पक गई थी। जब तक हनुमान दादा जिंदा रहे तब तक चन्दावती के मुंह पर कोई भी किसी भी प्रकार की गलत - सलत बात कहने का साहस नहीं करता था। हालांकि घरवालों ने उसका नाम चन्दो चाची रख दिया था। पहले तो बड़े लोग दबी जुबान से उसे चन्दो - चन्दो कहते थे पर अब तो घर के छोटे- छोटे बच्चे तक उसे चन्दो कहने लगे थे। परंतु चन्दावती अपने दुख में ये सब अपमान की बातें भूल गई थी । जब एक माह पहले हनुमान दादा को मियादी बुखार चढ़ गया था तब से उनके अंतिम समय तक चन्दावती ने एक पैर पर खड़े होकर उनकी सेवा की थी। बैंक में जो तीस हजार रूपया जमा था वह सब उनकी बीमारी में उड़ गया था। जब दस - बारह दिनो तक उनका बुखार नहीं उतरा तो गांव के डॉक्टर ने उन्हें लखनऊ ले जाने की सलाह दी। चंद्रावती ने अपने गले की जंजीर व कानों के झुमके बेचकर उनका इलाज करवाया। लखनऊ के पी.जी.आई. हॉस्पिटल का खर्च बहुत अधिक था। बुखार तो हनुमान दादा के दिमाग में चढ़ गया था। अंत में वहां के डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया। अब जब वो बेसहारा हो गयी तब उसको अपनी ज़िंदगी बोझ लगने लगी। छोटकऊ तो इन तीस सालो से चन्दावती से अपनी दुश्मनी निभाते चले आ रहे थे। वो तो मन ही मन में हनुमान दादा के मरने का इंतज़ार ही कर रहे थे।जब तक हनुमान दादा सुनने समझने लायक थे,तब तक दिखावटी लल्लो चप्पो करते रहे| जैसे - जैसे उनकी तबियत बिगड़ती गयी , वैसे - वैसे छोटकऊ महाराज उनसे दूर होते गये। चन्दावती के पास अब कुछ भी नहीं बचा था। ब्राम्हणों -टोले वालो के अलावा दूसरी बिरादरी के लोग उसका बहुत सम्मान करते थे। क्योकि दूसरी बिरादरी के लोग उसे शुक्लाइन समझ कर पैलगी(प्रणाम) करते थे। परंतु ब्राम्हणों ने उसका नाम चन्दो चाण्डालिन रख दिया था। उसकी जाति के ही कारण कुछ लोग इस प्रकार उसकी बेइज्जती करते थे। पर दूसरी (पिछड़ी ) जाति के लोग तो उसको शुक्लाइन ही कहते थे। और प्रणाम भी करते थे। गाँवो में नाम बिगाड़ने की परंपरा चलती है।उसी में दूषित मानसिकता वाले लोगो को आनंद आता है। एक बार हनुमान दादा ने बताया था कि नाम बिगाड़ने की परंपरा तो महाभारत के समय से चली आ रही है। कौरव दुर्योधन को दुर्योधन कहते थे परंतु पांडवों ने उसका नाम सुयोधन रखा था। क्योंकि पांडव उसको सुयोधन कहकर पुकारते थे और चिढ़ाते थे। कहते थे - जब हम चाहे तुम्हें जीत लेंगे क्योंकि सुयोधन का मतलब है जिसको बड़ी आसानी से जीता जा सके। दौलतपुर में इस तरह से उल्टा-पुल्टा नाम रखने वाले बहुत लोग थे जिनके पास बस इसी तरह के काम थे। पहले के दिनों में गरमियो में नीम की छाँव तले और जाडों में अलाव के पास बैठकर इसी तरह की बाते होती रहती थी, परंतु अब टेलीविजन आ जाने के बाद से इस तरह की बैठकी में कुछ कमी जरूर आ गयी है।
 शाम होते-होते ज्यादातर रिश्तेदार चले गये। अब सड़कें बन गई हैं तो आने जाने के साधन हर समय उपलब्ध रहते हैं| लेकिन छोटकऊ को तो चैन भी न पड़ी। हनुमान दादा का कमरा और बरामदा तो पहले से ही अलग था। बस थोड़ी सी झपकी ही आयी थी कि छोटकऊ बरामदे में लेटी हुई चन्दावती के पास पहुँच गए और कहने लगे- ‘तेलिन भौजी ! बहुत दिन हमारे घर में सो चुकी हो , अब जो तुमको इस घर में लाये थे वो तो चल गए। अब तुम अपने रास्ते जाओ।‘ चन्दावती को इस बात का अंदेशा तो पहले से ही था पर यह सब इतनी जल्दी होगा ऐसी आशा बिलकुल न थी। चन्दावती उठ कर बैठ गई चारपाई के नीचे रखे हुए लोटे में से दो घूंट पानी पिया, फिर पूछा – ‘क्या बात है छोटकऊ?.अब तो तुम्हारे दद्दू के साथ इसी घर में रहते हुए तीस साल हो गये है , अब क्या हो गया ? तीस साल पुराना फैसला तुम्हारे मिटाने से मिट जायगा ?... अभी सरपंच रामफल दादा मरे नहीं है उन्होंने ही हमारी शादी करवायी थी। घर में रहने का फैसला भी उन्होंने ही किया था।‘ 'अब जब दादा नहीं रहे तब वो शादी ..वो फैसला सब अपने आप खत्म हो गया। ' ‘तुम कौन होते हो भैया - फैसला ख़तम करने वाले। गाँव में पञ्च है प्रधान है वही लोग फैसला करेंगे।‘ ‘फैसला जब तक होगा तब तक शिवप्रसाद तुम्हारी क्या गति बना देगा , इसका अंदाज तो तुमको बिलकुल भी नहीं है। हम तो तुम्हारा भला चाहते है इसीलिए समझ रहे है। शिवप्रसाद तो अभी ..तत्काल तुमको घर से बाहर करने की ज़िद्द पर अड़ा है। तुम यदि अपनी इज्जत बचाना चाहती हो तो कल सबेरे इस घर में दिखाई न देना। रात में दरवाजा बंद करके ही सोना। हमारा फर्ज था सो तुम्हे समझा दिया है। बाकी जो तुम्हारी समझ में आये वो करो।  छोटकऊ चले गए। चन्दावती की आँखों से नींद उड़न छू हो गयी थी। वह डर गयी थी। झटपट बरामदे से उठकर कमरे के अंदर चली गई। इस समय तो उसे स्वयं सहारे की आवश्यकता थी। जिसके सहारे उसने अपना पूरा जीवन व्यतीत कर दिया था, वही इस वृद्ध अवस्था में धोखा देकर भगवान के पास चला गया था। अब तो चन्दावती का जीवन एक कटी पतंग की भांति हो गया था। जब तक हनुमान दादा जीवित थे, तब तक उनके फैसले के सामने किसी प्रकार टीका टिप्पणी करने की छोटकऊ की कभी हिम्मत नहीं पडी थी। हमेशा सिर झुकाकर ठीक है दादा कहने वाले छोटकऊ के विनीत स्वभाव की चन्दावती की आदत हो गई थी। तीस वर्ष पहले जब चन्दावती इस घर में आई थी तब हनुमान दादा ने समझाया था कि पति पत्नी के बीच में कोई तीसरा न आने पाए तो जीवन रूपी गाड़ी भली प्रकार आगे बढ़ती जाती है। अब एक - एक बात चन्दावती की आँखों के सामने चलचित्र की भाँति चमकने लगी। एक बार हनुमान दादा ने चन्दावती को बताया था कि भगवान राम और सीता माता के बीच बड़ी गहरी समझदारी थी। तुलसीदास जी ने कहा है –
जल को गए लक्खन है लरिका ,परिखौ पिय छांह घरीक हुइ ठाढ़े।
 पोछि पसेऊ बयारि करौ , अरु पाय पखारिहौ भूभुरि डाढे।
 तुलसी रघुवीर प्रिया स्रम जानिकै , बैठि बिलम्ब लौ कंटक काढ़े
 जानकी नाह को नेह लख्यो , पुलकयो तनु वारि विलोचन बाढ़े।
 अर्थात जब राम जी वन को चलने लगे तो सीता जी ने कहा कि - स्वामी हम भी चलेंगे। तब श्री राम ने उन्हें बहुत समझाया की वन के ऊबड़ - खाबड़ मार्ग में तुम नहीं चल पाओगी परंतु तब भी वे मानी नहीं। रास्ते में जब सीता जी थक जाती थी तब राम को पता चल जाता था की इस समय सीता थकी हुई है। सबसे विशेष बात तो यह थी की राम ने सीता से कभी यह नहीं कहा की तुमने हठ क्यों की थी?राम ने कभी उन्हें चिढ़ाया नहीं कि अब लो मौज करो। बस राम तो सीता के मन की बात समझ जाते और चुपचाप किसी वृक्ष की छाया में बैठकर सुस्ताने लगते थे। इस कविता में सीता कहती है - प्रिय , घडी भर किसी वृक्ष की छाया में खड़े हो कर प्रतीक्षा कर लीजिये , क्योकि लक्ष्मण अभी छोटे है और वो पानी लेने गए है। जब तक वो आते है तब तक लाओ तुम्हारा पसीना पोछ दूँ। और अंगौछे से तुम्हे हवा कर दूँ| गलियारे की गरम - गरम धूल में तो तुम्हारे पैर जल गए होंगे पानी आ जाये तो आपके पाँव धो दूँ। ऐसी बाते सुनकर राम अपनी प्राणप्रिया सीता के मन की बात समझ गए कि वास्तव में सीता स्वयं ही थक गयी है ,तब राम ने तो उनसे कुछ नहीं कहा बस चुपचाप अपने पाँव के काँटे निकालने लगे. राम जब पाँव के कंटक निकालने के बहाने बैठ गए और देर तक काँटा निकालने के बहाने बैठे रहे। तो सीता भी उनके मन कि बात समझ गयी। वो समझ गयी की उनके प्रियतम उनके प्रेम के वशीभूत हो रहे है , उन्हें विश्राम कराने के लिए देर लगा रहे है|और बिना किसी प्रकार की बातचीत के वो चुपचाप बैठे है। यह सोचकर हर्षातिरेक से सीता के शरीर में सुरसुरी सी दौड गयी , पूरा शरीर रोमांचित हो गया था। इस प्रसंग के स्मरण होने से चन्दावती की आंखें फिर डबडबा गई, और आँखों से आंसुओ की धार बहने लगी। वह आगे सोचने लगी कि - अभी उनको मरे कुल तेरह दिन ही बीते है और छोटकऊ ने अपना असली रंग दिखा ही दिया। मानो वो इसी दिन का इंतज़ार कर रहे थे। सीता हो या मीरा इस संसार में प्रत्येक स्त्री को परिक्षा देनी ही पड़ती है| जिसका पति नहीं रहता उसका कोई सम्मान नहीं होता। औरत तो आदमी की छाया मानी जाती है|आदमी ख़तम तो औरत जीते जी अपने आप ख़त्म हो जाती है। विधवा का जीवन तो अपराधिनी की भाति ही कटता है। देखो अब मेरे भाग्य में क्या लिखा है। लेकिन छोटकऊ जो अपनी मनमानी करने पर उतारू है और शिवप्रसाद को हमें घर से निकलने के लिए तैयार किया है , इस समस्या से किसप्रकार निपटा जा सकता है। इसी बात का सोच - विचार करते - करते चारपाई पर पड़े - पड़े चन्दावती को झपकी लग गयी और वह सो गयी। रात के घने अन्धकार की कालिमा चारो ओऱ फैल गयी थी।