शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

सहस्राब्दी स्मरण -अभिनवगुप्त की रसचर्या

प्रस्तुति #  भारतेंदु मिश्र


समय बीतता गया और भारतीय चेतना को साधारणीकरण व्यापार तथा रस की अभिव्यक्ति का  सिद्धांत देने वाले आचार्य को जन्मे एक सहस्र वर्ष हो गए| उनके कला विषयक सिद्धांतो के सकारात्मक  और समावेशी पक्ष –‘सत्यम शिवम् सुन्दरम’ की अविरल यात्रा को भी एक सहस्र वर्ष होने को आ गया |भारतीय कलास्वाद और रंग विश्लेषण की दृष्टि से भरत के उत्तराधिकारी के रूप में जिस चिन्तक की चर्चा गत सहस्र वर्षो में सर्वाधिक की गयी है उसका नाम आचार्य अभिनवगुप्त है| उनका वास्तविक नाम अभिनवगुप्तपाद है| उनके  नाम का  अभिप्राय समझने के लिए हमें अभिनव और गुप्तपाद दोनों शब्दों को अलग करके अर्थ समझना होगा | जो अभिनव है अर्थात जो नवीनतम है| दूसरा शब्द है गुप्तपाद अर्थात जिसके चरण गुप्त है, जिसकी गति में गोपन है| दाक्षिणात्य विद्वानों के अनुसार जो शेषनाग  का अवतार माना जाता है| जिस प्रकार शेषनाग के चरणों को किसी ने नहीं देखा लेकिन यह मान्यता है कि वे ही समूची पृथ्वी का भार अपने सहस्रफण पर उठाये हुए हैं | अभिनवगुप्त के चरणों (आयामों )की गति या प्रगति का अनुमान लगाना सहज नहीं है|तात्पर्य यह कि अभिनव अपनी मीमांसा से कला ,दर्शन और साहित्य के क्षेत्र में कितनी गहराई तक हमारी चेतना को ले जाते हैं यह कहना संभव नहीं है|
जैसे ग्रीक चिंतन में अरस्तू (384 ई.पू.) अपने ही गुरु प्लेटो की आलोचना करके कला संबंधी नकार को सकार में बदलने की कोशिश  करते हैं और कालान्तर में समूचे योरोपीय जगत में उनके विचारों का आदर किया जाता है| उनके विरेचन के सिद्धांत को आज भी दुनिया भर के साहित्य जगत में आदर प्राप्त है| अरस्तू यह समझाने में सफल हुए कि नाटक द्वारा करुणा और दुःख के अनुभव से गुजरने के बाद भावक के मनोभावों का विरेचन हो जाता है और उसकी आत्मा प्रसन्न हो जाती है| अर्थात पाश्चात्य चिंतन में नाटक दुख को मांजने का साधन बना| जबकि भारतीय चेतना में खासकर अभिनवगुप्त के पदार्पण के बाद से  रस की अभिव्यक्ति और उसके आस्वाद की विस्तृत चर्चा हुई है| प्राचीन भारतीय रंगमंच पर दुखांत नाटको  की वैसी कल्पना नहीं की गयी जैसी ग्रीक थियेटर में रही है|    
यह संयोग ही है कि लगभग उसी प्रकार अभिनवगुप्त भी अपने नाट्यगुरु भट्टतौत की आलोचना करके अभिव्यक्ति वाद की स्थापना करते हैं | रस प्रसंग में साधारणीकरण की बात तो भट्टतौत ने  ही की थी  लेकिन अभिनवगुप्त साधारणीकरण की नई व्याख्या देते हैं और उसे अभिव्यक्तिवाद से जोड़ते हैं |  बहरहाल अभिनवगुप्त द्वारा की गयी रस सिद्धांत की व्याख्या तथा शैवमत के कैवल्य के सिद्धांत को उनका परवर्ती कोई अन्य विद्वान खंडित नहीं कर सका | काव्यप्रकाशकार मम्मट जैसे  आचार्य तो अपने मंगलाचरण में ही अभिनवगुप्त के रस सिद्धांत की नैसर्गिक विवेचना के लेकर उनकी प्रशस्ति करते है-
नियतिकृतनियमरहिताम आल्हादैकमयीमनन्यपरतंत्राम |
नवरसरुचिरां निर्मितिमादधती कवेर्भारती जयति||     
अभिनवगुप्त के अनुयायी मम्मट के कहते है- कवियों की वाणी नैसर्गिक होती है,नियमो से आबद्ध नहीं रहती |वह नवरस  रुचिरा होने के कारण आल्हाद्मयी भी होती है ऐसी उस अनन्य स्वातंत्र्य देने वाली कवि परंपरा की जय हो| परमशिव के उपासक अभिनवगुप्त जैसा आलोचक टीकाकार भारतीय साहित्यशास्त्र और नाट्यशास्त्र में दूसरा नहीं हुआ| राम(सत्य) और रावण(माया ) दोनों को साध सकने की क्षमता भी शिव में ही निहित होती है| वे तांत्रिक भी है वे विरोधी तर्कों में भी सामंजस्य के बिंदु खोज लेते हैं| इसीलिए आचार्य मम्मट और आचार्य विश्वनाथ ने उन्हें अभिनवगुप्तपादाचार्य  की संज्ञा से विभूषित किया था| हिन्दी अभिनवभारती के व्याख्याता आचार्य विश्वेश्वर के अनुसार अभिनवगुप्त ने 41 ग्रंथो की रचना की परन्तु उनमे से केवल 11 ही प्रकाशित और विशेष चर्चित हो सके| प्रमुख रूप से उनके जिन ग्यारह ग्रंथो की रचना के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं वे क्रमश: इस प्रकार हैं –
1.बोधपंचदशिका,2.परात्रिंशिकाविवरण ,3.मालिनीविजयवार्तिक,4.तन्त्रालोक,5.तंत्रसार,6.तंत्रावटधानिका,7.ध्वन्यालोकलोचन 8.अभिनवभारती,9.भगवत्गीतार्थसंग्रह,10.परमार्थसार,11.ईश्वरप्रत्याभिज्ञाविमर्शिनी|
अभिनवगुप्त का जीवन परिचय भी उनके इन्ही ग्रंथो से मिलता है| वे अपने इन्ही ग्रंथो में अपने काल का भी उल्लेख करते चलते है|यद्यपि कश्मीर के इतिहास में उनके पूर्वजो का विस्तार से उल्लेख मिलता है| आचार्य विश्वेश्वर के अनुसार अभिनव का समय 950 ई. से 1025 ई.के बीच में माना जाना चाहिए| अभिनवगुप्त्पाद ने अपने ग्रंथो में ही अपने पूर्वजो और अपने गुरुओ का बड़े आदर से उल्लेख किया है| अभिनवगुप्त के पूर्वज अत्रिगुप्त अभिनव के जन्म से लगभग 200 वर्ष पूर्व कान्यकुब्ज (कन्नौज) से कश्मीर गए थे| हुआ ये कि काश्मीर के राजा ललितादित्य(725-761 ई.) ने कन्नौज के राजा यशोवर्मा(730-740 ई.) को युद्ध में पराजित किया और कन्नौज को कश्मीर में मिला लिया, फिर राजा ललितादित्य ही युद्ध के उपरांत अत्रिगुप्त जैसे प्रसिद्ध विद्वान को राजकीय सम्मान के साथ कान्यकुब्ज से कश्मीर ले गए| कश्मीर में उस समय अनेक दार्शनिक परंपराओं का शुभारंभ तब तक हो चुका था| बौद्ध ,मीमांसा,न्याय,शैव,सिद्ध ,सूफीमत  के अनुयायी पहले से ही विद्यमान थे| शंकराचार्य ने पीठ की स्थापना कर ही दी थी| अपने पूर्वजो के विस्थापन की सूचना देते हुए तन्त्रालोक में अभिनवगुप्त कहते हैं –
नि:शेषशास्त्रसदन किल मध्यदेश:
तस्मिन्नजायत गुणाभ्यधिको द्विजन्मा|
कोप्यत्रिगुप्त इति  नामनिरुक्तगोत्र:
शास्त्राब्धिचर्वणकलोद्यगस्तस्यगोत्र: |
तमथ ललितादित्यो राजा स्वकं पुरमानयत
प्रणयरभसात काश्मीराख्यं हिमालयमूर्धगम|| (तन्त्रालोक-27)
अर्थात अगस्त्य कुल में जन्मे मध्य देश के निवासी सकल शास्त्र के ज्ञाता द्विजकुल भूषण अत्रिगुप्त को शास्त्रों के ज्ञान रूपी समुद्र का आनंद लेने के लिए काश्मीर का  राजा ललितादित्य प्रेमपूर्वक अपने नगर को ले आया| उनका कुल ही कश्मीर में चुलुखक के नाम से विख्यात हुआ|  अत: अभिनवगुप्त के वंशज कन्नौज के निवासी थे|जो अभिनवगुप्त  के जन्म से 200 वर्ष पूर्व ही काश्मीर ले जाए गए थे| कल्हण कृत ‘राजतरंगिणी’ में भी इस सत्य के प्रमाण मिलते हैं| ये कान्यकुब्ज से कश्मीर जाने वाले अत्रि गुप्त ही इनके परबाबा थे | बाबा का नाम वराहगुप्त और पिता का नाम नृसिंह गुप्त और माता का नाम विमलकला था| इनकी माता का देहांत बाल्यकाल में ही हो गया था| अभिनव में विद्यार्जन की प्रबल उत्कंठा थी|अभिनवगुप्त अपने सात गुरुओ का उल्लेख भी करते हैं जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार है-
1.नृसिंह गुप्त (पिता,जिनसे व्याकरण सीखी )
2.वोमनाथ (द्वैताद्वैत –तंत्र के गुरु )
3.भूतिराजतनय (शैव संप्रदाय के गुरु )
4.लक्ष्मण गुप्त (प्रत्यभिज्ञा,क्रम तथा त्रिक दर्शन के गुरु )
5.इन्दुराज (ध्वनिसिद्धांत के गुरु )
6.भूतिराज (ब्रह्मविद्या के गुरु )
7.भट्टतौत (नाट्यशास्त्र के गुरु )
 इसके अतिरिक्त भी अन्य गुरुओ का बिना नामोल्लेख के स्मरण अभिनवगुप्त करते हैं | कहा जाता है  कि अभिनवगुप्त  योगिनीभूत पुत्र थे | उनकी बाल्यावस्था में ही माता का देहांत हो गया| पिता नृसिंह गुप्त  अपनी सुन्दरी पत्नी विमलकला के विछोह के दुख को सह न सके और जल्दी ही घर छोड़कर चले गए| मातृ पितृ विहीन बालक अभिनव अपनी सारी चपलता भूलकर दार्शनिक सिद्धान्तो और कलाओं के विवेचन आदि में अपना समय व्यतीत करने लगा | परिजन हीन बालक होने के नाते विवाह भी नहीं हुआ| धीरे धीरे अभिनव साहित्य से विमुख होकर शिव की कलाओं की ओर प्रवृत्त हो गए| यथार्थ जीवन में रसभोग का अवसर ही  नहीं था तो उन्होंने नाट्यशास्त्र,काव्यशास्त्र,शैव कलाओं आदि के रस का आस्वाद लेना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया | अभिनवगुप्त ने आजीवन ब्रह्मचर्य धारण करके भैरव गुफा में साधना की| कहा जाता है कि उनकी भैरव गुफा आज भी कश्मीर से गुलमर्ग जाने वाले मार्ग पर कही पायी जाती है| उस गाँव का नाम भैरव है|उसके समीप भैरवी नदी बहती है|वही पर यह भैरव गुफा भी है| इस गुफा में 40 से 50 व्यक्ति बैठकर एक साथ साधना कर सकते हैं| अब यह शोध का विषय है कि क्या ये वही गुफा है जिसमे अभिनवगुप्त्पाद साधना करते थे| लगभग 80 वर्ष की आयु पाकर उन्होंने इसी गुफा में अंतिम प्रयाण किया| बहरहाल उनकी साधना को प्रणाम करते हुए हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि आचार्य अभिनवगुप्त के समय को लगभग एक हजार वर्ष व्यतीत हो चुके हैं |तथापि वे और उनके साहित्याशास्त्रीय सिद्धांत आज तक उतने ही प्रासंगिक बने हुए हैं| यह सिद्धि उनकी गहन साधना से ही संभव हुई होगी| इसके अतिरिक्त अभिनवगुप्त की कुछ कृतियाँ क्रमदर्शन और कुछ त्रिकदर्शन से भी संबंधित हैं|



एक और अभिनवगुप्त नामक आचार्य की चर्चा ‘शंकरदिग्विजय ’नामक ग्रन्थ में भी मिलती है| जो शाक्त परंपरा के थे और जिन्हें शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ में पराजित किया था| ये अभिनवगुप्त मूलत: असम प्रदेश के निवासी थे जो इन अभिनवभारती टीकाकार  अभिनवगुप्त्पादाचार्य से 200 वर्ष पहले हुए होंगे| वही शंकराचार्य का भी समय था| तात्पर्य यह कि अभिनवगुप्त्पाद को शंकराचार्य की दिग्विजय के प्रसंग से जोड़ना उचित नहीं लगता| ऐसा लगता है कि बाद के कुछ विद्वानों ने भ्रमवश अभिनवगुप्तपाद को 200 वर्ष पहले वाला अभिनवगुप्त समझ लिया| ’शंकरदिग्विजय’ के रचनाकार द्वारा दूसरे अभिनवगुप्त (असम वाले शाक्त परंपरा के अनुयायी अभिनवगुप्त की शंकराचार्य से पराजय )के उल्लेख से  उपजे भ्रम से  कालान्तर में ही ऐसा हुआ होगा |अत: यह भ्रम विद्वानों को नहीं बनाना चाहिए कि शंकराचार्य और अभिनवगुप्तपाद का समय एक ही है|
यहाँ हम जिन अभिनवगुप्तपाद की चर्चा कर रहे हैं वे अभिनवगुप्त हमारी नाट्यपरंपरा  साहित्य परंपरा के एक मात्र महान समालोचक हैं |वे जब शैवदर्शन की बात करते हैं तो स्वयमेव भारतीय कलाएं  ,भारतीय सौन्दर्य चेतना तथा भारतीय दार्शनिक परंपरा एकत्र होकर प्रकाशित और आभासित होने लगती है| असल में भारतीय कलाचेतना दार्शनिकबोध और साहित्यशास्त्र तथा नाट्यशास्त्र में एक आतंरिक साहचर्य का भाव सदैव विद्यमान रहता है| ये अलग अलग चिंतन धाराए होते हुए भी जीवन और जगत में एकरूप हैं |ये कलाए लोक से ही प्रेरित भी होती है और लोक सिद्धि में ही इनकी व्याप्ति भी होती है| भरत कहते है— ‘तस्माल्लोकप्रमाणम  हि ज्ञेयं नाट्यम’ अर्थात कला की साधना परमतत्व की साधना के समकक्ष है और इसे ही समष्टि की साधना के रूप में भी समझा जा सकता है| अग्निपुराणकार ने इसी लिए रस को ही ब्रह्म माना है-
            “रसो वै स: येन ही लब्ध्वानंदी भवति|” अर्थात वह रस ब्रह्म का ही पर्याय है| अर्थात रसवादी सृष्टि –कलाए-नाटक,संगीत,काव्य,वास्तु,स्थापत्य आदि परमानंद की साधना के अलग अलग मार्ग हैं | यही कारण है कि अभिनवगुप्त कलावादी होते हुए भी महान दार्शनिक प्रतीत होते हैं |अब ज़रा इस तर्क के आधार पर अभिनवगुप्त की कलाचेतना  सौन्दर्यचेतना और उनके साधारणीकरण व्यापार की व्याप्ति को परखिये कि लगभग एक सहस्र वर्षो से उनके साधारणीकरण व्यापार जैसा महत्वपूर्ण सिद्धांत अभीतक दूसरा नहीं बना सका|
तंत्र,काश्मीर शैवदर्शन,प्रत्यभिज्ञा दर्शन और स्वतंत्रकलाशास्त्र के वे ही सर्वप्रथम उद्गाता हैं | अभिनवगुप्त भारतीय कलाचेतना के सर्वप्रथम विश्लेषक होने के साथ ही दार्शनिक और कवि भी हैं | जब हम कलाचेतना की बात करते हैं तो उसमे समस्त ललित कलाओं का समावेश किए जाने की ओर हमारा लक्ष्य है| वस्तुत: यही भारतीय सौन्द्र्यान्वेशी चेतना का बीज रूप है|अनेक ललित कलाओ का सीधा संबंध शिव और पार्वती से है|अभिनवगुप्त भैरव गुफा में शिव तत्त्व की ही परम साधना करते है और वही बैठकर नाट्यशास्त्र की अभिनवभारती ,ध्वन्यालोक लोचन जैसी टीका के अलावा काश्मीर शैव,प्रत्यभिज्ञा ,त्रिक ,क्रम जैसे दार्शनिक मतों पर काम करते हैं |  उनके पास विवेचना के अनेक कोण हैं जिनसे वे दुरूह दार्शनिक सिद्धांतो को सहज स्वाभाविक और आधुनिक भाषा में कहे तो मनोवैज्ञानिक बनाने में सफल होते हैं | खासबात ये भी है कि उनका दर्शन और चिन्तन आस्तिक होते हुए भी  किसी कर्मकांड पूजा पद्धति परंपरा आदि पर केन्द्रित नहीं है| अर्थात उनका  साधारणीकरण व्यापार और उससे विक्सित हुआ अभिव्यक्तिवाद का सिद्धांत  काव्य,नाट्य ,संगीत,चित्र,वास्तु और स्थापत्य जैसे सभी ललित कला व्यापारों पर सामान रूप से लागू होता है | साधारणीकरण व्यापार की प्रक्रिया द्वारा ही कलाओं के माध्यम से मनुष्य के मन में स्थायीभाव के रूप में  सुसुप्त अवस्था में विद्यमान रस रूपी आनंद की अभिव्यक्ति होती है|
हालांकि मम्मट ,विश्वनाथ,पंडितराज जगन्नाथ जैसे परवर्ती आचार्यो ने उन्हें टीकाकार के रूप में ही सर्वाधिक मान्यता दी है| अभिनव तो गुप्तपाद  हैं उनके चरण कलाओं की कितनी गहराई  तक जाते है, विद्वानों को ले जाते हैं  और किस स्तर पर कलाओं और दार्शनिक सिधान्तो की व्याख्या करते हैं यह सर्वविदित है| ध्वनि सिद्धांत  की व्याख्या करते हुए अभिनवगुप्त सहृदय सामाजिक की जो परिभाषा प्रस्तुत करते हैं वह तो विलक्षण ही है ––येषां काव्यानुशीलनभ्यासवशादविशदीभूते मनोमुकुरे वर्णनीयतन्मयीभवन योग्यता ते स्वहृदयसंवादभाजा:  सहृदया:|(लोचन,ध्वन्यालोक 1/1पृ-39 )
अर्थात अभिनवगुप्त कहते है कि –‘सतत काव्य अनुशीलन के अभ्यास से जिनका मन रूपी दर्पण विस्तृत हो चुका है और जिनमे प्रसंगानुकूल वर्णन में तन्मय होने की पात्रता उत्पन्न हो गयी है और जो अपने ही ह्रदय की संवेदना के पात्र बन चुके है अर्थात तदानुभव की स्थिति में पहुँच गए है वे सहृदय हैं | ’
आज तक सहृदय की इतनी सटीक व्याख्या कही दूसरी जगह नहीं मिलती| यह सहृदय का लक्षण हम किसी भी कला के सहृदय के साथ जोड़ सकते हैं | तात्पर्य यह कि अभिनवगुप्त ने यह लक्षण ध्वनि की विवेचना करते समय काव्य के लिए दिया है,जो एक ललित कला का रूप है |अभिनव भारती में अनेक कलाओं और कलाव्यापारो का भावन करते समय जिन प्राश्निको की कल्पना की गयी है वे सब कला विश्लेषक ही है| उनसे भी इसी प्रकार की सहृदयता की अपेक्षा अवश्य रहती है| ये कोई सफल अभिनेता ही होता है जो राम रावण आदि के चरित्र को समाज में साधारणीकृत करने और उसका भावन कराने में सफल होता है| जितने मंच हैं -जितने समाज है- उतने राम है उतने साधारणीकरण के रूप हैं| उतनी ही अनंत छवियो वाला रसचर्या का आनंद लोक है| प्रत्येक अभिनेता की अभिव्यक्ति भंगिमा भी अलग है| सब भावक अपने आस्वाद के अनुरूप आह्लादित होते हैं | रसचर्या की प्रक्रिया एक जैसी है अभिव्यक्ति और आस्वाद की भंगिमाए अनंत है| यही भारतीय सौन्दर्य दृष्टि का सिद्धांत अभिनवगुप्तपाद  भरत के नाट्यशास्त्र  से लेकर व्याख्यायित करते हुए सर्वसाधारण सामाजिक सहृदय तक पहुंचाने का कार्य करते हैं | साधारणीकरण,वासना और संविद्विश्रान्ति को आचार्य बलदेव उपाध्याय ने अभिनवगुप्त की रसचर्या के तीन प्रमुख बिंदु स्वीकार करते हुए कहा है- ‘अभिनव की दृष्टि से साधारणीकरण  ललितकला के क्षेत्र में सामान्यरीत्या स्वत: नैसर्गिकरूपेण आविर्भूत होने वाला तत्त्व है|’(संस्कृत साहित्य का इतिहास-पृ.607)| भरत और अभिनवगुप्त की यह व्याख्या लोकहित में भी है लोकानुसारी भी है| जहां न कोई बड़ा है न छोटा है न सवर्ण है न दलित है |स्त्री, पुरुष या राजा, रंक का कोई भेद नहीं है| लोक के आलोक में निर्मित हुआ वह भरत और अभिनवगुप्त का सार्वजनिक रंगमंच है|     
       अभिनवगुप्त शिव के तांडव और गौरी के लास्य दोनों की एकसाथ साधना करने में दक्ष हैं |वे अर्धनारीश्वर के रूप में परमशिव तत्त्व और महामाया सहित 36 तत्वों की भी अविरल साधना करते हैं | उनका शैवमत एक और जहां सांख्य दर्शन के बहुत निकट है वहीं दूसरी ओर  शंकराचार्य के विशिष्टाद्वैत से पर्याप्त भिन्न है| वे लोकवादी है ,वे कलावादी है,वे समन्वयवादी है| आज एक सहस्र वर्ष बाद भी आचार्य अभिनवगुप्त के दार्शनिक सिद्धांत और कलाचेतना के सिद्धांत लगभग उसी प्रकार हमारी चेतना और हमारे मन को आप्लावित करते है जिस प्रकार वे अपने समय में करते थे| अभिनवभारती में उन्होंने रस चर्वण या रसचर्या के लिए लोक जीवन में सहज उपलब्ध जिस पानक रस का उल्लेख किया है वह आज भी पना(आम या इमली का पना) के रूप में जाना जाता है| इस पना में पाक कला के मूल  षडरस की व्यंजना सम्मिलित होती  हैं जिन्हें हम तिक्त ,मधुर ,कटु ,अम्ल,काषाय और लवण के रूप में जानते हैं| ये सभी भोजन के छः रस मिलकर पना के आस्वाद को विलक्षणता प्रदान करते हैं |यही कारण है कि पना का नाम स्मरण करते ही मुख में पानी आ जाता है| अभिनवगुप्त कहते है इसी तरह यह कलाओं का  आस्वाद  भी चर्वणा लभ्य है| इसे भी कलाकार विविध भावो विभावो अनुभावो और स्थायी आदि से पुंजीभूत करके सहृदय सामाजिक के लिए तैयार करते हैं | कला की ऐसी रसवादी सृष्टि किसी भी रूप में ब्रह्मानंद से कम नहीं हो सकती| कला माध्यम कोई  भी हो-  चाहे नाट्य हो,काव्य हो,संगीत हो,वास्तु हो या फिर चित्र आदि| कलाओं में संतुलन -संगति और लोकोंमुखता होने पर ही रस की अभिव्यक्ति निर्भर करती है| यह रस या आनंद की अभिव्यक्ति ही तो हमारे जीवन और जगत का मूल है| रस की अभिव्यक्ति केवल सहृदय सामाजिक को ही नहीं होती वरन नट/कवि/ संगीतकार और  कलाकार को भी सतत अनिवार्य रूप से होती है|     
ऐसे सौन्दर्य चेता दार्शनिक ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक शैवमत को ही नहीं विक्सित किया वरन पूरे विश्व में भारतीय सौदर्य दृष्टि को भी विकासित किया है|जिसकी विवेचना परंपरा मध्य काल की भारतीय कलाओं पर साफ़ तौर से देखी जा सकती है|  उसकी विवेचना आधुनिक समय में भी उतनी ही प्रासंगिक है| मुझे लगता है कि हमारे उत्तर आधुनिक समाज में भी भारतीय कलाओं और भारतीय सौन्दर्य चेतना को समझने के लिए अभिनवगुप्तपाद को पढ़ना समझना आज भी आवश्यक है| ऐसे महान कवि  रंगविश्लेषक, चिन्तक शैव दार्शनिक आचार्य अभिनवगुप्तपाद की स्मृति को बारंबार नमन|   
संपर्क :
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फ़ो.-9899282621