शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011



अष्टावक्र


(लोकविख्यात बालयोगी अष्टावक्र के जीवन पर केन्द्रित नाटक)

दृश्यबन्ध-दो

(अष्टावक्र का घर ही विद्यापीठ था तो लगातार नए वटुक आते रहते थे। ये वटुक सिर मुडा कर एक लँगोटी,एक धोती,एक जनेऊ लेकर आते थे। इनका उपनयन संस्कार होता था। और फिर माता भिक्षां देहि कहते हुए उन्हे आचार्य विद्यापीठ मे ले आते थे। धोती आचार्य के लिए,लँगोटी अपने लिए जो धोती नही दे पाते थे वे अँगौछा या उत्तरीय ही ले आते थे। अनाज फल गुड आदि की व्यवस्था अभिभावक ही करते थे। सर्दियों के लिए काली कमली भी वटुक अपने घर से ही लाते थे। आचार्य सुयश शर्मा वेदविद्या के खासकर कर्मकाण्ड के आचार्य थे। ज्यादातर विद्यार्थी पुरोहिताई सीखने आते थे। वटुको की संख्या दस से अधिक थी।गायो की सेवा,गोदोहन,उपले थापने आदि का दैनिक कार्य वटुको का ही था।आचार्य जी ने दिन के हिसाब से सभी वटुको को कार्य सौप रखा था।उपनयन करवाने के बाद जो भी वटुक वहाँ आता वह सबके साथ अपनी कुटिया बनाकर रहता। सभी वटुको का भोजन आदि सावित्री और सुमित्रा ही बनाती थी।सावित्री अस्वस्थ थी,अब उसकी एक ही चिंता थी कि अष्टावक्र स्वावलम्बी कैसे बने। एक दिन साँझ को सुलाते समय सावित्री ने बेटे के सिर पर हाँथ फिराते हुए कहा-)

सावित्री:-बेटा अब तू बडा हो गया है,अपने आप शौच आदि जाया कर।अपने आप नहाया कर और लँगोटी धोने की आदत भी डाल ले।

अष्टावक्र:-क्यों,माँ?...अपने आप क्यो?

सावित्री:-बेटा कुछ कार्य संसार मे अपने आप ही करने होते हैं,सभी वटुक करते हैं न?..पहले तुझे कठिनाई होगी लेकिन अभ्यास करेगा तो स्वावलम्बी बन सकेगा।

अष्टावक्र:- मैं... सामान्य नही हूँ..आप तो जानती हैंवैसे आप कहीं जाने वाली हैं ?

सावित्री:-हाँ बेटा मेरी तबियत ठीक नही रहती,पता नही कब साँस रुक जाये....सुमित्रा बुआ भी यह सब नही करेंगी.....तू सामान्य नही, तू तो विशेष है-मेरा लाल,फिर अब तू बडा हो आया है।

अष्टावक्र:-अभी आपको सौ साल तक जीवित रहना है..माँ...

सावित्री:-(मुस्करायीऔर गहरी साँस लेकर बोली) चल ठीक है,बातें न बना।कल से अपने काम स्वयं करने का प्रण कर।

अष्टावक्र:-हाँ मै प्रण लेता हूँ.....।मै अष्टावक्र ,अपनी माता के समक्ष प्रण लेता हूँ कि कल से अपने सभी दैनिक कार्य स्वयं करूँगा..अब तो ठीक है माँ।

सावित्री:- (सावित्री की आँखे भर आयीं).. ठीक है। लेकिन ध्यान रहे ..कठिनाई से डर मत जाना।

अष्टावक्र:-बस आप देखना माँ।

(दूसरे दिन सुबह से ही अष्टावक्र ने अपने दैनिक कार्य करने शुरू किये तो सचमुच उसे बहुत कष्ट हुआ। उस की सबसे बडी समस्या चलने की थी।चलने के नाम पर वह हाँथों और पैरो के बल घिसटता था। पहले दिन उसे बिना किसी की सहायता के काम करने मे दोगुना समय भी लगा। किंतु माता के सामने लिया प्रण उसने निभाया। )

सावित्री:- ( आँचल मे मुँह छिपाकर)-कितना कष्ट हो रहा है मेरे लाल को ,हे दैव,क्या करूँ...अरे इसके तो घुटने छिल गये हैं...खून भी बह आया है..इसकी मदत करनी चाहिए ...मैने निरर्थक ही प्रण दिलाया..मै भी इतनी कठोर हूँ?

सुमित्रा:-दीदी..क्यो रो रही हो ,मै इसकी मदत करती हूँ ...

सावित्री:- नही सुमित्रा!..इसकी आवश्यकता नही है। यह इसकी पहली परीक्षा है। मुझे देखने दो कि यह अपना प्रण निभा पायेगा कि नही?

सुमित्रा:- दीदी इसे बहुत कष्ट हो रहा है,

सावित्री :- मै देख रही हूँ, लेकिन मेरा लाल हारेगा नही ऐसा मेरा विश्वास है।

सुमित्रा:- आप ठीक कहतीं हैं दीदी...लेकिन मुझसे भी देखा नही जा रहा..

सावित्री:-बस अब रोज देखना,धीरे-धीरे वह अपने काम स्वयं करेगा।

(अष्टावक्र ने शौचादिक से निवृत्त होकर आज स्वयं स्नान भी किया था। पिता ने भी यह देखा लेकिन उन्हे इसकी कोई प्रसन्नता न हुई। वे बिना कुछ बोले ही अपने काम मे व्यस्त हो गये। सावित्री के लिए यह बडी घटना थी। अष्टावक्र के छिले हुए घुटनो और कुहनियो से अभी खून बह रहा था। )

सावित्री:- कहो मेरे लाल?...बहुत पीडा होगी?

अष्टावक्र:- (अष्टावक्र के आँसू निकल आये थे,लेकिन वह मन से तो वह सबल हुआ था,बोला) हाँ माँ पीडा तो है..किंतु आज मै विजेता बन गया हूँ...मैने अपना प्रण निभाया..

सावित्री:- (आँचल से पुत्र की आँखे पोछते हुए) सचमुच मेरे लाल!..तुम आज विजेता बन गये हो जीवन की पहली परीक्षा मे सफल हो गये।..मै बहुत प्रसन्न हूँ,..सुमित्रा!अरे जल्दी से मेरे लाल के घावो पर औषधि लेप करो।..रहने दो लाओ मै ही करती हूँ।

(सावित्री देर तक पुत्र के घावो को साफ करके उनपर इंगुदी के तेल की मालिश करती रही। फिर पुत्र का मुँह चूम कर बोली)

सावित्री:- देखो भोंदूराम,तुम सामान्य बालक नही हो,तुम तो परमात्मा के विशेष दूत हो-इसी लिए तुम सबसे अलग हो...

अष्टावक्र:- दूत क्या करता है माँ?

सावित्री:- परमात्मा का दूत सच्चा मनुष्य होता है,वह दुनिया भर को सही रास्ता दिखाता है।

अष्टावक्र:क्या दूत के हाथ पैर मेरे जैसे ही होते हैं?

सावित्री:हाँ ..ऐसे भी होते हैं,वैसे भी होते हैं...

अष्टावक्र:ऐसे भी और वैसे भी का क्या अर्थ है माँ?

सावित्री:तनिक बडा होगा तो स्वयं समझ जायेगा। अब चुप रह औषधि लेप करने दे।

सुमित्रा:-दीदी,आपका प्रयोग सफल रहा।

सावित्री:-तुम तो जानती हो मेरी तबियत कुछ ठीक नही रहती। वैद्य जी ने कहा है कि खाँसी ठीक नही हुई तो अंतिम समय दूर नही..

सुमित्रा:-आप ऐसा क्यो सोचती है

सावित्री:-सुनो मेरी बात,अष्टावक्र मे मेरे प्राण बसते हैं..मुझे यदि कुछ हो जाये तो मेरे बाद तुम्हे ही इसका ध्यान रखना होगा..मुझे वचन दो

सुमित्रा:-आपको कुछ नही होगा दीदी!,बस अभी ज्यादा मत बोलिए-खाँसी बढ जायेगी।...मेरी ओर से आप निश्चिंत रहें-जैसा कहेगी वैसा ही होगा।

अष्टावक्र:-माँ वो प्रहलाद वाली कहानी सुनायी थी आपने...

सावित्री:-हाँ वो तो पूरी हो गयी थी।

अष्टावक्र:-किंतु माँ नरसिंह भगवान का आधा शरीर पशु जैसा था और आधा मनुष्य जैसा फिर वो चलते कैसे थे-यह तो आपने नही बताया?

सावित्री:-वो सब तरह चल सकते है। मनुष्य की तरह भी और पशु की तरह भी..

अष्टावक्र:-मेरे जैसे भी?..मै तो पशुओ की तरह चल पाता हूँ...

सावित्री:-हाँ,तो क्या हुआ ...(आँसू पोछते हुए) बस जीवन के लिए चलना आवश्यक है मेरे भोन्दूराम। बस ये सोचो कि तुम्हे चलते रहना है।

(अष्टावक्र नरसिंह भगवान के शरीर और अपने शरीर मे तमाम समानताएँ खोजने लगा। वह यो ही आत्ममंथन करता रहा।)